ना वो पैदा हुआ, ना वो मरा, वो सिर्फ इस धरती पर आया! क्राइम तक स्पेशल: कहानी 'ओशो' की
Story of Osho how Rajneesh become Bhagwan
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Inside Story Of Osho: भक्तों के लिए वो 'भगवान' था, उसके सुलगते विचारों से दुनिया हिल जाती थी, उसकी एक एक बात से तूफान मच जाता था और एक दिन 21 देशों की हूकुमत उसकी दुश्मन बन गई। वो पैदा हुआ तो चंद्रमोहन था, बड़ा हुआ तो रजनीश बन गया। भक्तों ने उसे भगवान कहा, लेकिन उसने अपने लिए नाम चुना ओशो।
गांव की झोपड़ी में पैदा होकर भी उसकी हुंकार से हिल गया था व्हाइट हाउस, दुनिया के सबसे ताकतवर देश ने रची उसकी मौत की साज़िश, उसे दी गई जेल की सलाखें। 21 देशों ने उसे अपने यहां कदम रखने मना कर दिया, लेकिन फिर भी वो दुनिया को देता रहा शांति, सुख और प्रेम का संदेश। वो जब तक जिया उसका हर पल एक संदेश था और जब वो इस दुनिया से गया तो भी संदेश देकर, उसकी मौत पर उसके भक्तों ने दुख नहीं उत्सव मनाया।
ऐसा था ओशो का बचपन!
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ओशो की कहानी शुरु होती है करीब 9 दशक पहले। वो पैदा हुए 11 दिसंबर 1931 को, जगह थी मध्यप्रदेश के रायसेन ज़िले का गांव कुचवाड़ा। ओशो के माता-पिता रहने वाले तो जबलपुर के थे लेकिन उनका बचपन अपने नाना नानी के पास गुज़रा, ओशो में कुछ खास था तभी तो उन्होने 19 साल की उम्र में अपनी बी ए की पढ़ाई के लिए विषय चुना दर्शन शास्त्र। पहले वो जबलपुर के एक कॉलेज में पढ़े और फिर मास्टर डिग्री करने सागर यूनिवर्सिटी पहुंच गए, पढ़ाई पूरी की तो फैसला किया कि अब दूसरे को शिक्षा देंगे और पेशा चुना प्रोफेसरी का।
रायुपर के संस्कृत कॉलेज में प्रोफेसर बन गए, लेकिन ओशो के तेवर के कॉलेज का मैनेजमेंट घबरा गया, उनके सुलगते विचार छात्रों को भटका रहे हैं, ये आरोप लगा कर ओशो को कॉलेज से निकाल दिया गया। अगला पड़ाव बनी जबलपुर यूनिवर्सिटी, बेबाक प्रोफेसर चंद्र मोहन जैन, अध्यात्म की ओर कदम बढा चुके थे। वो पूरे देश में घूम कर प्रवचन देने लगे, 1960 से लेकर 1966 तक उन्होने पूरा भारत घूमा। उनके लाखो प्रशंसक बने लेकिन कई दुश्मन भी तैयार हो गए। वजह थी कि वो कभी कम्युनिस्टों को भला बुरा कहते तो कभी गांधी की विचारधारा पर सवाल उठाते।
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कुछ लोगों को उनके विवाद उनकी काबिलियत ज्यादा चुभने लगे, नतीजा 1966 तक आते आते जबलपुर यूनिवर्सिटी ने उनसे नाता तोड़ने का फैसला ले लिया। लेकिन उससे बड़ा फैसला तो खुद प्रोफेसर चंद्र मोहन जैन ले चुके थे, वो फैसला था प्रोफेसर चंद्र मोहन जैन से आचार्य रजनीश बनने का, एक ऐसा फैसला जो अब आने वाले वक्त में अध्यात्म का एक नया रास्ता खोलने वाला था। लेकिन इसके साथ ही शुरु होने वाला था वो सब जो पूरे देश पूरी दुनिया में तहलका मचाने वाला था।
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ओशो के विचारों से वो लोग घबराने लगे थे जिनकी सोच दकियानूसी थी, लेकिन जो ऐसे लोगों की परवाह करे वो फिर ओशो कैसा? ओशो अब नौकरी के जंजाल से मुक्त हो चुके थे और उनके सामने था एक ऐसा फलक जिसमें उनकी उड़ान कोई नहीं रोक सकता था।
ओशो कैसे बने सेक्स गुरु?
1968, मुंबई
जिंदगी जीने का नया फलसफा बयां करते ओशो के ख्यालातों की आंधी पहुंच चुकी थी मुंबई के भारतीय विद्या भवन, अपने पांच मशहूर उपदेशों की कड़ी में ओशो दुनिया को सेक्स की ऊर्जा से मोक्ष के द्वार तक पहुंचने का रास्ता बता रहे थे उस वक्त मीडिया ने ओशो को सेक्स गुरू कहना शुरू कर दिया। उनके विचारों को संभोग से समाधि तक नाम की एक किताब के तौर पर पेश किया गया जो आज भी ओशो की सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली किताब है, लेकिन ये तो उस वैचारिक विद्रोह की शुरुआत भर थी।
1970 में ओशो ने हिमाचल के कुल्लू मनाली में पहली बार सन्यास के एक नये अंदाज की नींव रखी और वो था नियो सन्यासी या नव सन्यासी या सांसारिक सन्यासी। ओशो ने सन्यास की एक नयी परिभाषा लिख दी, संसार से दूरी नहीं बल्कि संसार के साथ रहते हुए सन्यास।
ओशो के ये नव सन्यासी अपने नाम के आगे स्वामी और मां लगाने लगे, सन्यास और आध्यात्म के एक बिल्कुल नये अंदाज की शुरूआत हो गई। गीत संगीत के बीच आध्यात्म और ज्ञान की गंगा बहने लगी, सन्यास का एक नया रूप दुनिया के सामने आ चुका था।
सरकारों के लिए कैसे ख़तरा बनने लगे ओशो?
ओशो के इन ख्लायातों ने उस वक्त के समाज में हलचल मचा दी, सरकारें हिल गई। परंपरागत हिंदू धर्म के ठेकेदारों में हलचल मच गई और यहां तक कि कम्युनिस्टों को भी ओशो में एक खतरा सा नजर आने लगा।
ओशों ने खुद के भगवान होने का एलान किया
1971 में ओशो ने एलान कर दिया खुद के भगवान होने का, ओशो का दावा था कि अब उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया है और उनका नाम अब आचार्य रजनीश नहीं बल्कि भगवान रजनीश होगा। 1974 में ओशो पुणे आ गये, उनके ओशो कम्यून पर पूरी दुनिया की मीडिया की निगाहें रहती थी, और कम्यून में होने वाले कई कार्यक्रमों पर अश्लील होने के भी इल्जाम लगे।
अस्सी का दशक शुरू हो चुका था, एक नई दुनिया ओशो का इंतज़ार कर रही थी। ओशो की ज़िंदगी में अब वो होने वाला था जिसकी कल्पना शायद खुद ओशो ने नहीं की थी। ओशो को एक ऐसा देश पुकार रहा था जहां उनके भक्त तो थे लेकिन साथ ही एक बहुत बड़ा षड़यंत्र उनका इंतज़ार कर रहा था। एक ऐसा षड़यंत्र जिसे रचा था दुनिया की सबसे ताकतवर सरकार ने।
वो 1981 का साल था, ओशो की तबियत ठीक नहीं थी। उन्हे इलाज के लिए अमेरिका ले जाया गया, ओशो के अमेरिकी भक्तों ने उन्हे कुछ दिनों के लिए वहीं रहने के लिए मना लिया। अमेरिका के सेट्रल ओरेगॉन इलाके के रेगिस्तान में ओशो के भक्तों ने 64 हज़ार एकड़ ज़मीन खरीदी, जहां रखी गई रजनीशपुरम की नींव।
ओशो ने अमेरिका में मचाई धूम
रजनीशुपरम परवान चढ़ने लगा, धूल भरे रेगिस्तान में ओशो का हरा भरा आश्रम चमत्कार की तरह था, दुनिया भर के भक्त यहां पहुचने लगे। वहां रहने वाले भक्तों की तादाद 10 से 20 हज़ार पहुंच गई, वहां करीब पांच हज़ार घर बनाए गए। खुद का एयरपोर्ट और वो सब मौजूद था जो एक बड़े शहर की ज़रूरत होता है, वहां खुद ओशो की हवाई सेवा एयर रजनीश थी। खुद उनकी पुलिस थी और खुद की अर्थव्यवस्था।
पूरे अमेरिका में ओशो ही ओशो छाए हुए थे, कहीं उनकी महंगी रोल्स रायल कारों के बेड़े की बात होती तो कहीं उनके हाई प्रोफाइल भक्तों की। लेकिन अमेरिकी सरकार और वहां के कुछ दकियानूसी लोगों को डर था तो ओशो के विचारों से।
ओशो का इंतज़ार कर रहा था एक षड़यंत्र
अमेरिका के कुछ ताकतवर चर्च ओशो के दुश्मन बन गए थे और उन्ही के दवाब में अमेरिका के राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन की हुकूमत ओशो के खिलाफ षड़यंत्र रचने लगी, पहला बड़ा षड़यंत्र सामने आया 1984 में, जब ओशो के कुछ साथियों पर ऑरेगन शहर के लोगों को ज़हर देने की साज़िश रचने का आरोप लगाया गया।
ओशो को गिरफ्तार कर लिया गया, एक आम अपराधी की तरह अमेरिकी सरकार ने उन्हे बेड़ियों में जक़ड़ लिया, ये तस्वीरे ठीक उसी समय की हैं। लेकिन ओशो पर ये जुल्मों की शुरुआत थी, उन्हे एक ऐसे जेल में रखा गया जहां बेहद बीमार कैदी रखे जाते हैं। अमेरिकी सरकार उन्हे बीमार करना चाहती थी, लेकिन जब रजनीश को कुछ नहीं हुआ तो बाद में इसी जेल में उन्हे मारने के लिए बम तक लगाया गया।
आखिरकार 12 दिन जेल में रहने के बाद रजनीश को 5 साल तक अमेरिका ना आने की शर्त पर रिहा कर दिया गया, लेकिन अमेरिकी सरकार ओशो से इतना खौफ खा चुकी थी कि वो उन्हे कहीं भी चैन से रहने नहीं देना चाहती थी।
फरवरी 1986, ओशो ग्रीस पहुंचे लेकिन अमेरिका और वहां के चर्चों के दवाब में ग्रीस की सरकार घबरा गई। उसने ओशो को गिरफ्तार करके देश छोड़ने के लिए कह दिया।
मार्च 1986, ओशो स्विटज़रलैंड पहुंचे, लेकिन एयरपोर्ट से ही हथियारबंद पुलिसवालों ने उन्हे रवाना कर दिया।
ओशो का अगला ठिकाना बना स्वीडन, लेकिन अमेरिका का खौफ यहां भी उनका पीछा कर रहा था। यहां भी वही हुआ, उन्हे देश छोड़ने का हुक्म सुना दिया गया।
इंग्लैंड, आयरलैंड, कनाडा, एंटीगुआ, हालैंड, जर्मनी, इटली ओशो जहां भी गए उनके साथ यही सुलूक किया गया। पश्चिमी हुकूमतें पूरब के एक संत से इतना खौफ खा रही थीं कि उनके हवाई ज़हाज़ को ईंधन के लिए ज़मीन पर नहीं उतरने दिया जाता।
मार्च 1986 में लैटीन अमेरिकी देश उरग्वे ने ओशो को शरण देने की हिम्मत दिखाई, लेकिन ये हिम्मत भी अमेरिकी दवाब के आगे टूट गई। अमेरिका के राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन ने उरग्बे की आर्थिक मदद रोकने की धमकी दी और उरग्बे की सरकार ने ओशो को वापस जाने के लिए बोल दिया। इसके अगले दिन ही रेगन ने उरग्वे के लिए डेढ़ सौ मिलियन डॉलर की मदद का ऐलान कर दिया।
21 देश ओशो को अपने यहां कदम रखने से मना कर चुके थे और अब ओशो को तलाश थी एक ऐसी जगह की जहां से वो दुनिया को सुख और शांति का नया संदेश दे सकें।
अमेरिका से लेकर योरोप और यूरग्बे से लेकर जापान तक ओशो की धूम थी। उनकी एक आवाज़ पर बड़े से बड़े लोग अपन सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार हो जाते, और इन्ही में से कुछ थे बॉलीवुड के चमकते सितारे।
दुनिया में हर जगह थे ओशो के भक्त
ओशो सिर्फ एक नाम नहीं, एक चमत्कार था। एक ऐसा चमत्कार जिसकी चमक में खींचकर सितारे भी चले आते थे, ओशों की भक्तों की एक लंबी लिस्ट है। कहते हैं पूरी दुनिया में आज ओशो के पांच करोड़ भक्त हैं, हिंदुस्तान से लेकर अमेरिका और योरोप से लेकर आस्ट्रेलिया, अफ्रीका से लेकर ब्राज़ील हर तरफ ओशों के चेले हैं। लेकिन कुछ नाम ऐसे हैं जो लिस्ट और खास बना देते हैं। देसी विदेशी नेताओं से लेकर कला और हालीवुड और बालीवुड की कई हस्तियां ओशों के दिखाए रास्ते पर चलते हुए सन्यासी बन गईं। ओशो के ऐसे ही चेलों में से एक थे स्वामी विनोद भारती, जी हां बालीवुड के सुपरस्टार विनोद खन्ना को यही नाम दिया था ओशो ने।
विनोद खन्ना की ज़िंदगी में एक विलेन से अभिनेता और फिर नेता बनने की लंबी कहानी में कई मोड़ आए, लेकिन सबसे अहम मोड़ था जब उन्होने अपने करियर की जगह अपने दिल की सुनी। फिल्मी पंडित मान रहे थे इस शख्स में हर वो कूवत थी जो इसके जमाने के हीरो को इससे रश्क रखने के लिए काफी थी। एक ऐसा हीरो जो दूसरे अभिनेताओं की तरह किसी एक भूमिका में नहीं बंधा।
ओशो के लिए विनोद खन्ना ने छोड़ दिया अपना करियर
बॉलीवुड में विनोद खन्ना जब अपने पीक पर थे, तब अचानक ही फिल्मी दुनिया छोड़कर संन्यास ले लिया और ओशो रजनीश के भक्त बन गए। ये वही वक़्त था जब सदी के महानायक अमिताभ बच्चन अपने कॅरियर की ऊंचाई पर चढ़ रहे थे। लोग आज भी कहते हैं कि विनोद खन्ना ने अगर उस वक्त सन्यास नहीं लिया होता तो जो कामयाबियां उस दौर में अमिताभ को मिली वो विनोद के खाते में आने वाली थीं।
न जाने विनोद खन्ना के दिमाग में उस वक़्त क्या चल रहा था कि सन्यासी बनने के चक्कर में उन्होंने अपने करियर को तो दांव पर लगाया ही अपने परिवार को भी तबाह कर दिया। कहते हैं कि ओशो रजनीश का भक्त बनने की वजह से ही उनके पारिवारिक रिश्तों में दरार आई और ये दरार इतनी बढ़ी की तलाक पर जाकर खत्म हुई। लेकिन ओशो की मृत्यु से पहले ही विनोद खन्ना सन्यास छोड़ कर वापस बालीवुड में आ गए और एक अभिनेता से नेता बन गए।
महेश भट्ट भी थे ओशो के भक्त
ओशो के एक ऐसे ही चेले हैं महेश भट्ट, आज भी ओशों के विचारों का असर महेश भट्ट पर साफ नज़र आता है। हालांकि महेश भट्ट के बारे में ओशो ने कहा था कि वो जिज्ञासा और मशहूर फिल्मकार विजय आनंद से प्रभावित होकर सन्यास लेने चले आए थे, जबकि महेश में उन्हें वो संजीदगी नज़र नहीं आई जो किसी सन्यासी बनने के इच्छुक इंसान में होने चाहिए, लेकिन कहते हैं कि अगर महेश भट्ट ओशो के भक्त नहीं बनते तो शायद उनकी फिल्मों में वो धार नहीं होती जो आज दिखाई देती है।
ओशो के बारे में कहा जाता था कि जब दुनिया में कहीं रास्ता नहीं मिलता तो वो उनके पास मिलता है, और ऐसे ही एक रास्ते की तलाश में परवीन बाबी के ओशो की शरण में जा पहुंची। प्यार में हर तरफ से ठुकराईं, परेशान, बेहाल परवीन को जिंदगी का कुछ सुख मिला तो सिर्फ उस वक्त जब वो ओशो की भक्त थीं। कहते हैं कि ओशो की शरण में ही महेश भट्ट परवीन बाबी के और ज्यादा करीब आए और उन्होने अपनी इस कहानी को अपनी फिल्म - फिर तेरी कहानी याद आई में फिल्माया था।
ओशो के नाम से कांपने लगे थे दुनिया के ताक़तवर देश
दुनिया के 21 ताकतवर देशों की हुकूमतें ओशो के नाम से कांप रही थीं, दुनिया की सबसे बड़ी ताकत अमेरिका की सरकार भी ओशो से खौफ खा रही थी। लेकिन ओशो के भक्तों की संख्या कम होने की बजाय बढ़ती जा रही थी। रही बात ओशो के नए ठिकाने की तो उनका अपना मुल्क हिंदुस्तान बाहें पसार कर उनका इंतज़ार कर रहा था।
जब पश्चिम कांप गया तो पूरब में अपने ही देश अपने ही लोगों के बीच ओशो को एक बार फिर आना पड़ा। जनवरी 1987 को ओशो वापस अपने वतन हिंदुस्तान लौट आए। एक बार फिर पूना के ओशो कम्यून ओशो और उनके भक्तों से गुलज़ार हो गया। ओशो एक बार फिर अपने भक्तों के लिए ज्ञान की गंगा बहा रहे थे। ओशो उस दौर में मेडिटेशन में नए नए प्रयोग कर दुनिया को एक नई राह दिखा रहे थे। ऐसा लगा जैसे सब कुछ ठीक चल रहा है लेकिन अमेरिका में ओशो के साथ जो षड़यंत्र हुआ था उसके निशान पूना में सामने आने लगे।
नवंबर 1987 में ओशो की तबियत नासाज़ रहने लगी, तब ओशो ने खुलासा किया कि अमेरिका में जेल में रहने के दौरान उनके शरीर में धीमा ज़हर पहुंचा दिया गया है। ओशो के भक्तों का आज तक मानना है कि जेल में अमेरिकी सरकार ने ओशो को थिलियम नाम का धीमा ज़हर दिया था, जिसके नतीजे में वो बुरी तरह बीमार पड़ गए।
बीमार हो चुके शरीर के साथ शुरूआत में तो ओशो दिन में एक बार प्रवचन देने के लिए भक्तों के सामने आते थे, लेकिन इसके बाद ओशो की सेहत लगातार बिगड़ती गई और अब वो सिर्फ शाम के वक़्त अपने भक्तों को दर्शन देने के लिए अपने कमरे से बाहर निकलते थे।
इस धरती पर ओशो का वक्त पूरा हो गया
19 जनवरी शाम 5 बजे ओशो ने इस धरती को आहिस्ता आहिस्ता अलविदा कह दिया। शरीर को त्यागने से पहले ओशो ने अपने भक्तों से, एक गुज़ारिश की, मेरे जाने का गम न मनाना बल्कि मेरे शरीर के साथ उत्सव मनाना। हुआ भी यही, पुणे के बुद्धा हॉल में ओशो के शरीर को रखा गया, जमकर मृत्यु का उत्सव मना और दिल खोलकर मना। नाचते गाते सन्यासी अपने भगवान के को बर्निंग घाट तक ले गए, जहां सारी रात ये उत्सव जारी रहा।
ओशो की समाधि पर लिखा गया, वो ना कभी पैदा हुआ, ना वो कभी मरा। वो तो बस इस धरती पर 11 दिसंबर 1931 से लेकर 19 जनवरी 1990 तक रहने के लिए आया था।
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