..जब 12 हज़ार फीट ऊपर इंसानों ने खाया इंसानों का मांस!

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..जब 12 हज़ार फीट ऊपर इंसानों ने खाया इंसानों का मांस!
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ये एक दिल दहला देने वाली दास्तां है, जिसने आज से 5 दशक पहले कुछ इंसानों को इंसानों का ही मांस खाने वाला हैवान बना दिया था। और ये हैवानियत की इबारत ज़मीन से 11 हजार फीट की ऊंचाई पर लिखी गई थी, दुनिया के सबसे खतरनाक इलाके में जहां चारों तरफ सिर्फ बर्फ से ढके पहाड़ थे और बीच में थे 16 नरभक्षियों की टोली।

जिन इंसानों का मांस वो खा रहे थे वो कोई और नहीं बल्कि उनके अपने दोस्त और रिश्तेदार ही थे। लेकिन ऐसा क्या था जिसने उन लोगों को अपने ही भाई बंधुओं का मांस खाने के लिए मजबूर कर दिया था। ये जानने के लिए आपको 5 दशक पहले जाना होगा।

ये कहानी शुरू होती है 13 अक्टूबर 1972 को, वो एक बेहद साफ आसमान वाला दिन था, मौसम सुहाना था और उरुग्वे के मोंटेविडयो एयरपोर्ट से 45 लोगों से भरा एयरफोर्स का प्लेन फेयरचाइल्ड एफ 227 उड़ान भरने वाला था। प्लेन में सवार थी उरुग्वे की ओल्ड क्रिश्चियन रग्बी टीम, खिलाड़ियो के परिवार के सदस्य और उनके करीबी दोस्त।

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40 मुसाफिरों के साथ ही प्लेन के 5 क्रू मेंबर भी इस उडान में मौजूद थे, मंजिल थी चिली का सेंटियागो जहां इस टीम को रग्बी का मुकाबला खेलना था। प्लेन उड़ान भरने ही वाला था और खिलाड़ियों का जोश आसमान छू रहा था, उस खतरे से बेखबर जो इस प्लेन के रास्ते में मौत का जाल बिछाये खड़ा था। उन्हें अंदाजा भी नहीं था कि ये प्लेन किस मुसीबत का शिकार होने वाला है।

सेंटियागो का हवाई रास्ता एंडीज पर्वतमाला की ऊंची बर्फीली पहाडियों से बीच से होकर गुजरता था, इन पहाड़ों के बीच मौसम की मुसीबत तो थी ही, प्लेन को पहाड़ियों के बीच से सही सलामत निकालना भी चालक दल के लिए एक बड़ी चुनौती थी। मगर प्लेन के आधे रास्ते तक पहुंचते ही मौसम खराब होने लगा, बादलों ने प्लेन का रास्ता रोक लिया और प्लेन भटककर अर्जेन्टीना की सीमा की ओर जाने लगा।

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नीचे बर्फीली वादियां, खतरनाक पहाड़ी चोटियां और ऊपर हवा में फंसे 45 लोग, पायलट ने प्लेन को बचाने की लाख कोशिशें की, मगर खराब मौसम और तूफानी हवाओं के सामने उसकी सारी कोशिशें बेकार रहीं।

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11800 फीट की ऊंचाई पर प्लेन हिचकोले खाने लगा, देखते ही देखते प्लेन पहले एक ओर पहाड़ी के कोने से टकराया और फिर लहराता हुआ दूसरी पहाड़ी से जा टकराया। चंद मिनटों में प्लेन टुकड़े-टुकड़े होकर बर्फ के रेगिस्तान में गिर गया, एंडीज की कैरो सीलर नाम की इन बर्फीली पहाड़ियों में चारों ओर ग्लेशियर और बर्फ बिखरी पड़ी थी, और इन्हीं के बीच पड़ा था उरुग्वे के एयरफोर्स प्लेन फेयरच्लाइड का मलबा। हादसे ने 12 लोगों की पलक झपकते ही जान ले ली और 5 लोगों को मौत के बिल्कुल करीब लाकर छोड़ दिया। अब बर्फ के बियाबान में ये लोग बिल्कुल अकेले थे।

एंडीज की बर्फीली पहाड़ियां में बचे और फंसे मुसाफिरों को कुछ समझ नहीं आया कि अब करना क्या है? दुनिया को लग रहा था कि इस हादसे में कोई ज़िंदा नहीं बचा है। दरअसल सफेद प्लेन बर्फ के रेगिस्तान में ऐसे छिप गया था कि उसे खोजने की हर कोशिश बेकार साबित हो रही थी, रेस्क्यू टीम कई बार आस-पास के इलाकों के चक्कर लगाकर लौट गई, नीचे जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे लोग बचाव के लिए आए हेलीकॉप्टर को देखकर चिल्लाते लेकिन उनकी आवाज़ बर्फ की पहाड़ियों में खो जाती।

मुसाफिरों और क्रू मेंबर समेत कुल 45 लोगों में अब इस बर्फीले रेगिस्तान में सिर्फ 28 जिंदगियां बची थीं, जिनके पास ऊपरवाले ने जिंदगी बचाने के लिए एक सहारा छोड़ दिया था। वो सहारा था प्लेन के बीच का वो हिस्सा जिसमें ये लोग बर्फीले तूफानों से छिपकर बैठे थे, कुछ बुरी तरह घायल थे तो कुछ के हाथ-पैर टूट चुके थे।

गहरी चोट के चलते कुछ दिनों के भीतर ही एक और मुसाफिर ने दम तोड़ दिया और 15 दिन बाद आये एक बर्फीले तूफान ने आठ और लोगों की जान ले ली, हादसे के 21 दिन के बाद खाना खत्म हो चुका था और यही से शुरू होती है सबसे दर्दनाक कहानी। तीन लोगों ने भूख के मारे दम तोड़ दिया, अब सिर्फ 16 लोग ज़िंदा बचे थे।

अब खाना तो खाना पानी तक खत्म हो गया था। ऐसे में बाकी बचे 16 इंसानों ने जिंदा रहने के लिए वो फैसला लिया, जिसको सुननकर ही दुनिया के रौंगटे खड़े हो गये। वो फैसला था, आदमखोर बन जाने का फैसला। अपने साथियों का मांस खाने का फैसला। क्योंकि किस्मत ने मौत और जिंदगी के बीच सिर्फ आदमखोर बन जाने का ही रास्ता छोड़ा था और आखिरकार भूख ने 16 लोगों को नरभक्षी बन जाने पर मजबूर कर दिया।

इन 16 लोगों ने उन लाशों को खाने का फैसला किया जो प्लेन हादसे में मारे गए थे। कैरो सीलर की पहाड़ियों पर जिन मरे लोगों की लाशें खाईं गईं उनमें से कुछ तो कुछ के दोस्त और रिश्तेदार भी थे।

हर रोज एक नई लाश ज़िंदा बचे लोगों की भूख मिटा रही थी, मगर ये ज़्यादा दिनों तक चल नहीं सकता था, लिहाज़ा पराडो और केनेसा नाम के दो विमान यात्रियों ने मीलों फैले बर्फ के रेगिस्तान और ऊंची पहाडियों के पार जाने का फैसला किया और हादसे के पूरे 60 दिन बाद वो एक बेहद खतरनाक मिशन पर निकल पड़े।

21 दिसंबर 1972 को कई मील चलने के बाद उन्हें इंसानी बस्ती के निशान दिखने शुरू हुए, कई किलोमीटर और चलने के बाद पराडो और केनेसा आखिरकार अर्जेन्टीना की सीमा पर बसे एक गांव तक पहुंचने में कामयाब हो गए।

गांव वालों को उन्होने विमान हादसे और उसमें खुद के बच जाने की बात बताई, अगले चौबीस घंटे में ये खबर पूरी दुनिया तक पहुंच गई। खबर मिलते ही दुनिया में हंगामा मच गया, किसी को भरोसा नहीं हो रहा था कि आखिरकार एक वीरान बर्फीली पहाड़ी पर बगैर किसी मदद के 16 लोग पूरे 72 दिन तक कैसे ज़िंदा रह सकते हैं?

लेकिन ये सच था, पराडो और केनेसा को पत्रकारों के सवालों ने चारों तरफ से घेर लिया, इसका जवाब देना पराडो और केनेसा के लिए भारी पड़ रहा था। और फिलहाल वो झूठ बोलकर बच निकले। इधर, आनन फानन में आर्मी के हेलीकॉप्टरों के सहारे बाकी बचे मुसाफिरों को निकालने की कवायद शुरू हुई, पराडो और केनेसा को भी इन दोनों हेलीकॉप्टरों में रास्ता बताने के लिए ले जाया गया।

जब रेस्क्यू हेलीकाप्टर बाकी लोगों के पास पहुंचा तो बाकी बचे मुसाफिर खुशी से झूम उठे। आखिरकार सेना के हेलीकॉप्टरों के सहारे एक-एक करके सारे मुसाफिरों को सही-सलामत बाहर निकाल लिया गया। सफेद मौत के चंगुल से निकले इन बहादुरों के दिल में मौत से मुक्ति की खुशी थी तो इंसानी लाश को खाकर जिंदा रहने का गम भी, क्योंकि बाहरी दुनिया उनसे वो सवाल पूछनेवाली थी जिसका जवाब देना इन सभी मुसाफिरों के लिए बेहद मुश्किल होने वाला था।

मौत के पंजे से निकलकर आये 16 लोगों का 72 दिनों बाद हुआ दुनिया से सामना, लेकिन 16 लोगों में से किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि वो सच बोल दे, मगर ये लुकाछिपी ज्यादा देर नहीं चली और आखिरकार उन्हें बताना पड़ा कि वो 72 दिन तक बाकी इंसानों की लाश खाकर ज़िंदा रहे हैं।

आदमखोरियत के इस सच के सामने आते ही सारी दुनिया सन्न रह गई। इन 16 लोगों को लेकर सारी दुनिया में बहस चल रही थी, कोई इन्हे कोस रहा था तो कोई इनके बचाव में था। आखिरकार सरकार ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की जिसमें ये 16 लोग भी शामिल थे। तब जाकर मामला शांत पड़ा।

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