71 साल पहले एक पूरे देश को कैसे खा गया ड्रैगन?

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71 साल पहले एक पूरे देश को कैसे खा गया ड्रैगन?
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20वीं सदी से शुरु हुई तिब्बत के खात्मे की कहानी

जब एक तरफ भारत में ब्रिटिश हुकूमत थी, तो वहीं दूसरी तरफ चीन और तिब्बत में राजशाही का दौर था। नेपाल, उत्तराखंड, हिमाचल और कश्मीर के अलावा पूर्वी राज्यों का जो हिस्सा आज चीन की सीमा से लगता है वहां कभी तिब्बत हुआ करता था। आज़ादी से पहले सीमा रेखा के निर्धारण के लिए 3 जुलाई 1914 को ब्रिटिश इंडिया और तिब्बत के बीच समझौते के बाद एक नक्शा खींचा गया। इसमें तवांग जो अब अरुणाचल प्रदेश है, उसे भी ब्रिटिश भारत का हिस्सा माना गया। हालांकि तब वहां अलग अलग राजवंश हुआ करते थे, जिनके साथ अंग्रेज़ों ने समझौता कर उसे नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी यानी एनईएफए का नाम दिया था। जिसका नाम 1972 में बदलकर अरुणाचल प्रदेश रखा गया।

भारत और तिब्बत के साथ हुआ सीमा समझौता

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3 जुलाई 1914 को शिमला में तब के ब्रिटेश इंडिया, चीन और तिब्बत के बीच सीमा को लेकर एक समझौता हुआ। जिसे सर हेनरी मैकमोहन लीड कर रहे थे, इसी वजह से इस रेखा को मैकमोहन रेखा कहा जाता है। शिमला समझौते के दौरान ब्रिटेन, चीन और तिब्बत अलग-अलग पार्टी के तौर पर शामिल हुए थे। हालांकि इस सम्मेलन में चीन सिर्फ इस हैसियत से शामिल हुआ था, क्योंकि तब उसकी सीमा भारत के K-2 पर्वत श्रृंखला के हिस्सा से मिलती थी। हालांकि आज़ादी के बाद पाकिस्तान ने इस इलाके पर कब्ज़ा कर लिया और 1963 में इसे चीन को तोहफे में दे भी दिया, और उधर पीएलए यानी चीनी सेना ने जबरन तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया। अब भारत के साथ जिस 3,488 किमी की सीमा को लेकर चीन अक्सर बखेड़ा खड़ा करता है वो तो असल में उसकी थी ही नहीं। शिमला समझौता प्रथम विश्व युद्ध से पहले हुआ था, लिहाज़ा वर्ल्ड वॉर के दौरान जब हालात बदलने लगे, तब साल 1937 में ब्रिटिश इंडिया के अंडर सेक्रटरी सी यू एचिसन, अ कलेक्शन ऑफ ट्रीटीज़, ऐंगेज़मेंट्स ऐंड सनद्स रिलेटिंग टू इंडिया ऐंड नेबरिंग कंट्रीज़ नाम से एक किताब तैयार की। ये भारत और उसके पड़ोसी देशों के बीच हुई संधियां और समझौते का आधिकारिक कलेक्शन था, इसमें नई जानकारियां भी अपडेट हुई और मैकमोहन रेखा को अंतरराष्ट्रीय मान्यता भी मिल गई।

सरहद कागज़ पर थी, ज़मीन पर नहीं

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कागज़ के नक्शे पर लाइन खींच कर 1914 में हुआ मैकमोहन लाइन का ये समझौता, दरअसल बिना इस बात को ध्यान में रखे हुआ था कि बीच में कहां नदी, कहां घाटी और कहां पहाड़ है और 1937 में इसे मान्यता भी मिल गई। हालांकि ज़मीन पर ऐसा कोई सरहदी निशान खींचा ही नहीं गया और मुश्किल हालात होने की वजह से तब कोई बॉर्डर फोर्स भी तैनात नही हुई। तब तक मामला सिर्फ आपसी समझ बूझ से ही चल रहा था, फिर कुछ साल बाद यानी 1947 में भारत आज़ाद हो गया। इधर भारत आज़ाद हुआ और उधर चीन के कम्युनिस्ट गुट ने सत्ता पर काबिज़ होकर 1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की घोषणा कर दी, बस भारत के साथ चीन के सीमा विवाद की कहानी इसी के बाद शुरु होती है।

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चीन ने अपनाई विस्तारवादी नीति

मैकमोहन लाइन के दोनों तरफ सत्ता का परिवर्तन हो चुका था और सत्ता में आने के बाद कम्युनिस्ट सरकार ने अपनी विस्तारवादी नीति को बढ़ावा देना शुरु कर दिया था। इसके तहत चीन ने पहले तिब्बत के दो अलग अलग गुटों को आपस में लड़वाया और फिर 1950 आते आते उसकी पीपुल लिब्रेशन आर्मी ने एक पूरे मुल्क को अपने कब्ज़े में लेना शुरु कर दिया। हुआ ये कि पहले तो तिब्बत की सुरक्षा के नाम पर चीन ने 1950 में तिब्बत के 14वें दलाई लामा तेंज़िन ग्यात्सो के साथ सेवनटीन प्वाइंट एग्रीमेंट किया और फिर धीरे धीरे उन्हें ही सत्ता से बेदखल कर दिया। अपनी जान खतरे में देखते हुए 1959 में दलाई लामा को भारत में शरण लेनी पड़ी और तब से लेकर आजतक दलाई लामा तेंज़िन ग्यात्सो हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में शरण लिए हुए हैं। इस उम्मीद में कि एक दिन वो अपने तिब्बत को ड्रैगन के चंगुल से फिर से आज़ाद करा सकेंगे, लेकिन अभी तक वो दिन नहीं आया।

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