WOMEN'S DAY SPECIAL : एक खूबसूरत हिंदुस्तानी जासूस जिसने खूंखार हिटलर को बर्बाद कर दिया
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Spy Story in Hindi : एक हिन्दुस्तानी राजकुमारी, जो जितनी खूबसूरत थी उतनी ही थी जाबांज़। जिसकी रगो में दौड़ता था एक महान योद्धा का खून और वो योद्धा था मैसूर का शेर, वीर टीपू सुल्तान। टीपू सुल्तान की इस वंशज की बहादुरी से कांप गई थी हिटलर की सेना। वो हिंदुस्तानी राजकुमारी इतनी मजबूत थी कि हिटलर के सैनिकों का हर जुल्म सहती रही लेकिन अपना मुंह तक नहीं खोला।
देशभक्ति उसके रग रग में थी और देश के खातिर ही उसने कर दी अपनी जान कुर्बान। ये कहानी अनसुनी है, ये राजकुमारी अनजानी है। लेकिन उस वीरांगना की कहानी आज जब आप सुनेंगे तो गर्व से आपका सीना भी चौडा हो जाएगा। एक हिन्दुस्तानी राजकुमारी जिसने विदेशी धरती पर भी हिन्दुस्तानी खून का मान रखा।
Crime Stories in Hindi : ये कहानी है नूर इनायत खान की, खूबसूरत राजकुमारी नूर ने अपनी जासूसी से कैसे हिटलर की नींद उड़ाई ये हम आपको ज़रुर बताएंगे लेकिन पहले जान लीजिए कैसा था उसका बचपन और कैसे उसने रखा जासूसी की दुनिया में कदम।
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11 सितम्बर 1944
फोरझेम जेल, जर्मनी
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बेडियों में बंधा पूरा शरीर, उपर से कई दिनों से भूखी थी वो। जर्मन सैनिकों ने उसे सबसे खतरनाक कैदी का दर्जा दिया था। कई दिनों के टार्चर का एहसास उसकी आंखों में देखा जा सकता था, कई दिनों से अकेली वो इस काल कोठरी में थी। रजिस्टर में इस युवती का नाम दर्ज था नोरा बेकर, लेकिन विदेशी नाम वाली इस लड़की का असली नाम था नूर इनायत खां।
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जर्मनी की उस काल कोठरी की तन्हाइयों में नूर को अपनी जिंदगी के गुजरे पल याद आ रहे थे, उस वीणा की तान सुनाई दे रही थी जो बचपन से उसकी सबसे करीबी साथी थी। अपने पिता की गोद, मां का साथ सबकुछ उसकी आंखों के सामने घूम रहा था और कानों में एक आवाज़ गूंज रही थी बाबुली।
बाबुली, इसी नाम से बुलाते थे पीर इनायत खां नूर को। देश से दूर होने के बाद भी बच्चों में अपनी मिट्टी की पहचान कायम रहे इसलिए घर का माहौल पूरी तरह हिन्दुस्तानी था। पेरिस के बाहरी इलाके में बना था फज़ल मंजिल, इस घर में सबकुछ हिन्दुस्तानी था।
पीर इनायत खां टीपू सुल्तान के वंशज थे, लेकिन उन्हे तलवार का नहीं संगीत का शौक था। और यही शौक उन्हे उन्हें विदेश ले गया और अमेरिका की यात्रा में ही उनकी मुलाकात हुई ओरा रे बेकर से। जिससे उन्होने शादी कर ली, इनयात और ओरा की चौथी संतान थी नूर।
Crime Stories in Hindi : जिसे नूर इनायत खान को आज सारी दुनिया एक जाबांज जासूस के नाम से जानती है उसकी पहली मोहब्बत तो संगीत थी, 13 साल की उम्र में पिता की मौत के बाद परिवार की पूरी जिम्मेदारी नूर पर आ गई। अपने भाई बहनों को नूर ने मां और बाप दोनों का प्यार दिया, बच्चों की कहानियां लिखकर वो अपना परिवार चलाती थी।
लेकिन नाजुक सी नूर की दुनिया अब बदलने वाली थी, क्योंकि दुनिया पर मंडरा रहे थे युद्ध के बादल। वीर टीपू सुल्तान के खून का असर अब नूर पर हावी होने वाला था, जंग, वीरता और जासूसी की दुनिया अब नूर का इंतज़ार कर रही थी। नूर की ज़िंदगी मे ऐसा मोड़ आने वाला था जिसके बाद वो बन गई हिटलर की जर्मन फौज की सबसे बड़ी दुश्मन।
नूर इनायत खान की कहानी एक औरत की ताकत की सबसे बडी मिसाल है, जिस लड़की को संगीत की मीठी धुनों से प्यार हो वो गोलियों और बमों के बीच। दुश्मन के खेमे में घुसकर उसे तबाह कराने की ताकत रखती है, नूर ने अपने दिमाग की ताकत और हुनर से नाजी सेना की नाक में दम कर दिया और बन गई हिटलर की सबसे बडी दुश्मन।
22 जून 1940
दूसरे विश्वयुद्ध का आगाज हो चुका था, पौलेंड को फतह करने के बाद अब जर्मनी की सेनाएं फ्रांस पर कब्जे के लिए बढ रही थीं। पेरिस के बाहरी इलाके में फज़ल मंजिल में मौजूद नूर का परिवार भी अपने घर को छोड़ इंग्लैंड पहुंच गया था, मित्र राष्ट्रों की सेनाएं फ्रांस को आजाद कराने के कोशिश में लगी थी। अपने देश के छूटने का गम नूर और उनके छोटे भाई विलायत को साल रहा था।
दोनों ने ठान लिया था कि वो दुश्मन के कब्जे से फ्रांस को आजाद कराएंगे, नूर इंग्लैंड की नागरिक थी लेकिन उनकी विरासत फ्रांस के करीब थी। इतिहास गवाह है कि अंग्रेज़ों से युद्ध में फ्रांस ने टीपू सुल्तान की मदद की थी, लेकिन अब पूरे डेढ़ सौ साल बाद अहसान चुकाने की बारी टीपू सुल्तान की परपोती नूर की थी। नूर ने फ्रांस की मदद के लिए आखिरकार सेना में जाने का फैसला किया, विलायत इंग्लैंड में रॉयल नेवी से जुड गए तो 19 नवंबर 1940 को नूर भी वूमेन्स आक्सिलेरी एअर फोर्स का हिस्सा बन गईं।
उन्हें यहां वायरलेस आपरेटर का काम मिला, पूरे दो साल बाद नूर को एक बड़ी जिम्मेदारी दी गई जो बहुत खतरनाक थी। नूर हिस्सा बन गई स्पेशल आपरेशन एक्जीक्यूटिव की टीम का और बन गईं इंग्लैंड की जासूस, उस ज़माने में एसओई की टीम कई खतरनाक कामों को अंजाम देती थी और इस ग्रुप के साथ जुडने के बाद इसके सदस्य सिर्फ चार से छह हफ्ते ही जिंदा रह पाते। लेकिन नाजी जर्मनी को सबक सिखाने के लिए नूर कोई भी जोखिम उठाने को तैयार थीं।
16 जून 1943
द्वितीय विश्वयुद्ध जोरों पर था, पूरे पेरिस पर नाज़ी झंडा लहरा रहा था, और कदम कदम पर थे हिटलर के जासूस। ऐसे माहौल में पेरिस के एक बाहरी इलाके में ब्रिटेन ने नोरा बेकर नामक एक महिला जासूस को रात के घुप्प अंधेरे में उतारा।
ये नोरा बेकर कोई और नहीं बल्कि नूर इनायत खान थी, जासूसी की दुनिया मे ये नूर का नया नाम था। घर छोड़ने के करीब 3 साल बाद वो यहां वापस लौटी थी, लेकिन इस बार वो नाजुक नूर नहीं एसओई की अंडर कवर एजेंट थी जिसका मिशन था दुश्मन के किले में सेंध लगाना।
पेरिस के उस बाहरी इलाके में उतरते ही उसने सबसे पहला काम आसपास की टोह लेने का किया। सब कुछ सुरक्षित पाने के बाद उसने यात्रा शुरू की किसी अच्छे स्थान की तलाश में। किस्मत की बात है कि आसपास ही उसे कुछ खंडहर दिख गए। उसने वही जाकर सूटकेस खोला, वायरलैस सैट खोला और संदेश भेजा कि वह हिफाज़त के साथ दुश्मनों के बीच पहुंच गई है।
उसे मालूम था कि गैस्टापो के गश्ती दल मोटरों पर वायरलैस सैट खोजी यंत्रों को लगाकर निकलते हैं, इसलिए उसने उसे जल्दी से फिर से सूटकेस में रखा और जगह की ओर चल प़डी, जहां उसके साथी उसे मिल सकते थे, जिन्हें पहले ही उसके आने की खबर भेजी जा चुकी थी। जल्द ही नूर जाबांज जासूस बन गई, पेरिस में नूर ने जासूसी के उन कारनामों को अंजाम दिया कि हिटलर तक हिल गया।
नूर की बदौलत जर्मनी की एक से ब़ढकर एक खुफिया जानकारी मित्र राष्ट्रो तक पहुंचने लगी, यही वजह थी कि हिटलर की सबसे खूंखार सेना ‘गैस्टापो’ मोस्ट वांटेल लिस्ट में नूर का नाम सबसे उपर आ गया।
इसी बीच ब्रिटिश जासूसी दल का एक सदस्य पक़डा गया और उसने सभी नूर समेत सभी साथियों के नाम बता दिए। सभी पक़डे भी गए, मगर नूर गैस्टापो की पक़ड में नहीं आई। वो छुप कर अपना काम करती रही, दुश्मन उसके पीछे प़डा रहा लेकिन फिर भी वो उसकी पकड में नहीं आई। ब्रिटिश और फ्रांसिस अधिकारियो ने नूर को पेरिस छोड़ने की सलाह दी, लेकिन जिसकी रगो में टीपू सुल्तान का खून दौड़ता हो वो कैसे डर जाती।
नूर ने खतरों से खेलना नहीं छोड़ा, लेकिन नूर बहुत दिनो तक नहीं बच पाई। आखिरकार वो गैस्टापो की गिरफ्त में आ गई और यहीं से शुरु हुआ नूर इनायत खां की परीक्षा का दौर, लेकिन टीपू सुल्तान का खून इतनी आसानी से हार नहीं मानता। वो लड़ता है और अपने मिशन के लिए जान की बाज़ी लगा देता है, यही साबित किया नूर ने।
हिटलर की सबसे बड़ी दुश्मन बन चुकी नूर अब नाजियों की गिरफ्त में थी, उसे सबसे खतरनाक कैदी का दर्जा दिया गया था। जाबांज जासूस नूर के पास कई महत्वपूर्ण जानकारियां थी, गैस्टापो ने नूर को तमाम यातनाएं दी लेकिन उसकी जुबान नहीं खुलवा पाए। पेरिस के जिस यातनाग्रह में उसे बंद किया गया था, उसके साथ के कमरों में दो ब्रिटिश जासूस और बंद थे।
नूर एक चालाक और बहादुर जासूस थी, उसने हिम्मत नहीं हारी और अपने साथ बंद ब्रिटिश जासूसों के साथ बना लिए एक खतरनाक प्लान। एक दिन रौशनदान की सलाखों को तोड़कर तैयार किया गया रास्ता और वो रात भी आई जब नूर समेत तीनों जासूस जेल से भाग निकले, लेकिन किस्मत नूर के साथ नहीं थी।
उनके निकलने का गैस्टापो को पता चल गया और उन्हें फिर पकड लिया गया, नूर पर यातनाओं का सिलसिला फिर चल पडा, लेकिन नाजी अधिकारी नूर से इतना डरते थे कि उन्होने नूर को जर्मनी भेज दिया। 1944 की शुरुआत में उसे जर्मनी की फोरझेम जेल लाया गया, यहां पर भी उसे बहुत बुरी तरह टार्चर किया गया।
इस दौरान उस पर मुकदमा भी चलाया गया, फैसला सबको पता था। करीब 10 महीने यहां रखने के बाद उसे 1 सितम्बर को यहां से रवाना कर दिया, नूर ने इस सफर में आखिरी बार दुनिया को देखा क्योंकि जिस जगह उसे ले जाया जा रहा था वहां से कोई कभी वापस नहीं लौटा।
1 सितम्बर 1944
उशाउ कनसन्ट्रेशन कैम्प
ये वो जगह थी जिसे हिटलर ने खासतौर से बनाया था, इस जगह का इस्तेमाल यातना देने के लिए किया जाता था। इस कैम्प में हिटलर ने हजारों युद्धबंदियों और यहूदियों को गोली मरवा दी थी, कंटीले तारों से घिरी ऊंची ऊंची दीवारों को देखकर नूर को ये एहसास हो गया कि उसके पास अब ज्यादा वक्त नहीं है।
1933 से लेकर 1945 तक करीब 30000 लोगों को यहां मौत के घाट उतारा गया था, नूर के साथ यहां तीन और जासूसो को लाया गया था। एक बार फिर यातना का दौर चला, हर रात को जूतों की बट से उसे मारा जाता लेकिन नूर सबकुछ सहती रही लेकिन उसने जुबान नहीं खोली। जर्मन सैनिकों को लग गया कि इससे कुछ भी उगलवा पाना अब नामुमकिन है, एक एक कर नूर के सारे साथियों को गोली मार दी गई लेकिन नूर को जिंदा रखा गया।
13 सितम्बर 1944
नूर को कंनसनट्रेशन कैंप में आए दस दिन से ज्यादा का वक्त हो चुका था लेकिन इस रात को उसे एहसास हो गया था कि अब उसकी जिंदगी के दिन गिने चुने ही हैं, 12 तारीख की रात में एक बार फिर उसे तमाम यातनाएं दी गई। वो मौत मांग रही थी लेकिन खूंखार जर्मन सैनिक उसे किसी भी हालत में बख्शने को तैयार नहीं थे, आखिरकार यातना की सीमा जब पार हो गई तो उसके सिर पर बंदूक रखकर उसे मौत के घाट उतार दिया गया।
कंसन्ट्रेशन कैंप के ओवन में ही उसकी लाश को डाल दिया गया, ये एक बहादुर महिला की मौत थी। देश के लिए शहादत का जो सिलसिला नूर के परदादा टीपू सुल्तान ने शुरु किया था उसे अंजाम तक पहुंचा दिया नूर इनायत खां ने। नूर इनायत खां खत्म हो गई लेकिन उसकी बहादुरी को आज भी फ्रांस और इंग्लैंड में लोग सलाम करते हैं, ये थी एक नाजुक राजकुमारी से एक बहादुर नायिका बनने की नूर इनायत खां की दास्तान।
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