कास्ट और क्राइम का कॉकटेल गोरखपुर में हरिशंकर तिवारी ने किया था

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 कास्ट और क्राइम का कॉकटेल गोरखपुर में हरिशंकर तिवारी ने किया था
हरिशंकर तिवारी की एक पुरानी तस्वीर
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Gorakhour harishankar tiwari: कास्ट और क्राइम का कॉकटेल क्या होता है गोरखपुर में हरिशंकर तिवारी ने पूरे पूर्वांचल को दिखा दिया था। एक दो नहीं बल्कि करीब करीब तीन दशकों तक हरिशंकर तिवारी ने पूर्वांचल पर एक तरह से राज किया। लखनऊ में भले ही कल्याण सिंह, मुलायम सिंह या मायावती की हुकूमत रही हो, लेकिन गोरखपुर में हरिशंकर तिवारी का ही सिक्का चलता था। छोटे कद के हरिशंकर तिवारी का रुतबा बहुत बड़ा था। वो चलते उठते बैठते हरदम चौकन्ना रहते थे। और किसी से भी मिलते ही उसे भीतर तक खंगालने लेने का गजब का हुनर था। साफ और कलफदार कपड़े पहनने के शौकीन हरिशंकर तिवारी किसी की भी समस्या का समाधार तुरंत निकालने पर यकीन करते थे। 

जो ठान लेते थे वो करके मानते थे

हरिशंकर तिवारी के बारे में एक बात जो उन्हें सबसे खास बना देती थी वो ये थी कि वो लंबे कद के आदमियों से कभी खड़े होकर बात ही नहीं करते थे। वो उनको बैठाकर ही बात करते थे। उनके बारे में ये बात उनके करीबी बड़ी ही अच्छी तरह से याद रखते थे कि वो जो कुछभी ठान लेते थे तो फिर वो करके मानते थे। चश्मे के नीचे से वो कुछ इस तरह से झांककर देखते थे जैसे पुरानी फिल्मों में कोई मुनीम का किरदार हो। 

गोरखपुर में अपनी पहचान बनाई हरिशंकर तिवारी ने

तिवारी ऐसे बने बाहुबलि

हरिशंकर तिवारी ने अपना सियासी सफर गोरखपुर विश्वविद्यालय से शुरू किया था लेकिन उन्होंने अपनी अलग छाप बनाते हुए पूर्वांचल के माथे पर बाहुबलि की एक लकीर खींच दी थी। असल में हरिशंकर तिवारी ने देखा था कि क्राइम की कुंडली वाले बदमाश अक्सर नेताओं के इशारे पर ही काम करते थे और उनकी जिंदगी वहीं तमाम हो जाती थी। तब उन्होंने ये बात समझ ली कि अगर नाम कमाना है और लंबे समय तक राज करना है तो खुद राजनीति में उतरना होगा। ये बात उन्होंने ही कही थी कि अगर हम किसी को जिता सकते हैं तो खुद जीत भी तो सकते हैं। ऐसे में हरिशंकर तिवारी ने अपने लिये कुछ नियम बनाए और जीवन भर उनका पालन किया। 

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रॉबिनहुड वाली छवि

हरिशंकर तिवारी ने ये तय कर लिया था कि वो आम लोगों को कभी परेशान नहीं करेंगे और गरीब मजलूमों के लिए हमेशा डटकर खड़े रहेंगे। लेकिन उस शख्स को कभी नहीं छोड़ेंगे जिसकी तूती बोलती है। लिहाजा उन्होंने ऊंची पहुँच और रसूखदार लोगों के रुतबे और रूआब को चैलेंज करना शुरू कर दिया। जो उनकी शरण में आया उसकी हिफाजत उन्होंने हर हाल में की। दूसरा सबसे अहम नियम ये था कि प्रशासन से किसी भी तरह का कोई पंगा नहीं लेना। बल्कि उनका तरीका तो ये था कि काम कुछ इस तरह से हो कि प्रशासन नाराज न हो बल्कि आगे बढ़कर साथ देने लगे। 

मठ की हैसियत को दी चुनौती

जिस समय हरिशंकर तिवारी गोरखपुर पढ़ने पहुँचे तो वहां गोरखनाथ मठ का सिक्का चलता था। और कोई  मठ को चुनौती देने के बारे में सपने में भी नहीं सोच सकता था। दिग्विजय नाथ से लेकर महंत अवैद्यनाथ तक के जमाने में दरबार लगते थे और फरमान जारी होते थे। यहां तक कि प्रशासन की भी हिम्मत नहीं होती थी कि वो उस फरमान को नकार दे। मठ के महंत अक्सर ठाकुर होते थे और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का वरदहस्त प्राप्त था। आलम ये था कि मठ के आगे तो लखनऊ में बैठे मुख्यमंत्री तक की नहीं चलती थी। 

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हर दल और हर नेता के बीच हरिशंकर तिवारी की अलग हैसियत

यूनिवर्सिटी में हुआ ब्राह्मण- ठाकुर

मठ की ही वजह से गोरखपुर विश्वविद्यालय पर ठाकुरों का कब्जा था। जबकि ब्राह्मण छात्र पढ़ने लिखने में काफी होशियार होते थे। ऐसे में उन्हें ठाकुरों का वर्चस्व अखरता भी था।  बात 1970 के दशक ही है। उस जमाने में एक छात्र नेता थे रवींद्र सिंह। उनमें ठाकुरों की ठसक तो थी मगर कुछ बातों को वो सैद्धांतिक तौर पर मानते भी थे। उन्हीं के चेलों में एक थे वीरेंद्र प्रताप शाही। जो अपनी बात को मनवाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते थे। इसी बीच छात्रसंघ के चुनावों में रवींद्र सिंह अध्यक्ष बन गए। मठ पहले से ही ठाकुरों के कब्जे में था और अब यूनिवर्सिटी पर भी ठाकुरों का कब्जा हो गया। 

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पैसा पॉवर और पॉलिटिक्स के कॉकटेल

तभी हरिशंकर तिवारी गोरखपुर विश्वविद्यालय पहुँचे और वहीं किराए का कमरा लेकर रहने लगे। यूनिवर्सिटी के हालात को को हरिशंकर तिवारी ने अच्छी तरह से पढ़ लिया था। वो ब्राह्मणों को एक जुट करने में लगे हुए थे लेकिन बात बन नहीं पा रही थी। तब हरिशंकर तिवारी ने गोरखपुर के हालात को समझना शुरू किया और कुछ दिनों में उन्हें ये बात अच्छी तरह से पता लग गई कि गोरखपुर में सिर्फ मठ ही नहीं बल्कि रेलवे के ठेकों की भी अलग अहमियत है। तब उनके दिमाग में पैसा पॉवर और पॉलिटिक्स के कॉकटेल का आइडिया आया।  

गोरखपुर के हाता में लगा हरिशंकर तिवारी का दरबार

किराए के कमरे से बड़े 'हाता' तक 

अब हरिशंकर तिवारी को समझ में आने लगा था कि गोरखपुर में अपनी पहचान बनानी है तो इस किराए के मकान से काम नहीं चलेगा बल्कि ऐसे घर का इंतजाम करना होगा जहां किलेबंदी हो सके। और जहां लोग बेरोकटोक आ जा सके। इसी बीच हरिशंकर तिवारी ने ये भी भांप लिया था कि मठ के ठाकुरों की मनमर्जी उन नौकरशाहों को रास नहीं आ रही जो पढ़ लिखकर और अच्छा काम करने के इरादे से सरकारी पदों पर आते थे लेकिन मजबूरी में मठ की बातों को सुनना पड़ता था और उसके मुताबिक काम करना पड़ता था। गोरखपुर में तैनात नौकरशाह अफसर इस बात से आजिज आ चुके थे। 

हरिशंकर तिवारी को मिली नौकरशाह की शह

बताया जाता हैकि उसी दौरान एक डीएम ने हरिशंकर तिवारी को शह दे दी। वो डीएम चाहते थे कि मठ को चुनौती देने वाला कोई खड़ा हो जाए तो फरमान देने वाला दरबार शिफ्ट हो जाएगा। असल में वो डीएम किसी ऐसे कंधे की तलाश कर रहे थे जिस पर रखकर बंदूक चलाई जा सके। और हरिशंकर तिवारी वो कंधा बनने को तैयार हो गए। उन्हीं नौकरशाहों ने हरिशंकर तिवारी को रेलवे के ठेकों में भी हाथ आजमाने का न सिर्फ सुझाव दिया बल्कि रास्ता भी दिखा दिया। बस फिर क्या था डीएम की शह पाकर हरिशंकर तिवारी ने गोरखपुर में अपना ‘हाता’ बनाया..और देखते ही देखते ‘हाता’ की हनक पूरे गोरखपुर में हो गई। जमीन जायदाद के झगड़े यहीं निपटाए जाने लगे और रेलवे के टेंडरों का फैसला भी उसी हाते में होने लगा। 

गोरखपुर बंट गया दो गुटों में

गोरखपुर में हरिशंकर तिवारी प्रशासन की शह पाकर इतने बड़े हो गए कि जिले के निजाम भी उनके आगे बौना हो गया। धीरे धीरे हाता में आने वालों का हुजूम लगने लगा। अब हरिशंकर तिवारी ने ब्राह्मण नौजवानों को गोलबंद करना शुरू किया। हालात ऐसे हो गए कि गोरखपुर में कॉलेजों से लेकर आज़मगढ़, मऊ, देवरिया, जौनपुर तक के कॉलेजों में ठाकुर बनाम ब्राह्मण हो गया। एक तरफ हरिशंकर तिवारी का पाला था तो दूसरी तरफ वीरेंद्र प्रताप शाही ठाकुरों के लिए ताल ठोंक रहे थे। आलम ये हो गया कि दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए। अब गोरखपुर सीधे सीधे दो गुटों में बट गया। 

खुलेआम धमकी और 'कट्टा' बना शान

हरिशंकर शंकर तिवारी का गुट और वीरेंद्र प्रताप शाही का गुट। और पूर्वांचल के इलाके भी कुछ ऐसे ही गुटों में बट गए। आज़मगढ़, मऊ देवरिया के ब्राह्मण बाहुल इलाकों में तिवारी की पकड़ मजबूत मानी जाती थी तो महाराजगंज और ठाकुर बाहुल्य गांवों में वीरेंद्र शाही का नाम लिया जाता था। उस दौर में टाटा 407 की सवारी करने के बाद पैसा देना लोगों को अपनी शान के खिलाफ समझ मं आता था। आलम ये हो गया था कि चाय पीने के बाद पैसा मांगने पर कहा जाता था कि ‘तो हमसे पइसा मंगबे’। गोरखपुर में उस दौर में कट्टा रखना बड़े शान की बात हो गई थी। खुले आम धमकी दी जाती थी और धमकी का अंदाज होता था, शांत रहा नाहीं त शांत क जइबा’ मतलब चुप रहो नहीं तो मार दिए जाओगे...। 

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