हिमालय पर परमाणु बम को लेकर अमेरिका से हुई एक ग़लती भारत को तबाह कर देगी!, नंदा देवी में क़ैद है वो राज़

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हिमालय पर परमाणु बम को लेकर अमेरिका से हुई एक ग़लती भारत को तबाह कर देगी!, नंदा देवी में क़ैद है वो...
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साल 1964 में चीन ने जिनजियांग प्रान्त में पहला परमाणु परीक्षण कर दुनिया को हैरत में डाल दिया था. अमेरिका समेत तमाम देश चीन के इस परीक्षण से सकते में आ गए थे और उन्हें अन्देशा होने लगा था कि चीन आने वाले वर्षों में खुद को ऐसे ही घातक बमों से लैस कर लेगा, जिससे शक्ति सन्तुलन बिगड़ सकता है.

अमेरिका ने तय किया कि चीन की इस तरह की तमाम गतिविधियों पर वह नजर रखेगा. इसके लिये अमेरिकी खुफिया एजेंसी सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) ने भारत के इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) के साथ मिलकर उत्तराखण्ड के चमोली में स्थित भारत की दूसरी सबसे ऊँची चोटी नंदा देवी पर रिमोट सेंसिंग डिवाइस लगाने का फैसला लिया.

डिवाइस को लगाने के लिये भारी-भरकम उपकरणों को 7816 मीटर (नंदा देवी की ऊँचाई) ऊपर ले जाना था. भारी-भरकम मशीनों में 56 किलोग्राम के एक उपकरण के अलावा 8 से 10 फीट ऊँचा एंटीना, दो ट्रांसीवर और न्यूक्लियर ऑक्जिलरी पॉवर जेनरेटर शामिल थे. इनके अलावा 7 कैप्सुल्स में 5 किलोग्राम प्लूटोनियम भरकर लाया गया। प्लूटोनियम पावर जेनरेटर के लिये बिजली मुहैया कराने का काम करता और प्रतिकूल मौसम में भी जेनरेटर चलता रहता, इसलिये प्लूटोनियम के इस्तेमाल का निर्णय लिया गया था.

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वैसे मुख्य मिशन को अंजाम देने से पहले अलास्का की पर्वत चोटी पर प्रायोगिक तौर पर ऐसे ही यंत्र लगाए गए गए थे. इसमें भी भारतीय व अमरिकी एक्सपर्ट मौजूद थे. अलास्का का प्रयोग सफल होने के बाद नंदा देवी की चोटी पर इस डिवाइस को इंस्टॉल करने का काम शुरू हुआ.

इन वजनी उपकरणों को सही-सलामत चोटी तक ले जाना दुरूह कार्य था. इसके लिये स्थानीय पर्वतारोहियों, सीआईए तथा आईबी के अफसरों, विशेषज्ञों को मिलाकर 200 लोगों की एक मजबूत टीम तैयार की गई। टीम का नेतृत्व करने का जिम्मा मिला कैप्टन मनमोहन सिंह कोहली को. करीब छह महीने तक इन्तजार करने के बाद मई 1966 में अधूरा मिशन पूरा करने के लिये टीम के कुछ सदस्य और एक अमरिकी वैज्ञानिक ने दोबारा वहाँ जाने का फैसला लिया. हालांकि, तब तक टीम के सदस्यों और खुद कोहली इस नतीजे पर पहुँच चुके थे कि नंदा देवी की चोटी पर पहुँचना मुश्किल है और खुफिया मशीन लगाने की ही बात है, तो उसे किसी छोटे पर्वत पर भी लगाई जा सकती है.

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आखिर में यह तय किया गया कि नंदा देवी से उपकरण उतारे जाएँगे और उन्हें पास के 6861 मीटर ऊँचे पर्वत नंदा कोट पर स्थापित किया जाएगा. उपकरण वापस लाने के लिये टीम नंदा देवी पर्वत के कैम्प-4 पर पहुँचे, तो उनके पैरों के नीचे की जमीन ही खिसक गई. वहाँ न तो एंटीना था, न जेनरेटर और न ही प्लूटोनियम से भरे कैप्सुल था वहां थी तो बस बर्फ. हैरानी की बात ये थी कि जिस नंदा देवी पर्वत शृंखला में प्लूटोनियम कैप्सुल गुम हुआ, वहीं ऋषि गंगा का उद्गम स्थल है, जो आगे जाकर गंगा में मिल जाती है.

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गंगा भारत की जीवनरेखा है, ऐसे में यह खयाल ही रोंगटे खड़े कर देता है कि अगर प्लूटोनियम गंगा नदी में मिल जाएगा, तो क्या होगा. हालांकि, मानने वाले इस खयाल को अव्यावहारिक या काल्पनिक मान सकते हैं. लेकिन, सच यही है कि वे कैप्सुल नंदा देवी में ही कहीं दबे पड़े हैं और किसी भी समय बाहर निकलकर करोड़ों लोगों की जिन्दगी तबाह कर सकते हैं.

कैप्सुल्स में प्लूटोनियम से बेखबर थे कोहली नंदा देवी पर रिमोट सेंसिंग डिवाइस स्थापित करने का पूरा मिशन बेहद सावधानी से और एहतियात बरतते हुए अंजाम दिया गया था. प्लूटोनियम की तासीर गर्म होती है, इसलिये कैप्सुल भी गर्म रहता था. यही वजह थी कि सर्दी के मौसम में इस मिशन को अंजाम देने का निर्णय लिया गया था. कैप्सुल उठाने वाले सभी पर्वतारोहियों के ऊपरी कपड़ों पर सफेद दाग लगाए गए थे। ऐसा इसलिये किया गया था क्योंकि प्लूटोनियम का रिसाव होने पर सफेद दाग का रंग बदल जाता और इससे विज्ञानियों को पता चल जाता.

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