तालिब से तालिबान तक... पूरी कहानी

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अफ़ग़ानिस्तान की पहाड़ी और पथरीली ज़मीन की तपिश ने एक बार फिर पूरी दुनिया को झुलसा दिया है। अफ़ग़ानिस्तान की करीब पौने चार करोड़ की आबादी के सामने 2021 में 1998 की तस्वीर एक बार फिर ज़िंदा हो उठी है।

ज़िंदा हो उठी है क्योंकि 23 साल बाद तालिबान फिर लौट आया है। पूरे 20 साल तक अमेरिका ने खुद को अफ़ग़ानिस्तान में झोंक दिया। इन 20 सालों में लगभग 61 लाख करोड़ रुपये फूंक डाले। इन 20 सालों में करीब साढ़े तीन लाख अफ़ग़ानी फ़ौज को तैयार करने के दावे किए गए।

लेकिन 20 सालों के ये सारे दावे तालिबान ने दस दिनों में हवा कर दिए। सिर्फ़ 70 हज़ार तालिबानी लड़ाके अफ़ग़ान के साढ़े तीन लाख सैनिकों पर भारी पड़ गए। और इसके साथ ही अफ़गानिस्तान में 1998 की कहानी 2021 में फिर से दोहरा दी गई। तालिबान लौट आया है। पर सवाल ये है कि 20 साल से सोया तालिबान अचानक कैसे जागा?

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20 साल से सोया तालिबान बिना ख़ून खराबे के क़ाबुल के राष्ट्रपति भवन तक कैसे पहुंच गया? अमेरिका की वो ट्रेनिंग, ट्रेनिंग के नाम पर लाखों करोड़ों रुपये के वो खर्चे, सब कहां गए? ख़ुद अमेरिका अफगान को इस हाल में छोड़ कर क्यों गया? तो पूरी कहानी समझने के लिए 101 साल पुरानी कहानी से शुरुआत करता हूं।

अफ़ग़ानिस्तान की पूरी कहानी

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अंग्रेजों की ग़ुलामी से अफ़ग़ानिस्तान आज़ाद हो चुका था। आज़ादी के बाद अफ़गान में राजशाही शुरू हुई। शाह परिवार की ये राजशाही अगले 54 साल तक चली। अफ़गान के आखिरी राजा मोहम्मद ज़हीर शाह 1973 में बीमार पड़े। इलाज के लिए इटली गए। लेकिन उनके इटली जाते ही उन्हीं के सेनापति दाऊद ख़ान ने तख्तापलट कर दिया। और ख़ुद को अफ़गान का प्रधानमंत्री घोषित कर दिया।

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दाऊद ख़ान ने आवाम से वादा किया वो नया संविधान लाएगा। लेकिन 1977 में दाऊद ख़ान ने संविधान के नाम पर सिंगल पार्टी सिस्टम कायम कर दिया। ताकि वही अकेले सत्ता में रह सके। आवाम ने इसका पुरज़ोर विरोध किया और फिर 1978 में पहली बार अफ़ग़ानिस्तान में सोर क्रांति के नाम से एक आंदोलन शुरू हो गया।

इस क्रांति की अगुवाई की नूर मोहम्मद तारीकी ने। अफ़गानिस्तान की जनता के समर्थन से आख़िरकार क्रांति कामयाब रही और दाऊद ख़ान को कुर्सी छोड़नी पड़ी। अब अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता नूर मोहम्मद तारीकी के हाथ में थी। वो अफ़ग़ानिस्तान के पहले राष्ट्रपति बने।

नूर मोहम्मद ने किया अफ़ग़ानिस्तान का आधुनिकीकरण

नूर मोहम्मद तारीकी तब के यूएसएसआर यानी सोवियत संघ के बेहद क़रीबी माने जाते थे। सोवियत संघ तब एक कम्युनिस्ट देश के तौर पर जाना जाता था। जो धर्म को नहीं मानता। सोवियत संघ के दोस्ती के बाद नूर मोहम्मद ने पहली बार अफगानिस्तान का आधुनिकीकरण करना शुरू किया। इसके तहत स्कूल, कॉलेज, कल-कारखाने शुरू किए गए। और खास तौर पर महिलाओं की आज़ादी और उनकी तालीम पर ज़ोर दिया गया।

इतना ही नहीं सामाजिक सुधार के नाम पर तारीकी सरकार ने अफ़ग़ान के अमीरों की ज़मीन ग़रीबों में बांटने की भी मुहिम शुरू की। नूर मोहम्मद तारीकी की इस आधुनिकीकरण की कोशिश और महिलाओं की आज़ादी अफ़ग़ान के बहुत से क़बीलों को रास नहीं आई। उन्हें ये इस्लाम के ख़िलाफ़ लगा। और बस इसी के बाद मज़हब के नाम पर नूर मोहम्मद तारीकी का विरोध शुरू हो गया।

ये वो दौर था, जब अमेरिका और सोवियत संघ के बीच कोल्ड वॉर चल रहा था। नूर मोहम्मद तारीकी का इस्तेमाल कर सोवियत संघ अफ़गानिस्तान में अपनी पैठ बना रहा था। तो वहीं ठीक उसी वक़्त अमेरिका आधुनिकीकरण के नाम पर ईरान में अपनी पहुंच बना रहा था। अफ़गानिस्तान में सोवियत संघ के बढ़ते दबदबे को देखते हुए अमेरिका ने भी अफ़ग़ान में अपनी ताक़त आज़माने का फ़ैसला किया।

उसने मज़हब के नाम पर नूर मोहम्मद तारीकी का विरोध कर रहे अफ़ग़ानी मुसलमानों को भड़काना शुरू कर दिया। इस काम के लिए अमेरिका ने सीआईए की मदद से नूर मोहम्मद तारीकी के विदेश मंत्री हफ़ीज़ुद्दीन अमीन को अपने साथ मिला लिया। अब हफ़ीज़ुद्दीन अमीन की आड़ में अमेरिका ने नूर मोहम्मद तारीकी की सरकार को मुस्लिम विरोधी साबित करना शुरू कर दिया।

विरोध को हवा देने के लिए अमेरिका ने हफ़ीज़ुद्दीन अमीन को आगे कर अफ़गान के लोगों को मुजाहिदीन बनने के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया। मुजाहिदीन यानी वो लोग जो धर्म के लिए लड़ते हैं। इस काम के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद ली। मुजाहिदीन की ट्रेनिंग पाकिस्तान में होने लगी। हथियारों के लिए पैसे अमेरिका दे रहा था।

और ऐसे ख़त्म हुए नूर मोहम्मद तारीकी

मज़हब के नाम पर ही नूर मोहम्मद तारीकी की सरकार को गिराने के लिए अमेरिका ने सउदी अरब को भी अपने साथ मिला लिया। इसी के बाद सऊदी से बहुत सारे लोग सोवियत संघ और तारीकी सरकार से लड़ने के लिए अफ़ग़ानिस्तान गए। और इन्हीं में से एक था ओसामा बिन लादेन।

उधर, अफ़ग़ानिस्तान के अंदर अलग-अलग क़बीलों के लोगों के अलावा बड़ी तादाद में सोवियत संघ और तारीकी सरकार के खिलाफ़ तालिब यानी छात्रों को भी भड़काया जाने लगा। बहुत से छात्र संगठन भी इस मुहिम से जुड़ गए। इन्हीं में एक तालिब यानी छात्र था उमर। जो इस विरोध आंदोलन में सबसे आगे आगे था। विरोध प्रदर्शन को देखते हुए नूर मोहम्मद तारीकी को सोवियत संघ जाना पड़ा।

वहां सोवियत संघ ने उन्हें सुझाव दिया कि फिलहाल आधुनिकीकरण की इस मुहिम को रोक दें। और शांति से काम लें। सोवियत संघ ने तारीकी को ये भी सुझाव दिया कि वो अपने विदेश मंत्री हफ़ीज़ुद्दीन अमीन को हटा दे, क्योंकि वो सीआईए के लिए काम कर रहे हैं।

पर ख़ुद को हटाए जाने की खबर हफ़ीज़ुद्दीन अमीन को सीआईए ने पहले ही दे दी थी। इसी के बाद नूर मोहम्मद तारीकी जैसे ही सोवियत संघ से क़ाबुल लौटे, हफ़ीज़ुद्दीन अमीन ने लैंड करते ही तारीकी समेत उनके पूरे परिवार का ख़ात्मा कर डाला। इसके बाद हफीजुद्दीन अमीन अफ़गानिस्तान का नया हुक्मरान बन बैठा।

...और सोवियत संघ ने अफ़ग़ानिस्तान पर किया हमला

नूर मोहम्मद तारीकी की मौत से गुस्साए सोवियत संघ ने 25 दिसंबर 1979 को अपनी थल सेना के साथ अफ़गानिस्तान पर हमला कर दिया। रूसी सेना ने काबुल में घुस कर हफीजुद्दीन अमीन को मार डाला। अफ़गान पर रुसी हमले के बाद अब अमेरिका को भी मौक़ा मिल चुका था। अमेरिका ने मुजाहिदीनों को हवा दी और उन्हें रुसी सेना के खिलाफ़ लड़ने को उकसाया।

इस काम के लिए अमेरिका ने मुजाहिदीनों को तमाम हथियार, पैसे और यहां तक कि मिसाइल तक दिया। रूस ने अफगान पर हमला तो कर दिया था, मगर पहाड़ी और पथरीली इलाक़े की वजह से रुसी सेना जल्द ही मुसीबत में आ गई। उनके लिए वहां टिकना आसान नहीं था। एयरफोर्स भी उनकी ज़्यादा मदद नहीं कर पाई।

इधर, मुजाहिदीन पूरी ताक़त से रुसी सैनिकों से लड़ाई लड़ रहे थे। आखिरकार... दस साल की लंबी लड़ाई के बाद 15 फरवरी 1989 को रुसी सेना अफ़गान को उसके हाल पर छोड़ कर वापस लौट गई। पीछे छोड़ गई एक कठपुतली सरकार।

अफ़ग़ानिस्तान में छिड़ा गृह युद्ध

रुसी सेना की वापसी के साथ ही इधर मुजाहिदीन अब आपस में ही लड़ पड़े। मुजाहिदीनों ने अपने-अपने इलाक़े और अपना अपना गुट बना लिया। इसकी वजह से पूरे अफगानिस्तान में गृह युद्ध छिड़ गया। आम लोग परेशान हो उठे। धीरे-धीरे गृह युद्ध में छोटे छोटे गुट हारते गए। और जो विजयी बन कर उभरा, वो था अफ़गानिस्तान के छात्रों का गुट। यानी तालिब।

और तालिब में भी एक नाम जो सबसे ज़्यादा उभर कर आया, वो वो छात्र था जिसने रुसी सैनिकों से सीधे लोहा लिया था। यहां तक कि रुसी सैनिकों के साथ लड़ाई में एक बम धमाके के दौरान उसकी दाहिनी आंख ख़राब हो गई थी। जो रुसी सैनिकों की वापसी के बाद मैदान ए जंग से दूर एक मस्जिद में नमाज़ पढ़ाने लगा था।

जिसकी वजह से लोग उसे मुल्ला भी बुलाने लगे थे। ये वही तालिब उमर था। जो अब मुल्ला उमर बन चुका था। वही मुल्ला उमर जिसने तालिबान को जन्म दिया। वही मुल्ला उमर जिसने 1998 में पहली बार अफगान की सत्ता पर तालिबान को काबिज़ किया।

वही मुल्ला उमर जो ओसामा बिन लादेन का अफ़गानिस्तान में सबसे भरोसेमंद वफादार साथी था। वही मुल्ला उमर जिस पर अमेरिका ने एक करोड़ डॉलर का इनाम रखा था। तालिबान को पैदा करने वाले मुल्ला उमर की 2013 में मौत हो चुकी है। लेकिन तालिबान 2021 में फिर ज़िंदा हो उठा।

...और 20 साल बाद फिर तालिबान का क़ब्ज़ा

तो कुल मिलाकर, कहानी और कहानी की हक़ीक़त ये है कि सोवियत संघ को हराने के लिए अमेरिका ने अफ़गानिस्तान में पहले मुजाहिदीनों की खेप तैयार की। फिर तालिबान को पैदा किया। फिर उसी तालिबान के ख़ात्मे के लिए क़रीब 20 साल तक अफ़गान पहाड़ी और पथरीली ज़मीन की खाक छानी। सैकड़ों हज़ारों सैनिकों को गंवाया।

61 लाख करोड़ रुपये खर्च किए। पर अफ़सोस ये सब बेकार गए। बीस साल पहले तालिबान की सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए 2001 में पहली बार अमेरिकी सैनिकों ने अफ़ग़ानिस्तान की सरज़मीन पर क़दम रखा था। आज बीस साल बाद कुछ हज़ार अमेरिकी सैनिक अब भी अफ़गानिस्तान की सरजमीन पर हैं। और अफ़गान की उसी सरज़मीन पर बीस साल बाद एक बार फिर तालिबान का क़ब्ज़ा है

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