1400 साल पहले जब आतंकवाद का शिकार हुए पैगंबर मुहम्मद साहब के नवासे!
what is Muharram who is Hussain
ADVERTISEMENT
मोहर्रम (Muharram), इस्लामिक कैलंडर का पहला महीना लेकिन इसके शुरु होने पर खुशी नहीं मनाई जाती बल्कि मनाया जाता है ग़म। ग़म इसलिए क्योंकि आज से 1400 साल पहले इराक के कर्बला में पैगंबर हज़रत मुहम्मद साहब (Prophet Muhammad) के नवासे इमाम हुसैन (Imam Hussain) और उनके कुनबे के दूसरे 71 साथियों का बड़ी बेरहमी से क़त्ल कर दिया गया था, उन्हें मारने वाले कोई और नहीं बल्कि उसी इस्लाम के थे जिसके पैग़बर हज़रत मुहम्मद साहब थे।
हर साल मुहर्रम आते ही उस ज़ुल्म को यादकर इमाम हुसैन के मानने वाले उनका ग़म मनाते हैं। मुहर्रम के शुरुआती 10 दिनों में कर्बला (Karbala) के वाक्ये को याद किया जाता है, इमाम हुसैन के मकबरे की शक्ल में ताज़िए निकाले जाते हैं। उनके मानने वाले उनकी याद में रोते हैं और मातम करते हैं।
कर्बला में क्यों किया गया इमाम हुसैन का क़त्ल?
ADVERTISEMENT
मगर सवाल ये है कि आखिर पैगम्बर मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन को कर्बला में क़त्ल क्यों किया गया? क्यों खुद को मुसलमान कहने वाले लोगों ने उनके भरे घर को उजाड़ दिया? इसे जानना ज़रूरी है। मगर इसे जानने के लिए करीब 1400 साल पहले जाना होगा, जब मुहर्रम महीने की 10 तारीख यानी आशूरे के दिन इराक के कर्बला में इमाम हुसैन को उनके 71 साथियों का बड़ी बेरहमी से क़त्ल कर दिया गया था।
हुआ दरअसल ये कि जब पैगंबर मोहम्मद साहब इस दुनिया से रुख़सत हुए तो उनके जाने के बाद इस्लाम में खिलाफ़त का दौर आया। यानी खलीफा का राज था, ऐसा कहा जाता है कि उस दौर में खलीफा पूरी दुनिया के मुसलमानों का प्रमुख नेता होता था। पैगंबर मोहम्मद साहब के गुज़र जाने के बाद लोग आपस में तय करते थे कि उनका खलीफा कौन होगा।
ADVERTISEMENT
मगर कुछ लोग तलवार के दम पर इस ओहदे को हासिल करना चाहते थे, उन्हीं में से एक था सीरियाई सुल्तान यज़ीद इब्ने माविया। जिसने खुद ही खुद को मुसलमानों का खलीफा घोषित कर दिया और लोगों पर इस्लाम के नाम पर ज़ुल्म ढहाने लगा, और जब इमाम हुसैन ने इसका विरोध किया। तो यज़ीद ने फरमान जारी करके पैगंबर मोहम्मद साहब के नवासे पर समर्थन और रज़ामंदी का दबाव बनाया, और कहा कि अगर हुसैन राज़ी न हुए तो उनका सिर क़लम कर दिया जाएगा।
ADVERTISEMENT
यज़ीद इब्ने माविया के इस फरमान के आगे झुकने के बजाए इमाम हुसैन कहा,
मैं एक पापी, बेईमान और खुदा-रसूल को ना मानने वाले यज़ीद इब्ने माविया का आदेश नहीं मान सकता।
- इमाम हुसैन, शिया मुसलमानों के इमाम और पैगंबर मोहम्मद साहब के नवासे
इसके बाद सऊदी अरब में अपने वतन मदीना को छोड़कर इमाम हुसैन हज के लिए मक्का चले गए, मगर यहां भी यज़ीद ने अपने सैनिकों को श्रद्धालु बनाकर उनका क़त्ल करने के लिए भेज दिया। चूंकि मक्का में खून खराबा हराम है, लिहाज़ा जैसे ही इस बात का पता इमाम हुसैन को चला तो उन्होंने अपने परिवार और करीबियों के साथ मक्का छोड़ दिया। मगर कुछ दिनों बाद जब इमाम हुसैन का काफिला इराक पहुंचा तो यज़ीद की फौज ने उन्हें कर्बला में घेर लिया।
सन् 680 ईसवीं में हुआ सबसे बड़ा आतंकवाद!
उर्दू कैलेंडर के पहले महीने मोहर्रम की 2 तारीख को इमाम हुसैन कर्बला में थे और यहां मौत से घिरे होने के बावजूद उन्होंने यज़ीद और उसकी सेना को इस्लाम के सही मायने समझाने की बहुत कोशिश की। मगर वो ताकत और दौलत के नशे में इस कदर चूर था कि नहीं माना और उसने इमाम हुसैन को अल्टीमेटम दिया कि या तो वो यज़ीद की खिलाफत का समर्थन करें, या फिर जंग।
शहीद होने तक मोहब्बत का पैग़ाम देते रहे हुसैन
इमाम हुसैन जंग नहीं करना चाहते थे क्योंकि उन्हें अपने नाना मोहम्मद साहब से ये सीख मिली थी कि इस्लाम जंग का नहीं मोहब्बत का नाम है। मगर यज़ीद जंग पर आमादा था, उसे मालूम था कि इमाम हुसैन के पास ना जंग के हथियार हैं और ना ही जंग लड़ने के लिए सिपाही। उनके साथ सिर्फ उनके परिवार के सदस्य थे और उनके कुछ साथी।
यज़ीद ने हुसैन के कुनबे का पानी बंद किया
यज़ीद ने इमाम हुसैन पर दबाव बनाने के लिए उनपर नहर से पानी लेने की पाबंदी लगा दी, जिससे हुसैन के कुनबे में मौजूद छोटे छोटे बच्चे और बूढ़े और औरतें प्यास से तड़प उठे। तीन दिनों तक उन्हें भूखा प्यासा रखा गया और उसी हालत में जबरन जंग करने के लिए मजबूर किया गया। इमाम हुसैन के सामने शहीद होने या फिर जंग करने में से एक रास्ता चुनना था। लेकिन उन्होंने शहीद होने का रास्ता चुना क्योंकि वो जानते थे कि अगर वो जंग लड़ेंगे तो ये कहा जाएगा कि इस्लाम तलवार की नोक पर फैला।
हुसैन ने इबादत के लिए मांगी एक रात की मोहलत
इमाम हुसैन ने यज़ीद से खुदा की इबादत एक रात मांगी, जिसे 9 मुहर्रम की रात या आशूरा की रात कहा जाता है। इसके बाद मोहर्रम की 10 तारीख को कर्बला में यज़ीद ने इमाम हुसैन के कुनबे पर हमले का ऐलान कर दिया। एक तरफ यज़ीद की करीब एक लाख की फौज थी तो वहीं दूसरी तरफ इमाम हुसैन के कुनबे में उन्हें मिलाकर सिर्फ 72 ऐसे लोग थे जो जबरन छेड़ी कई यज़ीद की इस जंग में शामिल हो सकते थे। बाकी या तो महिलाएं थीं, बच्चे थे या बीमार थे।
इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत
इमाम हुसैन और उनके तमाम 71 साथियों को बड़ी बेरहमी से क़त्ल करके उनके सरों को जिस्म से अलग कर दिया गया, यज़ीद के एक लाख के लश्कर ने जिन 72 लोगों को मारा उनमें 6 महीने के बच्चे अली असगर के साथ साथ कम उम्र के बच्चे और बूढ़े भी थे। जब सब शहीद हो गए तो यज़ीद की फौज ने इमाम हुसैन के उन टेंट (खेमों) को भी जला दिया, जिसमें औरते मौजूद थीं।
इमाम हुसैन ने खुशी-खुशी अपने परिवार को इस्लाम की राह पर कुर्बान कर दिया ताकि दुनिया को ये संदेश जा सके कि इस्लाम तलवार की नोंक पर नहीं बल्कि अमन के संदेश की बदौलत है। मगर आज उसी इस्लाम को अबू बकर अल बगदादी, हाफिज़ सईद, ओसामा बिन लादेन जैसे लोग और दूसरे आतंकी संगठन बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं।
इमाम हुसैन और अहिंसा के उनके संदेश
हुसैन और उनके 71 साथी मर कर भी अमर हो गए। आज भी उनके अहिंसा के संदेश की मिसाल पूरी दुनिया देती है,
इमाम हुसैन पर हुए ज़ुल्म की याद में मनाते हैं ग़म
इमाम हुसैन और उनके साथियों पर हुई ज़्यादतियों के ग़म को मनाने के लिए यूं तो हर मज़हब के लोग शरीक होते हैं। जिसमें बच्चे बूढ़े जवान और औरतें सभी शामिल होते हैं, इन जुलूस में आशूरे के दिन की याद में ताज़िये और अलम निकाले जाते हैं। कर्बला आज भी हुसैन के मानने वालों का सबसे बड़ा तीर्थ स्थल है, जहां मोहर्रम और अरबईन में करोड़ की तादाद में ज़ायरीन आते हैं।
ADVERTISEMENT