दो आदमखोर शेर जिन्होंने 135 लोगों को कच्चा चबाया!

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दो आदमखोर शेर जिन्होंने 135 लोगों को कच्चा चबाया!
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दो खूनी शेरों की सच्ची कहानी, जिनके मुंह लग चुका था इंसानी खून। जिन्होंने सिर्फ 9 महीने में 135 इंसान को चबा डाला। वो जब जब जंगल से बाहर निकलते थे उनकी दहाड़ से पूरा का पूरा अफ्रीका थर्र-थर्र कांपने लगता था। उनके चंगुल में जो कोई आया बच नहीं पाया, जब उनकी गुफाओं तक पहुंचा गया तो वहां लगा हुआ था इंसानी कंकालों का ढ़ेर।

वो खूंखार इतने बेरहम थे कि अपने शिकार पर एक बार पंजा गड़ाने लें तो उसे किसी भी कीमत पर आज़ाद नहीं होने देते थे। उनके चंगुल से बच पाना नामुम्किन था, करीब 9 फीट 8 इंच लंबे वो दोनों आदमखोर शेर जब किसी के सामने आते, तो अच्छे अच्छों की हिम्मत जवाब दे देती। बंदूक थामें शिकारी को भी पसीना आ जाता था, उनका शिकार करना तो दूर उन्हें देखकर ही शिकारी अपनी जगह पर जम जाता।

अफ्रीकी देश केन्या (Kenya) औऱ उगांडा (Uganda) के बीच बने घने जंगलों में साओ नदी के पास उन आदमखोरों ने अपना ठिकाना बना रखा था। और यहीं पर दोनो आदमखोर शेर इंसानी मांस की अपनी भूख मिटाते थे, दोनों शेरों को जो भी इंसान इस नदी के पास दिखाई देता। वो उसे मारकर खा जाते लेकिन सवाल ये था कि इन आदमखोरों के मौत के तांडव के बाद भी, कोई इंसान उन जंगलों के पास क्यों जाते थे? इसे समझने के लिए हमें इस कहानी को शुरु से समझना होगा।

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वो साल था सन 1898, केन्या के जंगल में साओ नदी पर रेल ब्रिज बनवाने का काम चल रहा था, मार्च के महीने में यहां हज़ारों की तादाद में मज़दूर पहुंच रहे थे। इनमें भारतीय मज़दूर भी शामिल थे, लेकिन उन मज़दूरों को कहां पता था कि जहां वो जा रहे हैं वहां एक नहीं दो-दो यमराज उनका इंतेज़ार कर रहे हैं।

मज़दूरों ने साओ नदीं के किनारे ही टेंट में अपना बसेरा बनाया, वहीं दूसरी तरफ इतने इंसानों को देखकर दोनों आदमखोर शेरों के मुंह में पानी आ रहा था। मज़दूरों के वहां आने के कुछ ही दिन बाद ही रात के अंधेरे में दोनों आदमखोर शेरों ने अपना पहला शिकार किया। और इसके बाद तो आए दिन एक-एक कर मज़दूरों का शिकार होने लगा, रात के अंधेरे में दोनों आदमखोर शेर आते और अपने शिकार को उठा कर ले जाते। शेरों के मुंह में इंसानी खून लग चुका था, अब उन्हें सिर्फ इंसानी मांस ही अच्छा लगने लगा।

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साओ नदी पर बनने वाला ब्रिज कुछ ही महीनों में खूनी ब्रिज के नाम से मशहूर होने लगा, डर के मारे रात में लोगों ने सोना ही छोड़ दिया था, मज़दूरों में अक्रोश पैदा हो रहा था, और धीरे धीरे मज़दूर अपनी-अपनी जान बचाकर यहां भागने लगे थे। जो बाकी बचे थे उन्होंने रेल पुल पर काम करने से इंकार कर दिया। आदमखोर शेरों के खौफ से यूंगाड़ा और केन्या के बीच बनने वाली रेल लाइन पर काम रूक गया। इसलिए अब रेल ब्रिज पर काम शुरू करने से पहले उन आदमखोर शेरों को मारना ज़रूरी था।

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इस खूंखार और जानलेवा मिशन की कमान संभाली, साओ नदी पर बनने वाले रेल ब्रिज के चीफ इंजीनियर कर्नल हेनरी पिटरसन ने। पिटरसन ने उन आदमखोरों को मज़दूरों के कैंप तक लाने का जाल बिछाया। आदमखोरों को लकड़ी के कमरे के अंदर से मारने का प्लान बना और इसके लिए अफ्रीका के तीन बेहतरीन निशानेबाज़ों को बंदूकों के साथ बंद कर दिया गया।

वैसा ही हुआ जैसा कर्नल पीटरसन ने प्लान बनाया था, एक बार फिर रात के अंधेरे में उन खूंखारों ने हमला बोला, लेकिन उन खूंखार आदमखोरों को देखकर अफ्रीका के उन नामचीन निशानेबाज़ों के पसीने छूटने लगे। उनके हाथों में बंदूक थी लेकिन डर के मारे उनसे निशाना लगाते नहीं बन रहा था। कई गोलिया चलाने के बाद भी आदमखोर न ही भागा न ही मरा। शेरों के हमले से कर्नल पीटरसन का लकड़ी का पिंजरा ज़रूर टूट गया, और गोलियों की दनादन फायरिंग के बावजूद आदमखोर अपने एक शिकार को उठा ही ले गया।

एक तरफ कर्नल पीटरसन पर अंग्रेज़ अफसरों का दबाव बढ़ रहा था, वहीं दूसरी तरफ लगातार आदमखोरों की बलि चढ़ते मज़दूरों से पीटरसन काफी परेशान थे। इसलिए कर्नल पीटरसन ने ये तय कर लिया कि अब इस रेलवे पुल का काम तब ही शुरू होगा। जब उन आदमखोरों को ठिकाने लगा दिया जाएगा, लेकिन वो आदमखोर इतनी आसानी से किसी के हाथ आने वाले नहीं थे।

ऐसा नहीं था कि कर्नल पीटरसन ने उन आदमखोरों को मारने की ये पहली कोशिश की थी, कई बार की कोशिश के बावजूद भी अंग्रेज़ सिपाही उन आदमखोर शेरों को मारने में नाकाम रहे थे। शेरों का हौंसला अब इतना बढ़ चुका था कि अब वो दिन में भी हमले करने लगे थे।

1898 में मार्च से लेकर नवंबर तक, यानी 9 महीनों में उन दो आदमखोर शेर पूरे 135 मज़दूरों को मार कर खा चुके थे। 135 इंसानों के शिकार के बाद दुनिया के सबसे खौफनाक आदमखोर शेरों का खत्म करने का आखिरी और सबसे असरदार प्लान तैयार किया गया, कर्नल पीटरसन ने आसपास के कबीले के आदिवासियों को बुलाया, एक और अंग्रेज़ अफसर के साथ और भालों से लैस कई आदिवासियों के साथ मिलकर कर्नल पीटरसन ने एक आदमखोर को जंगल के अंदर ही घेर लिया।

पीटरसन के हाथ में बंदूक थी औऱ शेर पीटरसन के ठीक सामने खड़ा था, लेकिन अचानक आदमखोर को अपने सामने देख कर्नल पीटर्सन के हाथ जम गए, और ये आदमखोर उनके ठीक सामने से निकल गया।

इसके बाद कर्नल पीटरसन ने शेर को फंसाने का वो तरीका अपनाया जो उन्होंने भारत में सीखा था, भारत में रहने के दौरान पीटरसन ने हिंदुस्तानियों को मचान बनाकर शिकार करते हुए देखा था। इसलिए अब पीटरसन की अगली कोशिश मचान बनाने की थी। पीटरसन ने उन आदमखोर शेरों के ठिकानों के पास एक पेड़ पर मचान बनाया।

दिसंबर 1898 में जंगल के एक पेड़ पर कर्नल पिटरसन और ब्रिटिश सिपाही अपनी बंदूक लेकर आदमखोर का शिकार करने के लिए बैठ गए, और ठीक वैसा ही हुआ जैसा कि पीटरसन ने सोचा था। आधी रात के बाद ये आदमखोर फिर निकला और इस बार इसने पीटरसन के मचान पर ही हमला बोल दिया।

मगर इस बार पीटरसन का हिंदुस्तानी तरीका काम कर गया, और इस बार कर्नल का निशाना नहीं चूका। कर्नल की एक गोली सीधे आदमखोर के सीने में जा घुसी, लेकिन ये मिशन अभी पूरा नहीं हुआ था। मारे गए आदमखोर शेर का दूसरा साथी अभी भी ज़िंदा था, और इस बार वो खूंखार और ज़्यादा गुस्से में था, और अपने साथी का बदला लेने के लिए बेताब भी।

अब दूसरे आदमखोर की तलाश शुरू हो चुकी थी, अंग्रेज़ अफसर के साथ मिलकर पीटरसन ने दूसरे आदमखोर को फंसाने का प्लान बनाया। एक मकान में मांस के कुछ टुकड़े और खून डाला, प्लान के मुताबिक शेर पीटरसन के जाल में फंसा भी, लेकिन वो शेर का शिकार नहीं कर पाए।

जिस दिन ये नाकाम कोशिश हुई उसी रात शेर फिर वहां लौटा और उसने पीटरसन के साथी को अपना अगला निशाना बनाया, अब पीटरसन अकेले थे लेकिन उसने फैसला कर लिया था कि या तो शेर को मार के रहेगा या यहीं मर जाएगा।

आखिरकार वो दिन आ ही गया जब उस जंगल में बचा वो आखिरी आदमखोर भी पीटरसन के सामने खड़ा था, पीटरसन और शेर के बीच ये आखिरी युद्ध बड़ा भयानक हुआ। लेकिन आखिरकार पीटरसन ने दूसरे आदमखोर को भी मार गिराया। शेर इतने भारी थे कि इनको मारने के बाद उन्हें जंगल से उठाकर रेलवे कैंप तक लाने के लिए आठ-आठ मज़दूरों को लगाया गया।

मौत का तांडव मचाने वाले उन आदमखोरों की तस्वीरें उनकी खाल औऱ कंकाल को सहेज कर रख लिया गया, लेकिन अभी भी ये जानना ज़रूरी था कि आखिर जंगल के उन खूंखार शेरों को किसने बनाया आदमखोर? कैसे इनके मुंह लगा इंसानी खून? अभी दुनिया के इन दो सबसे बड़े आदमखोरों की आधी कहानी बाकी है।

9 महीनों में 135 इंसानों का मार कर खा जाने वाले उन दो शेरों को एक बीमारी ने आदमखोर बना डाला था, दरअसल सवा सौ साल पहले अफ्रीका के जंगलों में RINDERPEST नाम की एक खौफनाक बीमारी फैली थी, रिंडरपेस्ट यानी जानवरों को प्लेग, जीराफ, जेबरा, शेर और हाथियों से भरे अफ्रीका के जंगल से जानवर धीरे धीरे खत्म हो रहे थे। अफ्रीका की गर्मी में प्लेग का वायरस पूरे जंगल में तेज़ी से फैल रहा था।

एक जानवर से दूसरे जानवरों तक फैली इस महामारी ने सात साल के अंदर केन्या के जंगल से हज़ारों जानवरों को साफ कर दिया था, एक के बाद एक इस बीमारी से सैकड़ों जिराफ, जेबरा, और छोटे जंगली जानवर मौत के मुंह में पहुंच गए। जंगल की इस महामारी ने मांसाहारी जानवरों के लिए एक बड़ी मुसीबत खड़ी कर दी, जब जंगल में जानवर कम हो गए, तो शेर और चीते अपनी भूख मिटाने के लिए इंसानो पर हमला करने लगे। जंगल के आसपास जो आता उसपर ये खूंखार शेर टूट पड़ते। इसी हालात की वजह से केन्या के साओ नदीं के पास रहने वाले वो दो शेर बन गए दुनिया के सबसे बड़े आदमखोर।

केन्या में साओ नदीं के पुल पर काम करने वाले मज़दूरों की मौत के बाद अक्सर उन्हें जंगल में फेंक दिया जाता था। इंसानों की लाश खाकर यहां के जंगली जानवर भी आदमखोर बनने लगे। इसके बाद साओ नदीं के किनारे आने वाले कई लोगों पर खूनी शेरों के हमले की खबर आने लगी, लेकिन तब तक इन खबरों पर किसी का ध्यान नहीं गया, जब तक साओ नदीं पर रेल पुल बनने के लिए अंग्रेज़ नहीं पहुंचे।

साल 1898 में इन दोनों शेरों ने ऐसा आतंक मचाया कि पूरी दुनिया कांप गई, सिर्फ 9 महीनों में 135 लोगों की जाने जाना कोई मामूली बात नहीं थी। यहां आने से मज़दूर कतराने लगे, सावो नदी पर बनने वाले पुल का काम ठप पड़ने लगा। लेकिन इन दोनों के आतंक के खात्मे के बाद ही मज़दूर यहां वापस आए और तब जाकर कहीं इस पुल बनाने का काम पूरा हुआ।

दुनिया के उन सबसे बड़े आदमखोर को मारने के बाद इनके कंकाल और खाल को शिकागों के एक म्यूज़ियम में रखा गया। इन दोनो शेरों की गुफा की उस वक़्त जांच की गई तो वहां पर कई इंसानों की हड्डियां मिली, म्यूज़ियम में इन दोनों आदमखोरों के शिकार की वो तस्वीरें भी रखी हैं जो कर्नल पीटरसन ने किया था।

इन दोनो आदमखोरों के आतंक का अंत करने के बाद, 1924 में कर्नल पीटरसन ने उन दोनों के सिर और खाल को शिकागो के म्यूज़ियम में उस वक़्त पूरे 5000 डॉलर में बेचा। इस तरह दुनिया के उन दो सबसे बड़े खूंखारों के आतंक की कहानी तो खत्म हो गई लेकिन उनके आतंक की निशानी आज भी ज़िंदा है। उन शेरों की खाल अभी भी उन्ही के आकार के शेर के पुतलों को पहनाकर शिकागो के म्यूज़ियम में रखा गया है।

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