इंटेलीजेंस एजेंसियां ढूंढ रही हैं देश में छुपे स्लीपर सेल, कैसे होती है स्लीपर सेल की पहचान?
indian inteligence agency searching for sleeper cells
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जब जब कोई आतंकी हमला या हमले की साज़िश का खुलासा होता है, तब तब अक्सर जांच में ये सामने आता है कि आरोपी संगठन के स्लीपर सेल ने घटना को अंजाम दिया या अंजाम देने की तैयारी कर रहे थे। मगर ये स्लीपर सेल होता क्या है?
कौन लोग होते हैं स्लीपर सेल?
बार्डर पर दुश्मन सैनिकों पर गोलियां चलाते हैं और बदले में हमारे सैनिक उनपर, इस तरह हमें पता होता है कि हमारे दुश्मन हमारी नज़रों के सामने हैं। लेकिन स्लीपल सेल वो बला है जो देश में अंदर रहकर साज़िश रचते हैं मगर हमें दिखाई भी नहीं देते हैं। स्लीपर सेल यानी जासूसों का वो ग्रुप जो एक शहर में रहकर भी एक दूसरे को नहीं जानते, किसी देश या आतंकवादी गुट के वो आतंकी जो आम लोगों के साथ रहते हैं। मगर किसी को दिखाई नहीं देते, यहां तक कि इन्हें हमले की डेडलाइन भी नहीं दी जाती है। और ये स्लीपिंग मोड में आम लोगों के साथ अपनी ज़िंदगी जीते हैं, ज़रूरत पड़ने पर ही इनका हैंडलर यानी वो इंसान जिसके पास इनकी जानकारी होती है, इन्हें एक्टीवेट करता है। दूसरे लफ्ज़ों में कहें तो ये वो लोग होते हैं जो किसी आतंकी संगठन या देश के मोहरे होते हैं, और ज़रूरी होने पर ही इनसे जानकारी निकलवाई जाती है या हमले करवाए जाते हैं।
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कब दिया जाता है स्लीपर सेल को हमले का निर्देश?
कभी कभी तो इनका स्लीपिंग पीरियड काफी लंबा होता है और ये डिएक्टिवेट मोड पर होते हैं। आसान भाषा में कहें तो किसी को शक न हो इसलिए इनसे कोई काम नहीं करवाया जाता है, मगर ये उस देश या आतंकी संगठन से जुड़े रहते हैं। कई बार इन स्लीपर सेलों को ये तक नहीं मालूम होता है कि वो क्या काम करने जा रहे हैं और किसके लिए करने जा रहे हैं, आतंक की दुनिया में इन्हें डीप कवर एजेंट भी कहा जाता है। स्लीपर सेल बनाने के लिए आतंकी संगठन ऐसे बेदाग और टेक्नोसेवी युवाओं की तलाश करते हैं, जिनके जरिए वे आसानी से किसी भी बड़ी वारदात को अंजाम दे सकें।
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कैसे लोगों को बनाया जाता है स्लीपर सेल?
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पहचान छिपाकर आतंकी संगठनों के लिए काम करने वाले लोगों को स्लीपर सेल में भर्ती किया जाता है, इनका पुलिस में कोई रिकॉर्ड नहीं होता है। स्लीपर सेल का सबसे इंपार्टेंट काम होता है आतंकी संगठन के लोगों को शहर में सिर छिपाने के लिए सुरक्षित ठिकानों की तलाश करना। मीटिंग करने के लिए महफूज़ जगह खोजना और जरूरत पड़ने पर भीड़भाड़ वाले इलाकों में आतंकी हमलों में मदद करना। इतना ही नहीं ये स्लीपर सेल उन आतंकी संगठनों और देश के लिए नए लड़कों की तलाश भी करते रहते हैं। निगरानी से बचने के लिए स्लीपिंग मॉड्यूल वाकी-टाकी का इस्तेमाल करते हैं, जिनकी रेंज ढाई से तीन किलोमीटर तक होती है। ये वाकी-टाकी स्लीपर सेल के लिए सबसे मुफीद साबित होती है, वाकी-टाकी अब माचिस के बराबर के साइज़ में भी आ चुकी है इन्हें आसानी से स्लीपर सेल अपने पास रख सकते हैं। इसके अलावा ये अपने हैंडलर से सोशल नेटवर्किंग के साथ भी इंफार्मेशन को एक्सचेंज करते हैं।
कैसे होती है स्लीपर सेल की पहचान?
मौजूदा वक़्त में दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा ये स्लीपर सेल ही हैं, ये ज़रूरी नहीं है कि ये किसी खास मज़हब से ही ताल्लुक रखें। क्योंकि आतंकी सिर्फ उन्हें ही स्लीपर सेल बनाते हैं जिनकी पहुंच ज़्यादा जगहों पर हों, और उन्हें लालच देकर अपने साथ जोड़ लेते हैं। अब तो आतंकी संगठन ज़्यादातर ऐसे लोगों को अपना स्लीपर सेल बनाते हैं जो उनके मज़हब से ताल्लुक ना रखे ताकि जांच एजेंसियों को उन पर शक़ होने की गुंजाइश ही ना बचे। इसके लिए उन्हें अच्छे खासे पैसे दिए जाते हैं।
जब कोई देश या आतंकवादी गुट हमारे खिलाफ हमला करना चाहता है, तो वो ऐसे लोगों को ढूंढकर निकालता है। जिनके दिल में सरकार के खिलाफ गुस्सा है या बदले की भावना है, और इन लोगों को ढूंढकर तैयार किया जाता है। ताकि ये हमारे खिलाफ आतंकवादी हमला करें और अपनी बदले की भावना को पूरी करें। 9/11 के हमले के बाद अमेरिका की जितनी खुफिया एजेंसी थी, उन्होंने देश से स्लीपर सेलों के सफाए पर ही ज़ोर दिया और उन्होंने अपने देश से इन स्लीपर सेलों को इस तरह से हटाया कि 9/11 के हमले के बाद अमेरिका में उस किस्म का और उस तादाद का हमला फिर कभी नहीं हुआ।
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