..इसलिए ईरान से घबराता है अमेरिका!

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..इसलिए ईरान से घबराता है अमेरिका!
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4 नवंबर 1979 की सुबह 6.30 बजे ईरान की राजधानी तेहरान में अमेरिकी दूतावास के नज़दीक गुपचुप और फिर सैकड़ों की तादाद में ईरानी छात्र अमेरिकी दूतावास के ईर्द गिर्द इकट्ठा होने लगे, देखते ही देखते ये हुजूम हज़ारों लाखों की भीड़ में तब्दील हो गया। लोगों के हाथों में बैनर और ईरान के पूर्व सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह खुमैनी की फोटो थी। दूसरी तरफ अमेरिका के झंडे जलाए जा रहे थे, नारे लग रहे थे। Down With America यानी अमेरिका मुर्दाबाद।

शाह मोहम्मद रज़ा पहेलवी और जिमी कार्टर के पुतलों पर लोग गुस्सा उतार रहे थे, बड़े बुज़ुर्ग और औरतें अपने मर चुके करीबियों की तस्वीरों के साथ आंदोलन थीं, और ये सब एक लोहे के दरवाज़े के दूसरी तरफ हो रहा था। जिसपर एक मोटी सी चेन में बंद ताला लगा था, ये दरवाज़ा था तेहरान में अमेरिकी दूतावास का। दरवाज़ें की दूसरी तरफ भयंकर सन्नाटा था, जिसके अंदर 52 अमेरिकी अधिकारी और कर्मचारी मौजूद थे। अंदर कुछ ईरानी लोग भी मौजूद थे जो अमेरिकी वीज़ा लेने आए थे, मगर बाहर का शोर अंदर बैठे लोगों में खौफ पैदा कर रहा था। सबकी सांसे अटकी थी कि अब क्या होगा, तभी इस भीड़ में से एक इंसान करीब 12 फीट के गेट पर चढ़ा और दूतावास की चौहद्दी में दाखिल हो गया।

अंदर मौजूद अमेरिकी अधिकारी और सुरक्षाकर्मी प्रदर्शनकारियों की हर हरकत पर नज़र रखे हुए थे, देखते ही देखते एक बाद एक कई युवक अमेरिकी दूतावास के अंदर दाखिल होने लगे। तभी एक शख्स ने आयरन कटर से गेट पर लगी लोहे की चेन काट दी। हज़ारों लाखों की भीड़ पागलों की तरह दूतावास में दाखिल हो गई, अमेरिकी दूतावास के लोग फोन पर लगातार पुलिस प्रोटेक्शन मांग रहे थे। मगर फोन की दूसरी तरफ उनकी सुनने वाला कोई नहीं था, इससे पहले की ईरानी प्रदर्शनकारी दूतावास के दफ्तर में दाखिल हो पाते अमेरिकी अधिकारी तमाम फाइलों और दस्तावेज़ों को जलाने का निर्देश देने लगे, और अमेरिका को भी आने वाले इस खतरे का संदेश दे दिया गया।

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एक एक कर के प्रदर्शनकारियों ने पहले सीटीवीवी कैमरे तोड़ने शुरू किए और फिर शीशे की खिड़कियां, मगर इतने में अमेरिकी दूतावास पर मौजूद सुरक्षाकर्मियों ने आंसू गैस छोड़कर प्रदर्शनकारियों को और भड़का दिया, और प्रदर्शनकारी दूतावास में दाखिल हो गए। दूतावास के अंदर के नज़ारे ने ईरानी प्रदर्शनकारियों को और भड़का दिया। अंदर एक दीवार पर आयतुल्लाह खुमैनी की फोटो लगी हुई थी। मगर उस तस्वीर को अमेरिकी लोगों ने निशाना लगाने का खिलौना बना रखा था, इतना काफी था इस भीड़ को बेकाबू करने के लिए।

साल 1979 में ईरान में हुई इस्लामिक क्रांति के बाद सबसे पहला शिकार राजधानी तेहरान में अमेरिकी दूतावास ही बना। हज़ारों लाखों छात्रों की भीड़ ने दूतावास पर चढ़ाई कर दी और वहां काम कर रहे अमेरिकी अधिकारियों औऱ कर्मचारियों को बंधक बना लिया। उनकी एक ही मांग थी, अमेरिका फौरन से पेशतर शाह मोहम्मद रज़ा पहेलवी को ईरान वापस भेजे ताकि ये मुल्क उसके किए का उससे हिसाब ले सके। मगर सवाल ये है कि आखिर कौन था ये मोहम्मद रज़ा पहेलवी और अमेरिका इसे क्यों बचा रहा था? इसे जानने के लिए करीब 70 साल पीछे जाना पड़ेगा।

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ईरान पर 25 सौ साल तक कई राजाओं ने हुकूमत की, जिन्हें शाहों के नाम से जाना गया। 1950 में ईरान की जनता ने मोहम्मद मुसादिक के रूप में एक धर्मनिर्पेक्ष राजनेता को प्रधानमंत्री चुना, सत्ता में आते ही मुसादिक ने ईरान के तेल का फायदा सीधे अपने लोगों तक पहुंचाने के लिए ब्रिटिश औऱ यूएस पेट्रोल होल्डिंग का राष्ट्रीयकरण कर दिया। ये वो वक्त था जब दुनिया द्वितीय विश्वयुद्ध से उभर चुकी थी, और अमेरिका को यकीन हो चला था कि उसके अंदर सुपर पॉवर बनने की पूरी सलाहियत भी है और मौका भी। लिहाज़ा 1953 में उसने ब्रिटेन के साथ मिलकर एक साज़िश के तहत मुसादिक का तख्तापलट कर दिया और एक लोकतांत्रिक देश को राजशाही में तब्दील कर मोहम्मद रज़ा पहेलवी को ईरान का नया शाह बना दिया।

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22 साल का शाह उस वक्त मशहूर था अपनी अय्याशियों और फिज़ूलखर्चियों के लिए, कहतें हैं आलम ये था कि उसकी पत्नी पानी नहीं दूध में नहाया करती थी। जबकि शाह का लंच रोज़ाना पेरिस से मंगवाया जाता था, इस बात की परवाह किए बगैर कि उसके अपने मुल्क में लोग भूखे मर रहे थे। पहेलवी राजवंश पर फिर से खतरा ना मंडराए और सत्ता पहेलवी राजवंश के ही पास रहे इसलिए पहेलवी राजवंश के आखिरी शाह मोहम्मद रज़ा पहेलवी ने अपनी एक बेरहम आतंरिक पुलिस सवाक की स्थापना की। जिसका एक ही काम था राजवंश के खिलाफ उठने वाली किसी भी आवाज़ को बड़ा बनने से पहले ही कुचल देना।

वहीं दूसरी तरफ दुनिया में ग्लोबलाइज़ेशन के दौर पर बाज़ारतंत्र हावी होने लगा था, मगर इसके लिए ज़रूरी था ईरान का पश्चिमी रंग में रंगना और शाह ने अगला क़दम यही उठाया। ईरान के बाज़ार को दुनिया के लिए खोल दिया, जिसका नतीजा ये हुआ कि तेहरान फैशन का हब बन गया। कहते हैं उस दौर में फैशन पेरिस से पहले तेहरान में आने लगा था, अय्याशी का कोई ऐसा सामान नहीं थी जो ईरान की राजधानी में मुहैय्या ना हो।

90 फीसदी शिया मुस्लिम और करीब 9 फीसदी सुन्नी मुस्लिमों को शाह पहेलवी का ये खुला रूप बिलकुल भी नहीं भा रहा था, उनके मुताबिक अमेरिका के दबाव में शाह पहेलवी ने ना सिर्फ मुल्क को अमेरिका के सामने गिरवी कर दिया है बल्कि ईरान की तमीज़ और तहज़ीब का भी बेड़ा गर्क कर दिया। करीब 10 सालों तक ईरान को पश्चिमी रंग में बदलते हुए अपनी आंखों से देखने के बाद लोग शाह पहेलवी के खिलाफ सड़कों पर उतर आए और इन लोगों की अगुवाई इस्लामिक लीडर आयतुल्लाह रुहुल्लाह खुमैनी कर रहे थे।

शाह की सुरक्षा एजेंसियों ने फौरन आयतुल्लाह खुमैनी को गिरफ्तार कर लिया, और उन्हें 18 महीनों तक जेल में यात्नाएं दी गईं। 1964 में जेल से आज़ादी के लिए उनके सामने दो शर्तें रखी गईं, या तो वो शाह से माफी मांगे या देश छोड़ दें। आयतुल्लाह खुमैनी ने दूसरा रास्ता चुना और उन्हें देश से निकाल दिया गया। उस दिन के बाद से वो 14 साल ईरान से दूर रहे, पहले इराक, फिर तुर्की और फिर फ्रांस। और इन सालों में खुमैनी वहीं से मोहम्मद रज़ा पहेलवी को सत्ता से बेदखल करने का खाका खींचते रहे।

साल 1971 में ईरानी शहर पर्सेपोलिस में शाह ने अपने दोस्त मुल्कों की शान में एक शानदार पार्टी रखी, इसमें यूगोस्लाविया, मोनाको, अमेरीका और सोवियत संघ से आए उनके सियासी दोस्तों ने शिरकत की। जिसमें ईरान में उठते विरोध के स्वर को कुचलने की रणनीति पर चर्चा की गई, शाह की इस पार्टी को निर्वासन झेल रहे ईरानी नेता आयतुल्लाह खुमैनी ने शैतानों को जश्न कहा। ये वो दौर था जब ईरानी जनता में शाह के खिलाफ गुस्सा और आयतुल्लाह खुमैनी में उम्मीद नज़र आ रही थी।

फ्रांस में रहने के दौरान उनके संदेशों को मुल्क में पंपलेट और ऑडियो-वीडियो मैसेज के ज़रिए लोगों तक पहुंचाया जा रहा था। जो काम आयतुल्लाह खुमैनी मुल्क में रहकर नहीं कर पाए, वो उन्होंने मुल्क से बाहर रहते हुए कर दिया। ईरान में हर तरफ एक ही सदा थी, आयतुल्लाह खुमैनी ज़िंदाबाद, शाह पहेलवी मुर्दाबाद। लेकिन ऐसा कतई नहीं था कि ईरान में जो कुछ हो रहा था उससे दुनिया ने आंख बंद कर ली थी। खासकर अमेरिका ने, शाह पहेलवी का ईरान की सत्ता पर काबिज़ रहना अमेरिका के लिए उतना ही ज़रूरी थी, जितना कि उसके लिए सुपरपॉवर बने रहना। वो इसलिए क्योंकि सुपर पॉवर बने रहने की असली पॉवर उसे ईरान और फारस की खाड़ी से मिल रही थी।

पश्चिमी एशिया में ईरान एक बड़ा और बेहद अहम देश है, ना सिर्फ इसकी सरहद अगल बगल के करीब आधा दर्जन देशों के साथ लगती है, बल्कि महासागरों और खाड़ियों के मामले में भी ये किसी भी देश से बेहतर स्थिति में है। उत्तर में तुर्कमेनिस्तान, कैस्पियन सागर, अज़रबैजान, पश्चिम में तुर्की, इराक और पूर्व में पाकिस्तान और अफगानिस्तान, दक्षिण में फारस की खाड़ी, और ओमान की खाड़ी। दोनों खाड़ियों को जोड़ता है एक वॉटर चैनल जिसका नाम है स्ट्रेट ऑफ हार्मोज़।

तो भौगोलिक रुप से ईरान की अहमियत इसलिए ज़्यादा है क्योंकि व्यापार की नज़रिए से और प्राकृतिक संसाधनों के मामले में दुनिया में इससे बेहतर जगह कोई नहीं है। तेल और गैस की खोज ने तो इस मुल्क को सोने की खान बना दिया, और इसीलिए अकेले अमेरिका नहीं बल्कि इससे पहले ब्रिटेन और सोवियत यूनियन यहां अपने प्रभाव के लिए जद्दोजहद करते रहे हैं।

फारस और ओमान की खाड़ी को जोड़ने वाले समुद्र की चौड़ाई महज़ 55 किमी है, इसलिए इस इलाके में ईरान से पंगा लेने का मतलब तेल पर निर्भर मुल्कों के लिए खुदकुशी के बराबर है। क्योंकि दुनिया की 20 फीसदी तेल इसी रास्ते से गुज़रता है, जब तक शाह पहेलवी मुल्क पर काबिज़ रहे तब तक ईरान ना सिर्फ अमेरिका के लिए बाज़ार था बल्कि ज़्यादातर तेल और गैस संसाधनों पर उसका कब्ज़ा भी रहा। इस दौरान अमेरिका ने ईरान का जमकर इस्तेमाल किया और अपनी इसी दोस्ती के बल पर कई बड़े कूतनीतिक फैसले किए, जिसने उसे सुपर पॉवर से भी पावरफुल बना दिया।

सदियों से गरीबी का दंश झेल रहे अरब देशों में तेल और गैस के भंडार किसी नेमत की तरह निकले थे, जो उनकी गरीबी और पिछड़ेपन को दूर करने जा रहे थे। मगर ऊपरवाले की इन नेमतों पर नज़र पश्चिमी देशों की भी थी, क्योंकि दो दो विश्वयुद्ध लड़ने के बाद किसी खास देश की नहीं बल्कि पूरी दुनिया की ही अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी थी। हर कोई अरब देशों में फूटी इस तेल की गंगा में हाथ धो लेना चाहता था। खासकर अमेरिका, ब्रिटेन और सोवियत यूनियन, मगर 50 के दशक में अमेरिका सुपर पॉवर बन चुका था लिहाज़ा दुनिया के हर कोने में उसने दखल देना शुरू कर दिया। कुछ जगहों पर उसे कामयाबी मिली लेकिन ईरान में वो नाकामयाब रहा। क्योंकि यहां अब एक ऐसा नेता आने वाला था जिसके सामने उसकी दाल गलनी नामुमकिन थी।

1 फ़रवरी, 1979 को फ्रांस की राजधानी पेरिस के चार्ल्स द गाल एयरपोर्ट से बोइंग 747 ने तेहरान के लिए टेक ऑफ़ किया, पेरिस से उड़ा ये विशेष विमान था। क्योंकि तेहरान में लैंड करते ही ये ईरान के इतिहास को बदलने जा रहा था। बोइंग पर सवार थे आयतुल्ला रोहुल्लाह ख़ुमैनी। ईरान के शाह के खिलाफ़ दो दशकों से छिड़ी विद्रोह की क्रांति के महानायक, 14 सालों तक पहले निर्वासन में रहने के बाद ख़ुमैनी अपने वतन लौट रहे थे। जहां करोड़ों लोगों का हुजूम उनके खैरमक़दम के लिए पागल हुआ जा रहा था।

शाह की नीतियों से तंग आ चुके ईरान के लाखों आम लोगों ने साल 1978 में आखिरी रण क्षेड़ दिया, क्योंकि ईरानी संसाधनों से कमाई तो बेतहाशा हो रही थी मगर वो गरीबों तक ना पहुंचकर शाह पहेलवी और अमेरिका का खज़ाना भर रही थी। नेताओं को जेल में ठूंस दिया गया, अखबार में वही छपता जो शाह चाहता था। कुल मिलाकर ईरान में इमरजेंसी जैसे हालात थे, जिससे तंग आकर अक्टूबर 1977 में छात्रों ने ईरान की सड़कों पर प्रदर्शन शुरू कर दिया। शाह की आतंरिक सुरक्षा एजेंसी सवाक ने लोगों पर यलगार बोल दिया और सैकड़ों लोग मारे गए। मगर इस आंदोलन को जितना दबाया गया ये उतना ही बढ़ता गया, इस दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर और उनकी सेना शाह के सपोर्ट में खड़ी रही।

करीब एक साल चली इस क्रांति के बाद शाह पहेलवी को अब समझ आ गया था कि ईरान से उसके जाने का वक्त आ गया है। और शाहपुर बख़्तियार को प्रधानमंत्री बनाकर शाह पहेलवी इलाज के बहाने अमेरिका चला गया। जिसके बाद 1 फ़रवरी, 1979 को ईरान की राजधानी तेहरान के ऊपर बीस मिनटों तक चक्कर लगाने के बाद आखिरकार मेहराबाद एयरपोर्ट एक विमान ने रन-वे पर लैंड किया, औऱ चंद लम्हे में बोइंग 747 के पायलट के हाथों का सहारा लिए हुए नज़र आए आयतुल्लाह ख़ुमैनी। लोगों की इस अथाह भीड़ ने उनका ऐतिहासिक स्वागत किया।

इस तरह ईरान को शाह के शासन से मुक्ति तो मिल गई, मगर नई हुकूमत ने बनने से पहले ही अमेरिका से दुश्मनी मोल ले ली। अमेरिका तमाम तरीकों से ईरान की नई सरकार पर दबाव बनाने लगा, शाह को वापस ईरान ना भेजने को लेकर लोगों का गुस्सा अमेरिका पर था ही, वहीं उसके फैसलों ने ईरान के लोगों में और गुस्सा भर दिया। नतीजतन छात्रों के एक गुट ने तेहरान में अमेरिकी दूतावास के 52 अमेरिकी लोगों को 444 दिनों तक बंधक बनाए रखा। ये उस शाह पहेलवी के खिलाफ ईरान में मुकदमा चलाने की मांग कर रहे थे जिसे अमेरिका ने शरण दे रखी थी। हालांकि बाद में अल्जीरिया की मध्यस्था के बाद उन्हें छोड़ दिया गया, मगर इसका बदला अमेरिका ने इराक के ज़रिए ईरान पर हमला करवा कर के लिया और ये जंग आठ लंबे सालों तक चली, नतीजतन ईरान की इकॉनमी धराशाही हो गई।

ईरानी क्रांति से शुरू हुई अमेरिका और ईरान की दुश्मनी अभी तक जारी है, पिछले 40 सालों से अमेरिका ने ईरान को झुकाने के लिए उसपर तमाम तरह की आर्थिक पाबंदियां लगा रखी हैं, जिसकी वजह से तेल और गैस का अकूत भंडार होने के बावजूद भी ईरान की अर्थव्यवस्था काल के गर्त में गिरती चली जा रही है। बावजूद इसके ईरान ने अमेरिका के सामने झुकने से इंकार कर दिया, हालांकि साल 2015 में बराक ओबामा और हसन रोहानी के बीच पी-5 प्लस वन समझौता हुआ जिसमें सिक्युरिटी काउंसिल के स्थायी सदस्य यानी पी-5 देश जैसे अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रशिया, चीन के अलावा जर्मनी शामिल था, जिसके तहत ये समझौता हुआ कि ईरान अपना परमाणु कार्यक्रम बंद करेगा और उसके बदले में ये तमाम देश उससे आर्थिक प्रतिबंध हटा लेंगे।

हालांकि अमेरिका में सरकार बदलते ही डोनल्ड ट्रंप ने इस समझौते से खुद को अलग कर लिया और तब से ही अमेरिका सऊदी अरब-इज़राइल जैसे देशों के दबाव में ईरान पर हमले के बहाने ढूंढ रहा है। इसकी दो वजह हैं- पहली तो ये कि अमेरिका ईरान के तेल और गैस के खनिजों पर अपना कंट्रोल चाहता है और दूसरी वजह ये है कि सऊदी अरब और इज़राइल जैसे देश चाहते हैं कि ईरान अरब क्षेत्र में मज़बूत ना हो पाए, क्योंकि वो उनके लिए खतरा बन सकता है। पिछले 40 सालों में ऐसे कई मौके आए जब लगा कि ईरान अमेरिका के सामने घुटने टेक देगा, वरना अमेरिका ईरान पर हमला कर देगा लेकिन ना तो ईरान ने अब तक अमेरिका के सामने घुटने टेके और ना ही अमेरिका अब तक ईरान पर हमला करने की हिम्मत जुटा पाया।

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