1857 के इस क्रांतिकारी को अंग्रेजों ने तोप से उड़ाया, सिर से चमड़ी हटाई फिर खोपड़ी ले गए ब्रिटेन, 165 साल बाद भी इंसाफ का इंतजार

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Ajnala Massacre 1857 Revolt Story in Hindi : एक मौत मरकर भी आज ज़िंदा है. जिंदा इसलिए ताकी उसे मौत नसीब हो सके. उस मौत की बदनसीबी ही है कि वो 165 साल से गुमनाम जिंदगी जी रही है. पर ऐसा नहीं कि वो गुमनामी से कभी बाहर नहीं आया. बाकायदा मौत का एक-एक सच सामने आया. लंबी-चौड़ी रिसर्च के साथ किताब लिखी गई. पूरी दुनिया में इस मौत की चर्चा हुई. पर आज भी वो मौत अपने आखिरी पड़ाव के इंतजार में है.

इस सच्चे देशभक्त को आज भी इंग्लैंड से अपने वतन लौटने की उम्मीद है. आरजू उस मिट्टी में आखिरी बार मिल जाने की है जिस मिट्टी में जन्म लिया. पर अफसोस कि जिस मिट्टी को बचाने के लिए उन्होंने शहादत दी. उसे बदनसीबी इस कदर आई कि 165 साल से वो अपनी मिट्टी में मिल जाने के लिए भटक रहा है. आज क्राइम की कहानी (Crime Story in Hindi) में 1857 क्रांति के दौरान अजनाला नरसंहार (Ajnala Massacre) से जुड़ी आलम बेग की कहानी.

Alum Bheg 1857 Kahani : आलम बेग. या कहिए अलीम बेग. ये नाम सिर्फ गूगल पर ही सर्च करने पर आपको मिलेगा. पर इतिहास के पन्नों में ये नाम नहीं है. 1857 की क्रांति को अब 165 साल हो चुके हैं. पर अलीम बेग की खोपड़ी आज भी जिंदा है. इन पर एक अंग्रेज इतिहासकार डॉ. किम वैगनर ने किताब भी लिखी है.

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किताब का नाम The Skull of Alum Bheg: The Life and Death of a Rebel of 1857. इस किताब में वो पूरी कहानी बताते हैं कि आखिर आलम बेग के साथ क्या हुआ और कैसे उनकी इंसानी खोपड़ी उनकी मौत के बाद भी अपनों की तलाश में भटक रही है. एक मीडिया इंटरव्यू में डॉ. किम वैगनर ने खुद कहा था कि मेरी किताब आलम बेग को वो सम्मान देने का प्रयास करती है जिसके वो असली हक़दार थे. पर उन्हें नहीं दिया गया. वो कहते हैं कि...

'मुझे उम्मीद है कि मेरी कोशिशों से इतने साल बाद ही सही, पर कभी ना कभी तो आलम बेग की आत्मा को शांति तो मिलेगी'.

आलम बेग वो नाम है जिसके नाम से कभी अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिल गईं थीं. ये नाम अंग्रेजों के खिलाफ 1857 का विद्रोह करने वालों में से एक है. ये उसी तरह के जांबाज सैनिक थे जैसे मंगल पांडे. आलम बेग भी मंगल पांडे की तरह ही 1857 में सैनिक विद्रोह किया था. कई अंग्रेज अफसरों को मार डाला था. उन अंग्रेजों के दिलोदिमाग में खौफ पैदा किया था.

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ना सिर्फ खौफ बल्कि 1857 की क्रांति के समय वो 500 सैनिकों की टुकड़ी का खुद ही नेतृत्व किया. और फिर अंग्रेजों का खात्मा करने निकल पड़े थे. पर कुछ सैनिकों ने मुखबिरी कर दी. और फिर इन सैनिकों को अंग्रेज अफसरों ने घेर लिया और रावी नदी के किनारे ही 218 सैनिकों की हत्या कर डाली.

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बचे हुए 282 सैनिकों को गिरफ्तार कर पंजाब के अमृतसर के पास अजनाला में ले आए. जहां इन सैनिकों को मारकर एक कुएं में दफना दिया गया. जिसे अजनाला नरसंहार का नाम दिया. ये नरसंहार भी कहीं इतिहास में दर्ज नहीं हुआ. इसका पूरा सच अभी हाल में ही सामने आया.

इन 500 सैनिकों का नेतृत्व करने वाले आलम बेग किसी तरह यहां से बचकर उत्तर प्रदेश में आ गए थे. लेकिन अंग्रेज लगातार इनकी तलाश में थे. आखिरकार यूपी के कानपुर से 1858 में अंग्रेजों ने इन्हें गिरफ्तार कर लिया. फिर उसके बाद जो हुआ वो इतिहास में सबसे क्रूर हत्याओं में शामिल हो गया. लेकिन वो कभी इतिहास के पन्नों पर छप नहीं पाया. आखिर के ये आलम बेग उर्फ अलीम बेग कौन थे? ऐसा क्या किया था जो इतिहास बनकर भी भारत के इतिहास में नहीं आ सका?

अब पूरी कहानी की शुरुआत एक अंग्रेज इतिहासकार से. इत्तेफाक से करीब-करीब ये वक्त वही था जब पंजाब के अजनाला में 1857 के 282 क्रांतिकारियों के कालियांवाला कुएं (Kaliyanawala Well Story in Hindi) में दफनाए जाने की चर्चा हो रही थी.

ये साल था 2014 का. उसी समय के आसपास ब्रिटेन के एक इतिहासकार डॉ. किम वैगनर अपने दफ्तर में बैठे हुए थे. उसी समय इन्हें एक ईमेल मिला. उस ईमेल को एक शादीशुदा दंपति ने भेजा था. जिसमें लिखा था कि हमलोगों को पता है कि आप लंदन की क्वीन मैरी यूनिवर्सिटी में हिस्ट्री प्रोफेसर हैं.

आपने इंडिया के 1857 से जुड़े क्रांति पर किताब भी लिखी है. अब आपको ईमेल इसलिए भेज रहे हैं कि क्योंकि हमारे पास एक खोपड़ी है. उस खोपड़ी का ताल्लुक किसी ना किसी रूप से इंडिया के 1857 से है. पर इसमें क्या और कितना सच है. इसे लेकर हम उलझन में हैं. आखिर इस खोपड़ी का करें तो क्या करें. इस खोपड़ी का नीचे का जबड़ा ग़ायब है. जो कुछ दांत थे वो भी अब उखड़ रहे हैं. खोपड़ी का रंग भी पीला पड़ने लगा है.

Ajnala Skull 1857 Story : इस खोपड़ी की आंख के सॉकेट में एक कागज का टुकड़ा मिला है. जिस पर लिखा था कि ये इंडिया के बंगाल नेटिव की 46वीं रेजिमेंट के हवलदार आलम बेग की खोपड़ी है. इस आलम बेग को तोप के मुंह से बांध कर उड़ा दिया गया था. ठीक वैसे ही जैसे आलम बेग की रेजीमेंट के दूसरे साथियों के साथ किया गया था. उस लेटर में ये भी लिखा है कि 1857 की बगावत के ये मुख्य लीडर थे.

उस विद्रोह के दौरान जिस किले में यूरोपीय (यानी अंग्रेज) खुद को सुरक्षित रखने के लिए जा रहे थे उसी रास्ते को आलम बेग और उसके सहयोगी सैनिकों ने अपने कब्जे में ले लिया था. इनके विद्रोह से बचने के लिए ही अंग्रेज अफसर डॉ. ग्राहम को उनकी बग्घी में उन्हीं की बेटी के सामने ही गोली मार दी गई थी.

ये गोली मारने कोई और नहीं बल्कि खुद आलम बेग ही थे. इसके बाद उसका अगला शिकार एक मिशनरी रेवरेंड मिस्टर हंटर बने. रेवरेंड हंटर भी अपनी पत्नी के साथ उसी सुरक्षित स्थान पर जा रहे थे. तभी आलम बेग ने हंटर और उनकी पत्नी को भी मार डाला था. इसके बाद इनकी बेटियों को भी मार डाला गया था.

इस लेटर में ये भी लिखा था कि आलम बेग की उम्र करीब 32 साल थी. उनकी लंबाई पांच फुट साढ़े सात इंच थी. वो शरीर से काफी हट्टे-कट्टे थे. इस खोपड़ी को 7वीं ड्रैग गार्ड्स का कैप्टन ए.आर. कोस्टेलो इंडिया से इंग्लैंड लाया था. जब कोस्टेलो वहां मौजूद था तभी आलम बेग को तोप से उड़ाया गया था.

अब इस कागज के नोट से ये पता चला कि अंग्रेज सैनिक कैप्टन कोस्टेलो ही उसकी खोपड़ी को इंग्लैंड लेकर आया था. ये ईमेल पढ़ने के बाद इतिहासकार डॉ. वैगनर उसे भेजने वाले से मुलाकात करते हैं और उस खोपड़ी को अपने पास रखकर पूरी तफ्तीश शुरू करते हैं.

दंपति ने बातचीत के दौरान डॉ. वैगनर को बताया कि हमने इंटरनेट पर आलम बेग के नाम को बहुत सर्च किया. लेकिन कहीं कोई जानकारी नहीं मिली तभी आपके बारे में जानकारी हुई थी. इसलिए आपसे संपर्क किया.

उस दंपति ने डॉ. किम वैगनर को खोपड़ी मिलने की भी पूरी कहानी बताई. ये बताया कि हमारे एक रिलेटिव ने ब्रिटेन के केंट शहर में द लॉर्ड क्लाइड नाम के पब को 1963 में खरीद लिया था. ये खोपड़ी उसी पब के एक कमरे में बंद मिली थी. लेकिन ये पता नहीं चला कि आखिर ये खोपड़ी पब में कैसे आई थी.

फिर पब के असली मालिक की मौत के बाद उसे हम और दूसरे रिश्तेदारों के हिस्से में बंटवारा हो गया था. जिसके बाद खोपड़ी हमारे हिस्से में आई. काफी समय तक पब में इस खोपड़ी को नुमाइश की तरह सजा दिया गया था. जिसके साथ लोग फोटो खिंचवाते थे. इस खोपड़ी को लोग किसी ट्रॉफी की तरह समझकर उसके साथ सेल्फी भी लेते थे.

अब ये पूरी जानकारी होने पर इतिहासकार डॉ. वैगनर लंदन के नेचुरल हिस्ट्री म्यूज़ियम के एक अधिकारी से खोपड़ी की तहकीकात कराते हैं. ये पता लगवाते हैं कि इस खोपड़ी के साथ जो कागज का टुकड़ा मिला उसमें कितनी सच्चाई हो सकती है. फिर काफी हद तक ये सही साबित होता है कि लेटर में लिखी बात सच है. असल में बताया जाता है कि जिसकी ये खोपड़ी है कि वो 19वीं सदी के बीच से जुड़ी है. ये किसी एशियाई मूल के पुरुष की खोपड़ी है.

अब इसके बाद जब डॉ. वैगनर को ये यकीन हो गया कि खोपड़ी इंडिया के 1857 क्रांति से जुड़ी है फिर वो उसे गंभीरता से लेते हुए आगे बढ़ने लगे. उस आलम बेग की पूरी कहानी और घटना को समझने के लिए रिसर्च करने लगे. पर उन्हें शुरुआत में भारत हो या ब्रिटेन, कहीं भी आलम बेग के बारे में कोई जानकारी नहीं मिली. किसी वारिस का भी नहीं पता चलता है. इसीलिए किसी ने कभी खोपड़ी लौटाने की बात भी नहीं कही.

पर धीरे-धीरे कई जरूरी जानकारी डॉ. वैगनर को मिलीं. इसी रिसर्च में ब्रिटेन से छपने वाले एक अखबार 'द स्फेयर' की साल 1911 में छपी एक खबर मिली. जिसमें लंदन के व्हाइट हॉल में लगी प्रदर्शनी में इस खोपड़ी को दिखाए जाने का जिक्र था. उस खबर में लिखा था कि इंडिया में 1857 में हुई क्रांति की याद दिलाने वाला ये एक स्मृति चिन्ह है. ये एक सिपाही की खोपड़ी है, जिसका ताल्लुक 49वीं बंगाल रेजीमेंट से है. इस सैनिक को 1858 में 18 दूसरे लोगों के साथ ही तोप से उड़ा दिया गया था.

अब इस जानकारी से कहानी काफी साफ हुई. इसलिए डॉ. वैगनर ने अब उन लोगों का पता लगाया जो आलम बाग के हाथों मारे गए थे. इसी पड़ताल में उन्हें एक अमेरीकी मिशनरी एंड्र्यू गॉर्डन का लेटर मिल गया.

ये गार्डन 1857 की क्रांति के दौरान भारत के सियालकोट में ही रहता था. ये सियालकोट अब पाकिस्तान में आता है. ये गार्डन उस डॉक्टर ग्राहम और हंटर दंपति को जानता था जिनकी हत्या आलम बेग ने की थी. जब आलम बेग को तोप से बांधकर उड़ाया गया था तभी भी एंड्रयू गॉर्डन वहीं मौजूद था.

1857 Special Story : अब पूरी पड़ताल के बाद इतिहासकार डॉ. किम वैगनर ने आलम बेग को इंसाफ और पहचान दिलाने का फैसला लिया. इसलिए एक किताब लिखी. ये किताब साल 2018 में सामने आई. उस किताब में लिखा कि आलम बेग वहीं हैं जिन्होंने अजनाला में मारे गये भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व किया था.

इन सैनिकों को जब रावी नदी के किनारे ही पकड़ा गया था तब वो किसी तरह से बच निकले थे. वो अपनी टुकड़ी के हवलदार थे. आलम बेग 46वीं रेजीमेंट बंगाल नॉर्थ इंफ्रेंट्री बटालियन के लीडर थे. पर जब आलम बेग ने अंग्रेजी अफसरों की हत्या के बाद रावी नदी से होते हुए पूर्वी पाकिस्तान की तरफ जा रहे थे तभी सूचना मिल गई थी.

यहां से आलम बेग किसी तरह बचकर कानपुर की तरफ चले गए थे. जहां से एक साल बाद उन्हें गिरफ्तार किया गया था. उस समय के अमृतसर के ब्रिटिश कमिश्नर फ्रेडरिक हेनरी कूपर को पता चला कि रानी विक्टोरिया आ रही हैं तब बागी बने और फरार हुए आलम बेग का सिर भेंट करने की योजना बनाई.

कहा जाता है कि सियालकोट में आलम बेग को तोप से उड़ा दिया गया. मौत के बाद उनकी खोपड़ी को गरम पानी में डालकर उस पर से पहले चमड़ी उतारी गई. फिर आलम बेग की खोपड़ी को साफ कर उसे ग्रिसली ट्रॉफी का नाम दिया गया. इस खोपड़ी को 1858 में ही इंग्लैंड लाया गया था.

डॉ. किम वैगनर ने अपनी किताब में ये भी लिखा है कि आलम बेग का सही नाम अलीम बेग था. वो उत्तर भारत के एक सुन्नी मुसलमान थे. इनका ताल्लुक यूपी के कानपुर के आसपास से ही हो सकता है. क्योंकि बंगाल रेजीमेंट के लिए जब कानपुर में भर्ती हुई थी तभी ये भी शामिल हुए थे.

खोपड़ी से मिले लेटर में जिस कैप्टन कोस्टेलो का जिक्र है उसके बारे में माना जाता है कि तोप से आलम बेग को उड़ाते समय वो भी वहीं मौजूद था. डॉक्टर वैगनर मानते हैं कि कोस्टेलो ही खोपड़ी लेकर ब्रिटेन आया था. आयरलैंड में पैदा हुआ कोस्टलो साल 1857 में ही भारत आया था. यहां से एक साल बाद ही अक्टूबर 1858 में वो ब्रिटेन लौटा था.

अपनी इस किताब और आलम बेग पर इतना रिसर्च करने को लेकर BBC को दिए एक इंटरव्यू में डॉ. वैगनर ने बताया था कि... 'मेरे रिसर्च का मक़सद है कि किसी भी तरह आलम बेग की खोपड़ी को उनके हमवतन लौटाया जाए'.

इसके लिए उन्होंने भारत के कई सस्थानों से भी संपर्क किया. पर अभी तक ये जानकारी नहीं मिल पाई है कि आलम बेग की खोपड़ी भारत ले आई गई या नहीं. डॉक्टर वैगनर कहते हैं कि अगर कोई उनके परिवार का नहीं मिलता है तो आलम बेग को रावी नदी में दफनाया जाए जो भारत-पाकिस्तान के बीच है.

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