जानिए क्या है जमानत? कब और किसे मिलती है बेल; जेल और बेल से जुड़े सभी क़ानून को समझें

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जानिए क्या है जमानत? कब और किसे मिलती है बेल; जेल और बेल से जुड़े सभी क़ानून को समझें
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जुर्म की दुनिया में सजा भी मिलती है और जमानत भी. लेकिन जमानत मिलने के कुछ कायदे और कानून हैं. जिसकी बारीकी के बारे में आमतौर पर हम नहीं जानते. ऐसे में किस तरह के अपराध में आसानी से जमानत मिल जाते हैं और किन मामलों में जमानत मिलना काफी पेंचिदा होता है.

ये जानना बेहद जरूरी है. ऐसा इसलिए की कई बार हम ऐसे अपराध में भी फंस जाते हैं जिनसे हमारा कोई सरोकार नहीं होता है. ऐसे में बेल यानी जमानत पाने के तौर-तरीकों के बारे में आसान भाषा में जानना और समझना जरूरी है. इसीलिए CRIME TAK ने नॉलेज नाम से स्पेशल सीरीज शुरू की है. इस सेक्शन में हम ये जानेंगे कि आखिर क्या है जमानत (What is Bail). जमानत कैसे मिलती है.

जमानत का मतलब : जब कोई इंसान किसी अपराध के कारण जेल जाता है तो उस शख्स को जेल से छुड़वाने के लिए कोर्ट या मैजिस्ट्रेट से जो आदेश मिलता है, उस आदेश को जमानत या फिर बेल कहते हैं.

Cognizable Offence और Non Cognizable Offence क्या होता है?

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अक्सर आप संज्ञेय अपराध (Cognizable Offence) और गैरसंज्ञेय अपराध (Non Cognizable Offence) के बारे में सुनते होंगे, पहले यह जान लीजिए कि देश में कानून की 2 संहिताएं (Codes) बनी हैं.

IPC यानी इंडियन पीनल कोड (Indian Penal Code) IPC की धाराएं क्राइम और उसकी सजा के बारे में बताता है

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CrPC 1973 की धारा 2-C के मुताबिक Cognizable अपराध वह है, जिसमें पुलिस को बिना वारंट के आरोपी को गिरफ्तार करने का अधिकारी है, जैसे की हत्या, बलात्कार, अपहरण, दहेज हत्या, दंगा वगैरह इसी में आते हैं.

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वहीं, CrPC 1973 की धारा 2-L के मुकाबिक, असंज्ञेय अपराध (Non Cognizable Offence) में बिना वारंट पुलिस आरोपी को गिरफ्तार नहीं कर सकती. फ्रॉड, धोखाधडी, मानहानि वगैरह इसमें आते हैं. अपराध की पूरी सूची के लिए आपको Crpc का शेड्यूल देखना पड़ेगा. खैर अब आगे बढ़ते हैं.

बेल का मतलब क्या है, ये कितने तरह की होती है?

बेल का मतलब है किसी तय समय-सीमा के लिए आरोपी को जेल से राहत यानी आजादी. यह कुछ शर्तों पर मिली आजादी है, केस में उसकी जरुरत पड़ने पर उसे हाजिर होना होगा. बेल का यह मतलब नहीं कि उसे आरोपमुक्त या केस से बाइज्जत बरी कर दिया गया. कानून में कई तरह की बेल का प्रावधान है.

1. साधारण जमानत (Regular Bail): अगर किसी क्राइम में आरोपी को गिरफ्तार कर लिया जाता है तो वह साधारण बेल के लिए आवेदन करता है. CrPC की 437 और 439 के तहत रेगुलर बेल दी जाती है.

2. अग्रिम जमानत (Anticipatory Bail): स्पष्ट है कि यह एडवांस बेल है. यानी गिरफ्तारी से पहले आप जेल जाने से बच सकते हैं. आपने फिल्मों देखा होगा कि पुलिस किसी आरोपी को गिरफ्तार करने पहुंचती है और वह एक कागज थमा कर पुलिस को लौटा देता है.

जब व्यक्ति को किसी क्राइम के आरोप में गिरफ्तारी की आशंका हो तो वह सीआरपीसी की धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत के लिए कोर्ट में आवेदन करता है. बेल मिलने के बाद वह गिरफ्तारी से बच जाता है.

3. अंतरिम जमानत (Interim Bail): रेगुलर बेल या एंटिसिपेटरी बेल पर सुनवाई होने में जब कुछ दिन शेष हो तो यह अंतरिम बेल दी जाती है. बहुत कम समय के लिए यह बेल दी जाती है.

1. थाने से मिलने वाली बेल: जमानती धाराओं में दर्ज मामलों, जैसे- मारपीट, धमकी, गाली-गलौज, दुर्व्‍यवहार जैसे मामूूली अपराध में गिरफ्तारी हो भी जाए तो थाने से ही जमानत मिल जाती है.

Bombay High Court में प्रैक्टिस कर रहे सीनियर एडवोकेट (पी.टी. सिंह) ने बताया कि ऐसे मामलों में बेल बॉन्ड भरने और किसी व्यक्ति को गारंटर प्रस्तुत करने के लिए कहा जात सकता है. इतना करने पर थाने से ही जमानत दे दी जाती है. जमानत मिलने के बाद उस व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के सामने भी जमानत लेनी पड़ती है.

किस आधार पर मिलती है बेल(Bail) ?

किसी भी आरोपी को बेल देने का आधार है, अपराध साबित होने तक उसे निर्दोष माना जाए. इसी आधार पर उस शख्स के लिए आरोपी शब्द का इस्तेमाल होता है न कि अपराधी शब्द का. उस पर लगाए गए आरोप सिद्ध होने तक अगर वह जेल में होता है तो उसे सजायाफ्ता की बजाय विचाराधीन कहा जाता है. कानून की द्दष्टि से ये कुछ तकनीकी शब्दावलियां है.

एक और आधार के बारे में बात करते हैं. वर्ष 1977 में राजस्थान बनाम बालचंद मामले में सुप्रीम कोर्ट में तत्कालीन जस्टिस वी कृष्ण अय्यर ने संविधान के मूल अधिकारों के बेसिस पर एक नजीर तय की- “Bail is a rule, jail is an exception”. यानी जमानत एक नियम है जबकि जेल भेजना अपवाद. हालांकि ऊपर बताया जा चुका है कि बेल का मतलब पूरी तरह आजादी नहीं है.

किन कारणों से नहीं मिलती बेल?

1. गैर-जमानती अपराध में मामला कम से कम मजिस्ट्रेट के पास तो जाएगा ही. अगर उन्हें लगेगा कि मामला गंभीर है और बड़ी सजा हो सकती है तो वे बेल नहीं देते.

2. फांसी या उम्रकैद से कम सजा की संभावना पर मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट की अदालत केस की स्थिति के हिसाब से बेल दे सकती है. अपवाद की स्थिति अलग होगी.

3. वहीं सेशन कोर्ट किसी भी मामले में बेल पिटिशन स्वीकार कर सकता है. सेशन कोर्ट गंभीर मामलों में भी बेल दे सकता है, लेकिन काफी कुछ केस के मेरिट पर निर्भर होगा.

4. चार्जशीट दाखिल होने के बाद केस की मेरिट पर ही बेल तय होगी. चार्जशीट का मतलब है कि पुलिस ने पर्याप्त पूछताछ कर ली है और अपनी तरफ से जांच पूरी कर दी है.

5. ट्रायल के दौरान अहम गवाहों ने आरोपी के खिलाफ बयान दिए हों तो भी आरोपी को बेल नहीं मिलेगी.

6. मामला गंभीर हो और गवाहों को डराने या केस के प्रभावित होने का अंदेशा हो तो चार्ज फ्रेम होने के बाद भी जमानत नहीं मिलती.

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