आज भी बर्फ के नीचे दबी है एक बड़ी तबाही की न्यूक्लियर डिवाइस, करोड़ों की ज़िंदगी लगी है दांव पर

GOPAL SHUKLA

26 Sep 2022 (अपडेटेड: Mar 6 2023 4:27 PM)

Shams ki Zubani: 57 साल पुराना वो एक मिशन जिसकी वजह से अमेरिका ने चीन पर नज़रें रखने के चक्कर में हिन्दुस्तान के करोड़ों लोगों की ज़िंदगी दांव पर लगा दी।

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Shams ki Zubani: ये क़िस्सा असल में एक जासूसी कहानी है। आमतौर पर जैसा हर मुल्क करता है कि अपनी हिफाजत और सीमाओं की सुरक्षा बनाए रखने के लिए पड़ोसी मुल्कों और खासकर उन मुल्कों की जासूसी करवाने की हर मुमकिन कोशिश करता ही रहता है जिनसे उसे ज़रा भी खतरा महसूस होता है। असल में इस जासूसी का मकसद सिर्फ इतना होता है कि वो खास देश उसके ख़िलाफ कोई साज़िश तो नहीं कर रहा है। और उस जासूसी को करने के लिए मुल्क अलग अलग तरीके से अलग अलग हथकंडों को अख्तियार करता है।

ऐसी ही एक जासूसी हुई थी आज से क़रीब 57 साल पहले। इस जासूसी कहानी पर कई किताबें लिखी जा चुकी हैं। लेकिन इस कहानी में एक ऐसा ख़तरा भी छुपा हुआ है कि इतने साल बीत जाने के बाद भी वो खतरनाक खतरा आज भी जस का तस बना हुआ है।

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ये कहानी एक ऐसी न्यूक्लियर डिवाइस के गुम हो जाने की है जिसकी अपनी उम्र करीब 88 साल है। लेकिन इस दौरान अगर ग़लती से ये डिवाइस किसी भी सूरत में ऐसी जगह पहुँच गया जहां से उसका विकिरण यानी रेडिएशन रिस कर बर्फ के पानी से होता हुआ किसी नदी में मिल गया तो यकीन जानिए लाखों बल्कि करोड़ों लोगों की ज़िंदगी खतरे में पड़ सकती है।

Shams ki Zubani: सवाल यही है कि वो न्यूक्लियर डिवाइस कहां है...क्या वो आज भी वहीं दबा हुआ है या फिर उसे वहां से निकाला जा चुका है, और उसका कहीं और इस्तेमाल हो चुका है। बस इसी राज़ का किस्सा ही आज की क्राइम की कहानी है।

असल में इस कहानी की शुरूआत होती है 1965 में। जब अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA ने भारत के पर्वतारोही मोहन सिंह कोहली से संपर्क किया था। ये उस वक़्त की बात है जब कैप्टन मोहन सिंह कोहली अपने ग्रुप के साथ एवरेस्ट को फतह करने की तैयारी में जुटे हुए थे। कैप्टन एमएस कोहली से नेशनल ज्योग्रॉफिक के फोटोग्राफर के तौर पर बैरी बिशप ने संपर्क किया था। और उन्होंने एम एस कोहली को एवरेस्ट पर चढाई करने की तैयारी करने से रोककर उन्हें भारत और सिक्किम की सीमा के पास कंचनजंगा पर्वत पर जाने को कहा था।

Shams ki Zubani: असल में बैरी बिशप भी पर्वतारोही थे और 1963 में एवरेस्ट फतह करने वाली अमेरिकी टीम का नेतृत्व उन्होंने ही किया था। और पर्वतारोही होने के नाते वो एमएस कोहली को अच्छी तरह जानते भी थे क्योंकि कैप्टन एमएस कोहली तब तक एवररेस्ट पर चढ़ाई करके अपना नाम दुनिया भर में शोहरत की बुलंदी तक पहुँचा भी चुके थे।

बैरी बिशप के संपर्क करने के बाद कैप्टन कोहली को कुछ अजीब लगा और उन्हें किसी साज़िश की महक महसूस हुई तो उन्होंने इस बारे में उस वक़्त के भारतीय खुफिया एजेंसी IB के प्रमुख भोला नाथ मलिक को चिट्ठी लिखकर अपनी आशंका जाहिर भी की थी। मगर एमएस कोहली नहीं जानते थे कि बैरी बिशप को उनके पास खुद मलिक ने ही भेजा था।

असल में अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA उस वक़्त इस बात को लेकर आशंकित था कि भारत का पडोसी चीन न्यूक्लियर परीक्षण करने के बाद परमाणु बमों को विकसित करने लगा था। चीन ने 1964 में लोप नूर इलाक़े में अपना पहला न्यूक्लियर परीक्षण किया था। और इस परीक्षण के बाद पूरी दुनिया और खासतौर पर अमेरिका की चिंता बढ़ गई थी।

ये वो दौर था जब सैटेलाइट यानी आकाशीय आंखों से किसी भी देश में झांकने की ताकत उस तरह से नहीं विकसित हुई थी जैसी आज के दौर में है। तब अमेरिकी खुफिया एजेंसी ने ऐसी जगह की तलाश शुरू की जहां वो एक ऐसी डिवाइस को लगा सकें जहां से चीन और उसकी तमाम हरकतों पर नज़र रखी जा सके। ऐसे में भारत की चोटी कंचनजंघा को इसके लिए सबसे मुफीद पाया गया क्योंकि ये भारतीय सीमा में होने के साथ साथ चीन की हद से भी ज़्यादा दूर नहीं थी।

Shams ki Zubani: चीन पर नज़र रखने के पीछे अमेरिका ने भारत की ज़मीन को ही क्यों चुना इसके पीछे सबसे बड़ी वजह ये थी कि अमेरिका नहीं चाहता था कि किसी ऐसे देश को इस मिशन में शामिल किया जाए जिसके चीन से रिश्ते अच्छे हैं तो उसका मिशन फेल हो सकता है। और उस दौर में यानी 1965 में भारत उसकी नज़र में इकलौता ऐसा देश था जिसके चीन के साथ रिश्ते अच्छे नहीं थे।

वजह ये थी कि दो साल पहले ही भारत और चीन युद्ध में भारत को करारी हार का सामना करना पड़ा था और भारत भी इस हार का बदला लेने की फिराक में था। लिहाजा अमेरिका ने भारत के इस जज्बात का फायदा अपने हक में उठाने का इरादा किया और भारत को अपने इस मिशन का हिस्सा बना लिया।

और इस मिशन के लिए पर्वतारोही कैप्टन मोहन सिंह कोहली को चुन लिया गया और उन्हें इस मिशन के बारे में बताया गया साथही उन्हें मिशन के पीछे के असली मकसद भी बता दिया गया। कैप्टन कोहली के हां करने के बाद टीम का चयन किया गया और उन्हें ट्रेनिंग के लिए बाकायदा अमेरिका ले जाया गया।

और जब पूरे मिशन की तैयारी अपने अंतिम दौर में थी तभी कैप्टन कोहली को पता चला कि जिस डिवाइस को कंचनजंघा की चोटी तक ले जाने की बात की जा रही है वो असल में काफी वजनी है। ऐसे में चोटी तक पहुँचना किसी भी सूरत में मुमकिन नहीं है क्योंकि कंचनजंघा की चढ़ाई के दौरान पर्वतारोहियों को बर्फीले तूफानों का सामना भी करना पड़ सकता है ऐसे में इतने वजनी सामान को ऊपर नहीं ले जाया जा सकता। लिहाजा कैप्टन कोहली ने तब अपने अफसरों को किसी दूसरी पर्वत चोटी का चुनाव करने का सुझाव दिया।

Shams ki Zubani: तब बड़े अध्ययन के बाद नंदादेवी पर्वत की चोटी को इस काम के लिए सही पाया गया। जहां तक पहुँचना कंचनजंघा के मुकाबले थोड़ा कम मुश्किल था। साथ ही जिस जगह चीन ने परमाणु परीक्षण किया था लोपनूर, वहां से नंदा देवी चोटी की दूरी महज 800 किलोमीटर के आस पास थी। लिहाजा तय पाया गया कि नंदा देवी की चोटी पर ही जासूसी उपकरणों को लगाया जाना है ताकि चीन पर नज़र रखी जा सके।

इस डिवाइस में यूं तो बहुत सी चीजें थीं लेकिन सबसे अहम चीज थी उस डिवाइस को एनर्जी देने यानी करंट पहुँचाने के लिए थर्मो न्यूक्लियर डिवाइस तैयार की जो असल में एक बैटरी थी जिससे जासूसी का वो पूरा सिस्टम चलना था।

इसका नाम था स्नैप 19 सी (SNAP-19 C) । इसी बैटरी में ईंधन के तौर पर प्लूटोनियम का इस्तेमाल किया गया था। जिसके पूरे आठ सेल थे। चूंकि प्लूटोनियम की हाफ लाइफ यानी उस प्लूटोनियम की काम करने की मियाद करीब 75 से 87 साल थी। यानी प्लूटोनियम से तैयार बैटरी ही उस डिवाइस के लिए ऊर्जा सप्लाई का काम करने वाली थी।

यानी इस पूरे सिस्टम और उसकी बैटरी को ले जाकर नंदा देवी तक पहुँचाने का टास्क कैप्टन कोहली और उनकी टीम को जिम्मे कर दी गई। अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने जब इस पूरे प्लान को सुना और ये भी सुना कि इस मिशन के लिए कैप्टन कोहली को ही दल का मुखिया बनाया जाएगा तो लिंडन जॉनसन ने इसका कोई विरोध नहीं किया।

इस मिशन के लिए अलग अलग टीमें थीं जिनकी जिम्मेदारी बटी हुई थी। एक टीम वो थी जिसका काम था कि जासूसी के उपकरणों को उठाकर चोटी तक पहुँचाना और दूसरी टीम वो थी जो बाद में जाकर उस सिस्टम को वहां तैनात करेगी। दोनों ही टीमों में अमेरिकी पर्वतारोही भी शामिल थे।

Shams ki Zubani: पहली टीम की अगुवाई कैप्टन कोहली कर रहे थे। कैप्टन कोहली ने अपनी टीम में कुछ शेरपाओं को भी शामिल किया क्योंकि शेरपा की बदौलत ही सामान को ढोकर चोटी तक पहुँचाया जाता है। 24 सितंबर को पूरी टीम नंदा देवी के लिए रवाना हो जाती है। 25 दिन लगातार चढ़ाई करने के दौरान अचानक 18 अक्टूबर को पूरा दल बर्फीले तूफान में घिर जाता है।

बर्फीले तूफान की वजह से कैप्टन कोहली अपने साथियों को मुसीबत में नहीं फंसे रहने देनाचाहते थे लिहाजा उन्होंने अपने अफसरों के साथ संपर्क  करने के बाद मिशन को वहीं अबॉर्ट करने का इरादा किया और उस भारी भरकम सामान को वहीं उसी कैंप में छोड़कर वापस लौटने का फैसला किया।

तब कैप्टन कोहली ने अपने अफसरोंसे हरी झंडी मिलने के बाद वहीं कैंप 4 के पास चट्टानों में दरारों की तलाश की और सारा सामान और डिवाइस वगैराह को वहीं चट्टानों की दरारों में ही हिफाजत से रखकर वापस लौटना शुरू कर दिया। और अक्टूबर के आखिर तक पूरा दल वापस नीचे लौट आया।

Shams ki Zubani: अगली साल यानी मई 1966  को एक बार फिर इस दल ने नंदादेवी की चढ़ाई करने का इरादा किया। और साफ मौसम का फायदा उठाकर पूरी टीम वक़्त से काफी पहले उस जगह पर फिर से पहुँच जाते हैं जहां उन लोगों ने अपनी न्यूक्लियर डिवाइस को छुपाकर रखा था।

मगर वहां पहुँचकर जब वहां का मंजर देखा तो पूरी टीम के होश फाख्ता हो गए क्योंकि वो पूरा इलाका ही बदल चुका था और सब कुछ उजड़ चुका था। सारा सामान ग़ायब था, न्यूक्लियर डिवाइस के साथ साथ वो बैटरी सब कुछ लापता हो चुके थे। वहां टीम को कुछभी नहीं मिला।

इस खबर को पहाड़ की चोटी से उतरकर दिल्ली और फिर वाशिंगटन पहुँचने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगा। तुरंत अमेरिकी प्रशासन हरकत में आया। सीआईए को इस बात की गंभीरता का अंदाजा था कि पहाड़ की चोटी से जो कुछ ग़ायब हुआ है वो असल में कितना नुकसानदेय है।

पहली बार ये बात सामने आई कि अगर जो डिवाइस और उसकी बैटरी बर्फीले तूफान की चपेट में आकर वहां से गायब हो गई है और किसी भी तरह से अगर ये बहती हुई नदी में मिल गया तो तबाही आ जाएगी। क्योंकि वो प्लूटोनियम 235 असल में बहुत भयानक न्यूक्लियर एक्टिव पदार्थ है। और उसका विकिरण यानी रेडिएशन बेहद खतरनाक।

Shams ki Zubani: ऐसे में जो भी उसकी चपेट में आएगा उसकी जान को खतरा पैदा हो जाएगा। ऐसे में अगर वो नदी में मिल गया तो नदियों के इर्द गिर्द रहने वाले लोगों की जिंदगी को खतरा हो सकता है। और चूंकि जिस जगह से ये बैटरी वहां से ग़ायब हुई है उसी पर्वतचोटी के नीचे से गंगा नदी बहती है ज़ाहिर है कि गंगा में उसका शामिल होने के मतलब है कि करोड़ों लोगों की ज़िंदगी को खतरा पैदा हो सकता है। जाहिर है इस खबर के सामने आने के बाद भारत अब किसी न्यूक्लियर हादसे के मुहाने पर जाकर खड़ा हो गया था।

तब ये तय पाया गया कि किसी भी सूरत में उस डिवाइस को दोबारा ढूंढना जरूरी है। ऐसे में उस डिवाइस की तलाश के लिए कई टीमें तैयार की गईं। इसी बीच सीआईए ने अलग से एक मिशन बनाया और दूसरी डिवाइस ले जाकर उस चोटी पर चीन पर नज़र रखने के लिए फिट कर दी गई। ताकि उनका एक मकसद पूरा हो सके।

इसके बाद कई कोशिश की गई लेकिन 57 साल बाद भी वो लापता डिवाइस कभी किसी मिशन को नहीं मिल सकी। ऐसे में सवाल यही है कि क्या आज भी वो डिवाइस नंदा देवी की पहाड़ी की किसी दरार में पड़ी सांस ले रही है या फिर वो सरक कर दरारों से गुज़रते हुए किसी ग्लेशियर में तो शामिल नहीं हो गया।

Shams ki Zubani: हालांकि इस डिवाइस को लेकर दो कहावतें चलन में है। एक तो यही कि वो न्यूक्लियर डिवाइस अब भी नंदा देवी की बर्फीली चोटियों में कहीं दफ्न हैं । लेकिन दूसरी थ्योरी ज़्यादा दिलचस्प मालूम पड़ती है। दूसरी थ्योरी के मुताबिक कि उस डिवाइस  के पहाड़ों की चोटी में गुम होने के बाद जब अमेरिकी टीम यहां से वापस लौट गई तो भारत की तरफ से इसका पता लगाने की कोशिश की गई। उस समय इंदिरा गांधी का शासन था।

और थ्योरी कहती है कि उस मिशन में भारत कामयाब भी हो गया था और वो तमाम बैटरी वहां से ढूंढ़ निकाली गई थी। लेकिन उसके बाद इंदिरा गांधी ने उसी प्लूटोनियम का इस्तेमाल 1974 में किए गए न्यूक्लियर विस्फोट में कर लिया था। हालांकि इस थ्योरी को साबित करने के कोई भी पुख्ता प्रमाण नहीं हैं...लिहाजा इसे बस अफवाह के तौर पर ही देखा जा सकता है।

मगर एक बात तो तय है कि इस की वजह से आज भी जानकारों की नज़र नंदा देवी की उन चोटियों पर लगी हुई है जिसकी तलहटी में कहीं न कहीं तबाही सांस ले रही है।

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