15 AUGUST SPECIAL : पहले क्रांतिकारी जिन्हें फांसी का ऐलान हुआ तो खुशी में बढ़ गया था 5 किलो वजन, ये है शहीद बंता सिंह की कहानी
15 AUGUST SPECIAL The story of Banta Singh The first revolutionary who was announced to be hanged, had increased his weight by 5 kg in happiness
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India's greatest revolutionary freedom fighters Banta Singh Story :
ये कहानी एक ऐसे क्रांतिकारी देशभक्त की है जो निहत्थे भी खड़े होते थे तो अंग्रेज कांपने लगते थे. बेशक हथियार अंग्रेजों के हाथ में होते थे लेकिन डर भी उन्हें ही रहता था. आंखों के सामने अंग्रेज कभी उन्हें पकड़ नहीं सके.
आख़िर में पकड़े भी गए तो क़रीबी रिश्तेदार की मुखबिरी की वजह से. वो भी तब जब उन्हें गहरी चोट लगी थी. घर में बिस्तर पर थे. लेकिन फिर अंग्रेजों में ख़ौफ था. दर्जनों की संख्या में अंग्रेज अचानक घर में घुसे और लोहे की बेड़ियां पहनाकर बाहर ले आए. फिर भी रास्ते में डर अंग्रेजों में ही था. लेकिन वो हंसते हुए जेल गए.
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जेल में भी अंग्रेजों की नींद गायब थी. और ये खुश थे कि शहीद होंगे तो देश के लिए. इसलिए जब 50 दिन बाद जब इस क्रांतिकारी को फांसी दी गई तो उनका वजन घटने के बजाय 5 किलो बढ़ गया था. क्योंकि उन्हें शहीद होने का रत्ती भर का ग़म नहीं था.
खुशी इस बात की थी कि आख़िरी वक़्त तक अंग्रेजों की हिम्मत नहीं हुई थी कि उन्हें सामने से पकड़ सके. इनके अपने रिश्तेदार ने झूठी कसम देकर अंग्रेजों के लालच में फंसकर गिरफ्तार कराया था. ये वीर सपूत थे सरदार बंता सिंह संघवाल. महज 25 साल की उम्र में ही इन्हें फांसी हुई थी.
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1890 में जालंधर के गांव संघवाल में हुआ था जन्म
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इनका जन्म जालंधर जिले के गांव संघवाल में 1890 में हुआ था. बंता सिंह के बचपन का नाम बलवंत सिंह था. इनका परिवार काफी धनी थी. पिता बूटा सिंह और माता गुजरी ने बंता सिंह की पढ़ाई गांव में ही कराई. 10वीं के बाद आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका चले गए. यहां पहुंचे तो अंगेज इन्हें ताने देते थे.
भारतीयों को अंग्रेजों का ग़ुलाम कहते थे. इसी बात से नाराज बंता सिंह ने अमेरिका में बनाई हुई गदर पार्टी में शामिल हो गए. गदर पार्टी को भारतीय क्रांतिकारी बाबा सोहन सिंह भकना ने बनाई थी. इस पार्टी के जरिए अमेरिका में रहकर कई अखबार भी प्रकाशित किए जाते थे और आजादी की लड़ाई की तैयारी की जाती थी.
1913 में अमेरिका से लौटे थे भारत
अमेरिका में क्रांतिकारी का पाठ सीख चुके बंता सिंह वर्ष 1913 में भारत लौटे. यहां आते ही क्रांतिकारी बनकर अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाने लगे. इसकी शुरुआत इन्होंने अपने गांव और आसपास के इलाक़े से की.
उनके विचारों से प्रभावित होकर एक संगठन बना लिया गया था. गांव संघवाल में पंचायत का गठन कर सरकार विरुद्ध प्रचार करना शुरू किया गया. अंग्रेजों पर निर्भरता खत्म की. और खुद ही गांव में पशुओं का अस्पताल खोला.
बच्चों के पढ़ने के लिए एक स्कूल और लाइब्रेरी भी खोली. हत्या के केस को छोड़कर गांव की पंचायत में ही दूसरे मुकदमों का फैसला लेने लगे. यानी एक तरह से अपनी हुकूमत चलाने लगे थे.
थानेदार को सिर में मारी थी गोली
बताया जाता है कि बंता सिंह एक बार लाहौर के अनारकली बाजार में गए थे. वहां के थानेदार को उनके क्रांतिकारी होने का शक हो गया. लिहाजा, वो उनके पास आया और तलाशी लेने का प्रयास किया. बंता सिंह ने उसे मना किया. लेकिन वो नहीं माना.
उसने सोचा कि मैं कोतवाल हूं. और ये सामान्य भारतीय. क्या कर लेगा? यही सोचकर वो जबरन तलाशी लेने की सोचा. तभी उसकी जिद देखकर बंता सिंह ने आव देखा न ताव, बस पिस्टल निकाली और उसके सिर में मार दी गोली. और थानेदार का काम वहीं तमाम हो गया.
जेलर को उसके घर में घुसकर मारी थी गोली
फिर तो इसके बाद इनके नाम से ही पुलिस वाले कांपने लगे थे. किसी की हिम्मत नहीं थी कि बंता सिंह के सामने आए. इसलिए कई सीनियर पुलिसवाले इनके पीछे पड़ गए. एक दिन अंग्रेज पुलिसवालों ने बंता सिंह के सबसे प्रमुख साथी प्यारा सिंह को दबोच लिया.
इस बारे में पता लगाया तो जानकारी हुई कि जेलर चंदा सिंह का इसके पीछे हाथ है. फिर क्या था. 25 अप्रैल 1915 को बंता सिंह अपनी टीम के साथ जेलर के घर में घुस गए. शेर की दहाड़ लगाते हुए उस जेलर को उसके घर में ही ढेर कर दिया. अब बंता सिंह अंग्रेजों की आंखों में किरकिरी की तरह बन चुके थे.
काकोरी की तरह इन्होंने भी लूटी थी ट्रेन
गदर पार्टी के जरिए ये पूरे देश में क्रांति की मसाल जलाना चाहते थे. लेकिन इसके लिए भारी मात्रा में हथियार की जरूरत थी. इनके पास बहुत कम मात्रा में हथियार थे. कई बार तो ये निहत्थे ही पुलिसवालों से भिड़ जाते थे. और उन्हीं की बंदूक से अंग्रेजों को ही ढेर कर देते थे. इसलिए बड़ी मात्रा में हथियारों के लिए ट्रेन लूटने की योजना बनाई.
उन दिनों क्रांतिकारियों के डर से रेलगाड़ियों के साथ कुछ सुरक्षाकर्मी भी चलते थे. इनके इलाक़े से एक गाड़ी तड़के 4 बजे गुजरती थी. वैसे तो इसकी स्पीड ज्यादा होती थी लेकिन जब ये बल्ला पुल पर जाती थी तो स्पीड कम करनी होती थी.
इसलिए साजिश के अनुसार 12 जून 1915 को पुल से ठीक पहले वाले स्टेशन से रात में ये लोग ट्रेन में सवार हो गए. और जैसे ही पुल आया तो सुरक्षाकर्मियों पर हमला कर दिया. इसके बाद हथियार लूटकर ये लोग धीमी चल रही ट्रेन से कूदकर भाग निकले थे.
70 किमी पैदल भागते हुए पैर हुए लहूलुहान
ट्रेन लूटने के बाद अंग्रेजों में हड़कंप मच गया. उसी समय से इनका पीछा शुरू हो गया. लेकिन ये भी कम नहीं थे. 70 किमी तक भागते हुए अपने एक रिश्तेदार के घर पहुंचे. इतना भागने की वजह से इनके पैर बुरी तरह से लहूलुहान हो गए थे.
तबीयत भी बिगड़ गई थी. इसलिए रिश्तेदार ने घर में रुककर आराम करने को कहा तो वे मान गए. लेकिन इधर अंग्रेजों ने बंता सिंह को पकड़वाने वाले के लिए काफी ईनाम देने की घोषणा कर दी. इसी लालच में आकर रिश्तेदार ने चुपके से मुखबिरी कर दी.
पुलिस को देख डरे नहीं, हंसने लगे थे बंता सिंह
रिश्तेदार की मुखबिरी के बाद कई दर्जन पुलिसवाले घर में घुस आए. पुलिस को देखते ही बंता सिंह डरे नहीं बल्कि हंसने लगे. वो समझ गए कि रिश्तेदार की मुखबिरी की वजह से पुलिस आई है.
उन्होंने पुलिस दल को देखकर ठहाका लगाया और उस रिश्तेदार से कहा, अगर मुझे पकड़वाना ही था तो मेरे हाथ में कम से कम एक लाठी तो दे दी होती. मैं भी अपने दिल के अरमान निकाल लेता. किसी को नहीं छोड़ता.
लेकिन अब पुलिसवालों ने चारों तरफ से घेर लिया. बंता सिंह तो बिस्तर पर लेटे थे. अंग्रेजों के आदेश पर इन्हें हथकड़ी और पैरों में बेड़ियां पहनाई गई. इनकी गिरफ्तारी का समाचार मिलते ही उनके दर्शन के लिए आसपास के सैकड़ों-हजारों लोग सड़क पर निकल आए.
हथकड़ी और बेड़ियों में जकड़े बंता सिंह को देखकर भारत माता की जय के नारे लगने लगे. इस पर बंता सिंह ने कहा था कि, मेरा बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा. कुछ समय बाद ही ये अंग्रेज आपके पैरों पर लोटते नजर आएंगे. ये कहते ही फिर से ‘भारत माता की जय’ और ‘बंता सिंह जिंदाबाद’ के नारे लगने लगे थे.
गिरफ्तारी के 50 दिनों बाद हुई फांसी
बंता सिंह को 25 जून 1915 को गिरफ्तार किया गया था. उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया. 12 अगस्त, 1915 को फांसी दे दी गई. यानी अब से करीब 106 साल पहले. लेकिन जब फांसी से पहले अंग्रेजों ने उनका वजन किया तो देखकर दंग रह गए थे. उनका वजन घटने के बजाय करीब 5 किलो बढ़ गया था.
ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी को फांसी देने के लिए एक महीने से ज्यादा जेल में रखा गया हो और उसका वजन कम होने के बजाय बढ़ गया हो. इस पर अंग्रेजों ने पूछा भी था तो बंता सिंह ने कहा था कि उन्हें इस बात की इतनी खुशी थी कि वो अपनी भारत माता के लिए शहीद होने वाले हैं. इस खुशी में उनका वजन बढ़ गया था.
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