टीपू सुल्तान की पोती कैसे बनी, अंग्रेजों की सबसे बड़ी जासूस
indian lady agent fought for england
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टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों से कैसे लोहा लिया, ये कहानी तो जमाने के सामने है लेकिन उनकी परपोती नूर इनायत खान की बहादुर की कहानी दुनिया के सामने आने में 60 साल का लंबा वक्त लग गया। जासूसी के किस्से में जानिए नूर इनायत खान की दिलचस्प कहानी
मैसूर के राजा टीपू सुल्तान के खानदान से ताल्लुक रखने वाली नूर इनायत खान दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन के लिए जासूसी करती हुई पकड़ी गई थीं। जर्मनी के तानाशाह हिटलर ने नूर को मौत के घाट उतार डाला। उनकी मौत कुछ वैसे ही खामोश थी जैसे हर जासूस की होती है। लेकिन दशकों बाद नूर इनायत खान की जिंदगी के पन्ने अचानक पलटने लगे और उनकी पूरी कहानी जमाने के सामने आई।
मैसूर राजघराने से ताल्लुक रखने वाली नूर का जन्म मॉस्को में 1 जनवरी 1914 को हुआ। नूर के पिता इनायत खान संगीतकार और सूफी उपदेशक थे जबकि उनकी मां एक अंग्रेज महिला थीं। जिनका नाम ओरा-रे बेकर था। बाद में नूर के पिता इनायत खान से शादी करने के बाद वो अमीना बेगम हो गईं।
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वर्ष 1914 में जब पहले विश्वयुद्ध की शुरुआत हुई तो नूर का परिवार रूस से इंग्लैंड चला गया और यहीं पर नूर की परवरिश हुई। महज छह साल की उम्र में ही नूर का भारत को लेकर कुछ ऐसा जज्बा था कि ब्रिटिश सरकार ने बकायदा उन पर नजर रखना शुरू कर दिया। पिता इनायत खान को लगा कि वो किसी मुसीबत में पड़ सकते हैं लिहाजा वो परिवार के साथ 1920 में पेरिस चले गए। नूर की बाकी पढ़ाई-लिखाई पेरिस में हुई। उनके तीन छोटे भाई बहन थे । 1927 में जब नूर महज 13 साल की थीं तब भारत की यात्रा के दौरान उनके पिता की मौत हो गई।
घर में सबसे बड़ी होने की वजह से नूर ने अपने भाई बहनों की जिम्मेदारी खुद ही संभालने लगीं। पेरिस में रहने के दौरान नूर की फ्रेंच भाषा पर जबरदस्त पकड़ बन गई। वो फ्रेंच भाषा में बच्चों की कहानियां लिखा करती थीं। वो मैगजीन और रेडियो के लिए भी काम किया करती थीं। 1940 में जब नाजियों ने फ्रांस पर कब्जा किया तो एक बार फिर नूर के परिवार को हजारों लोगों के साथ फ्रांस छोड़कर इंग्लैंड में पनाह लेनी पड़ी। फ्रांस पर जर्मनी के इस तरह के कब्जे ने नूर को अंदर तक हिलाकर रख दिया था। और वो जर्मनी के खिलाफ कुछ करना चाहती थीं।
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इंग्लैंड आने के बाद नूर ने सबसे पहले इंग्लैंड की रॉयल एयरफोर्स में भर्ती होने का निर्णय लिया। वहां उन्हें वायरलेस ऑपरेटर की नौकरी मिली। इस नौकरी में नूर ने इतनी दिलचस्पी ली कि कुछ ही दिनों में रॉयल एयरफोर्स में मशहूर हो गईं। इसी बीच इंग्लैंड की खुफिया एजेंसी SOE (स्पेशल ऑपरेशंस एग्जिक्यूटिव ) की नज़र नूर पर पड़ी । नूर फ्रांस में रह चुकी थीं और उन्हें फ्रेंच भाषा की भी अच्छी खासी जानकारी थी।
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उस वक्त इंग्लैंड की खुफिया एजेंसी फ्रांस में जर्मनी के खिलाफ लड़ रहे कई विरोधी गुटों को मदद मुहैया करा रहे थे। केवल फ्रांस ही नहीं बल्कि जर्मनी ने कई यूरोपीय देशों पर कब्जा कर लिया था, हर जगह जर्मनी के खिलाफ रोष था और मित्र देश इस विद्रोह को हवा दे जर्मनी को परेशानी में डालना चाहते थे।
एक मिशन को अंजाम देने के लिए खुफिया एजेंसी SOE ने नूर को चुना। उनका काम फ्रांस में विद्रोहियों की मदद करना था । जून 1943 में नूर को फ्रांस भेजा गया। उनको खुफिया नाम दिया गया “मेडलिन”। नूर को फ्रांस के शहर ली मैन्स भेजा गया। वहां से नूर पेरिस आ गईं और यहां पर उन्होंने फ्रांस विद्रोहियों की मदद करनेकी शुरुआत की।
जिस नेटवर्क की वो मदद कर रहीं थीं उसमें और भी कई वायरलेस ऑपरेटर मौजूद थे, लेकिन नूर अकेली महिला ऑपरेटर थीं जो फ्रांस में इंग्लैंड के लिए काम कर रही थी। इस पूरे नेटवर्क का नाम रखा गया था “प्रोस्पर”। हालांकि, कुछ ही दिन के अंदर प्रोस्पर के ज्यादातर वायरलेस ऑपरेटर नाजी सरकार की गिरफ्त में आ गए और अकेली नूर ही ऐसी वायरलेस ऑपरेटर थीं जो नाजियों की पकड़ में नहीं आ पाईं।
हालांकि नूर भी ज्यादा दिन तक नाजियों से नहीं बच पाईं और अपने ही एक साथी की मुखबिरी की वजह से नूर को अक्टूबर 1943 में जर्मन सैनिकों ने पकड़ लिया। एक महीने बाद उन्हें पेरिस से जर्मनी ले जाया गया। पकड़ में आने और तमाम टॉर्चर और ज्यादती झेलने के बाद भी नूर ने जर्मनों के सामने अपना मुंह नहीं खोला । करीब एक साल तक म्यूनिक के एक कैंप में रखने के बाद साल 1944 में नूर और उनके तीन साथियों को गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया गया।
62 साल तक नूर की कहानी इतिहास के गर्त में दबी रही लेकिन साल 2006 में आई एक किताब ने नूर की बहादुरी की कहानी को जमाने के सामने ला दिया । इसके बाद तो नूर की कहानी पर फिल्में भी बनी और ब्रिटेन के कई बड़े सम्मान नूर इनायत खान के नाम किए गए। 2012 में नूर इनायत खान के सम्मान में लंदन में उनकी एक प्रतिमा भी लगाई गई।
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