भारत में बॉयो वेपन से हुए पहले मर्डर की कहानी, जिसकी तलाश में आज भी अंग्रेज करते हैं रिसर्च

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भारत में बॉयो वेपन से हुए पहले मर्डर की कहानी, जिसकी तलाश में आज भी अंग्रेज करते हैं रिसर्च
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India's First Biological Weapons Murder Case : 88 साल पुराना एक क़त्ल. ऐसी हत्या जिसमें प्रयोग हुआ हथियार आजतक नहीं मिला. भारत के इतिहास का एकमात्र ऐसी हत्या जो दुनिया में सबसे ज्यादा चर्चित हुई. एकमात्र ऐसा क़त्ल जिस पर दुनिया ने रिसर्च की.

वो रिसर्च आज भी जारी है. एक ऐसी हत्या जिसने रानी विक्टोरिया के राज तक को हिला दिया था. अब ये घटना फिर एकबार चर्चा में है. आखिर ये घटना क्या थी? आखिर वो क़त्ल कैसे हुआ था जैसी घटना इंडिया में आजतक नहीं हुई.

इस क़त्ल को लेकर रिसर्च करते हुए अमेरिकी पत्रकार डेन मॉरिसन ने एक किताब लिखी है. किताब का नाम है 'द प्रिंस एंड द प्वॉज़नर'. इसे लिखने वाले अमेरिकी पत्रकार बताते हैं कि क़ातिल को लगा था कि वो रानी विक्टोरिया के राज में चलाई जा रही संस्थाओं को चकमा दे देगा और बच जाएगा.

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लेखक ने एक मीडिया इंटरव्यू में बताया है कि हावड़ा रेलवे स्टेशन पर हुई इस हत्या को पूरी तरह से आधुनिक हत्या कहा जा सकता है. वो बताते हैं कि दुनिया के इतिहास में बायोलॉजिकल वेपन यानी जैव हथियार का इस्तेमाल ईसा पूर्व छठी सदी से हो रहा है. इस हत्या की तुलना उत्तर कोरियाई नेता किम जोंग-उन के 45 वर्षीय सौतेले भाई किम जोंग-नम की हत्या से भी जोड़ी जा रही है. आज क्राइम की कहानी में भारत में जैविक हथियार से हुए पहले क़त्ल की कहानी.

26 नवंबर 1933 को ऐसे हुई थी घटना

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World Sensational Murder Mystery : ये सनसनीखेज घटना है साल 1933 की. तारीख 26 नवंबर. जगह हावड़ा रेलवे स्टेशन. इस स्टेशन के बाहर हमेशा की तरह उस दिन भी काफी चहल-पहल थी. वहां के जाने-माने जमींदार अमरेंद्र चंद्र पांडे (Amarendra Chandra Pandey) स्टेशन के बाहर ही भीड़ से गुजर रह थे. 20 साल के नौजवान अमरेंद्र अपनी ही धुन में चल रहे थे. इस बात से अंजान कुछ देर बाद उनके साथ कोई अनहोनी होने वाली है.

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वो भीड़ से निकल रहे थे तभी अचानक उन्हें धक्का मारते हुए एक शख्स गुजरता है. धक्का मारने वाला शख्स खादी का कपड़ा पहने हुए था. लेकिन उसका चेहरा नहीं देख पाते हैं. वो शख्स जैसे ही आंखों से ओझल होता है तभी युवा जमींदार को याद आता है कि उनके दाएं बांह में कुछ चुभा है. थोड़ी देर बाद दर्द भी शुरू हो जाता है. इसलिए वो देखने लगते हैं. पता चलता है कि उनकी बांह में कुछ सुई जैसा चुभाया गया है. फिर वो शोर मचाने लगते हैं. वो देखो उसने मेरे हाथ में कुछ चुभो दिया है.

पाकुड़ रियासत के वारिस थे अमरेंद्र

Biological Weapon was used to kill a Calcutta Royal : दरअसल, अमरेंद्र कोई मामूली शख्स नहीं थे. बल्कि अंग्रेजों के जमाने के चर्चित जमींदार परिवार के वारिस थे. इनकी रियासत थी. जिसका नाम था पाकुड़. अब ये झारखंड राज्य में है लेकिन उस समय बंगाल में हुआ करता था. सुई की चुभन को लेकर उनके रिश्तेदार और परिचित आराम करने की सलाह देते हैं और डॉक्टरी जांच का भी भरोसा देते हैं.

अभी इन्हीं सब जद्दोजहद में ये लोग थे ही तभी अमरेंद्र के बड़े व सौतेले भाई बेनोयेंद्र वहां आते हैं. वो भी अमरेंद्र के घाव को देखते हैं. थोड़ी देर तक बात होती है. फिर बेनोयेंद्र ये कहते हैं कि ऐसा तो होता रहता है. इसमें कौन सी बड़ी बात है.

जरा सी चोट लग गई है. इसके लिए क्या परेशान होना. जाहिर है मामूली खरोंच या फिर कोई चीज चुभ जाने पर इतना गंभीर क्या होना. ये तो आम बात है. यही सोचकर और बेनोयेंद्र की बातों को सुनकर अमरेंद्र ने भी अपने सफर को जारी रखने का फैसला लेते हैं.

इस तरह दो दिनों तक सबकुछ ठीक रहता है. लेकिन तीसरे दिन अचानक अमरेंद्र को बुखार हो जाता है. बुखार भी हल्का नहीं. बल्कि काफी तेज. ऊपर से काफी बेचैन करने वाला. ये देखकर अमरेंद्र खुद परेशान हो जाते हैं और कोलकाता लौट आते हैं. यहां इलाज भी शुरू होता है. लेकिन बुखार कम नहीं होता है. और ना ही बेचैनी.

बल्कि परेशानी लगातार बढ़ती जाती है. सांस भी फूलने लगती है. इलाज हो रहा था लेकिन हालत खराब होती जा रही थी. 3 दिसंबर की रात यानी घटना के महज एक हफ्ते बाद ही उन्हें कोमा में रखना पड़ता है. फिर भी तबीयत में सुधार नहीं होता है. और फिर अगली सुबह वो होता है जिसके बारे में किसी ने नहीं सोचा था. 4 दिसंबर की सुबह सबसे युवां जमींदार अमरेंद्र की मौत हो जाती है.

पहले निमोनिया से मौत होने की बताई गई वजह

The Indian 'germ murder : शुरुआत में डॉक्टरों ने बताया कि अमरेंद्र की मौत निमोनिया की वजह से हुई. फिर भी जांच के लिए उनके खून का सैंपल पहले ही लैब भेजा जा चुका था. मौत के बाद जब उनकी रिपोर्ट सामने आई तो वो बेहद ही चौंकाने वाली थी.

उस रिपोर्ट को देखकर जमींदार के परिवार के होश उड़ गए. क्योंकि मेडिकल रिपोर्ट के अनुसार, अमरेंद्र के ब्लड में यरसिनिया पेस्टिस नामक जानलेवा बैक्टीरिया होने का पता चला था. ये वही बैक्टीरिया यानी जीवाणु था जिसकी वजह से भयानक महामारी प्लेग होती है.

लेकिन सवाल ये था कि आखिर ये बैक्टीरिया अमरेंद्र के शरीर में कैसे आया? क्या वही सुई जैसे चुभने वाले ने ही ये बैक्टीरिया तो नहीं डाली थी? लेकिन क्या 1933 में ऐसी कोई तकनीक थी जिससे कोई भी व्यक्ति इस तरह से राह चलते किसी के शरीर में बैक्टीरिया या वायरस की एंट्री करा दे? ऐसे तमाम सवाल थे जो उठ रहे थे.

सवाल ये भी था कि प्लेग उन दिनों इतना फैला था ऐसे में कहीं वही बीमारी तो नहीं हुई. ऐसी बीमारी जो चूहों और कीड़ों से इंसानों में फैलती है. इस महामारी का रौद्र रूप भारत ने 1896 से 1918 के बीच में देखा था. उस दौरान भारत और इसके आसपास के देशों में सवा करोड़ से ज्यादा लोगों की प्लेग से मौत हुई थी.

इसके बाद भी मरने वालों का सिलसिला जारी था. साल 1929 से 1938 के बीच में प्लेग से मरनेवालों की तादाद 5 लाख थी. लेकिन कलकत्ता में जमींदार अमरेंद्र की जब मौत हुई उस समय और उससे 3 साल पहले तक प्लेग से उस इलाके में किसी की मौत नहीं हुई थी.

ऐसे में सवाल उठ रहा था कि जब इस इलाके में प्लेग से किसी और की जान नहीं गई तो सिर्फ अमरेंद्र को ही ये बीमारी कैसे हो गई? ये सवाल ऐसे थे जिसके जवाब उस समय की ब्रिटिश पुलिस के पास नहीं थे.

ऐसे शुरू हुई जांच और हुआ खुलासा

Crime Story in hindi : दरअसल, इस मामले में मौत की कोई वजह नहीं पता चली तो पुलिस ने छानबीन शुरू की. इस दौरान पता चला कि जमींदार अमरेंद्र के पास अकूत संपत्ति थी. जिस पर काफी पहले से उसके चचेरे और उम्र में 10 साल बड़े भाई बेनोयेंद्र की टेढ़ी नजर थी.

पूछताछ में ये भी पता चला कि कुछ साल पहले भी युवा जमींदार अमरेंद्र के साथ एक हादसा हुआ था. जिसमें चश्मे से उनके चेहरे पर खून निकल आया था जिसके बाद कई दिनों तक वो बीमार रहे थे. जब ये हादसा हुआ था तब बेनोयेंद्र भी वहीं था. ऐसे में शक जताया गया कि कहीं वही तो इसके पीछे शामिल नहीं है.

इसकी पड़ताल में पुलिस जुटी तो ये भी पता चला कि जिस दिन हावड़ा रेलवे स्टेशन के बाहर भीड़ में अमरेंद्र के हाथ में सुई जैसा कुछ चुभाया गया था तब कुछ देर बाद अचानक बेनोयेंद्र वहां पहुंच आया था. ये वो सवाल थे जो उसे कठघरे में ला रहे थे. लिहाजा, पुलिस ने उस पर नजर रखनी शुरू की.

पड़ताल में ये भी पता चला कि दोनों पांडे भाइयों में काफी समय से विवाद चल रहा था. ये विवाद उस समय और बढ़ गया जब 1931 में अमरेंद्र के पिता की मौत हो गई थी. इनकी मौत के बाद से कोयला खदानों और पत्थर की खानों के लिए मशहूर पाकुड़ रिसायत पर अपनी सियासत के लिए दोनों में विवाद शुरू हुए थे.

ये भी सामने आया कि अमरेंद्र चंद्र पांडेय को गांव के लोग काफी पसंद करते थे. इसकी बड़ी वजह थी अमरेंद्र की अच्छी सौच और नैतिक सिद्धांतों की बात करना. सदाचारी सोच वाले इस युवा से लोग काफी जुड़े हुए थे. वहीं, बेनोयेंद्र को शराब की लत थी. उसकी अय्याशी और दबंगई के चर्चे हर जगह होते थे. इसलिए इन वजहों से भी बेनोयेंद्र पर शक की सुई बढ़ी.

एक साल पहले ही रची थी हत्या की साजिश

BBC की एक रिपोर्ट में अदालती दस्तावेजों के आधार पर दावा किया गया है कि अमरेंद्र को मारने की साजिश 1932 में ही रच दी गई थी. यानी करीब एक साल पहले ही. उस दिनों बड़े चचेरे भाई बेनोयेंद्र के क़रीबी मित्र डॉ. तारानाथ भट्टाचार्य ने मेडिकल लैब से प्लेग के बैक्टीरिया को सुई में लाने की कोशिश की थी. लेकिन उनकी ये कोशिश नाकाम साबित हुई थी.

लेकिन इन्होंने प्रयास जारी रखा था. इसके अलावा भी कई बार अलग-अलग तरह से चचेरे भाई ने अमरेंद्र को मारने की कोशिश की थी. लेकिन पूछताछ के आधार पर अब ये पता चल गया था कि बैक्टीरिया के जरिए ही अमरेंद्र को मारा गया. लेकिन किस सीरिंज से बैक्टीरिया को शरीर में प्रवेश कराया गया था, उस बारे में आजतक कोई जानकारी नहीं मिल पाई. और ना ही वो सीरिंज बरामद हो पाई.

ऐसे दिया गया था सनसनीखेज वारदात को अंजाम

अदालती दस्तावेज़ों के अनुसार, डॉ. तारानाथ भट्टाचार्य 12 जुलाई 1933 को बेनोयेंद्र के साथ कोलकाता आए थे. इस बात के पुख्ता प्रमाण मिलने के बाद ब्रिटिश पुलिस ने हत्या के तीन महीने बाद यानी फरवरी 1934 में बेनोयेंद्र और डॉ. तारानाथ को गिरफ़्तार किया था.

पुलिस की जांच में दोनों के इस वारदात में शामिल होने के लेकर कई पुख्ता प्रमाण मिले थे. जिसमें पुलिस जांच अधिकारियों ने बेनोयेंद्र की यात्राओं से जुड़े दस्तावेजों, बॉम्बे के होटलों के बिल, होटल के रजिस्टर में दर्ज उनकी लिखावट वाले कागजात, लैब को भेजे गए मैसेज और चूहे ख़रीदने वाली दुकानों की रसीदें भी मिलीं थीं. जिनके जरिए पुलिस ने सबूत जुटाए थे.

इस केस में 9 महीने तक सुनवाई चली थी. जिसमें कोर्ट ने कहा था कि सबूतों से साफ होता है कि अभियुक्तों ने बॉम्बे स्थित अस्पताल से प्लेग बैक्टीरिया को चुराया था. इसके बाद उसे कोलकाता तक जिंदा लाया गया था.

इस सुनवाई में बेनोयेंद्र और डॉ. तारानाथ भट्टाचार्य के खिलाफ पता चला कि दोनों ने अमरेंद्र की हत्या कराने के लिए पैसे भी दिए थे. इसके लिए एक अन्य व्यक्ति की भी मदद ली गई थी. इस केस में दोनों को मृत्युदंड की सज़ा दी गयी थी.

हालांकि, कलकत्ता हाईकोर्ट ने साल 1936 में इस मामले में दायर की गयी अपील पर सुनवाई करते हुए सजा को कम करते हुए मृत्युदंड को उम्रक़ैद में बदल दिया था. वहीं, दो अन्य डॉक्टरों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया था. इस मामले की सुनवाई करने वाले जज ने फैसला सुनाते हुए टिप्पणी की थी कि क्राइम हिस्ट्री का ये संभवत: सबसे अलग एक ख़ास केस है.

देश का ऐसा केस जिस पर दुनिया ने चर्चा की थी

ब्रिटिश राज में हुई अनोखी इस हत्या की चर्चा उस वक़्त के दुनिया की मीडिया में तो हुई थी लेकिन आज भी उस पर रिसर्च और चर्चा होती है. इसे कुछ मीडिया ने तो आधुनिक दुनिया में व्यक्तिगत बॉयो-टेरेरिज़्म (Individual Bio-Terrorism) की शुरुआत मानी थी.

टाइम मैग़जीन (TIME Magazine) ने तो इसे 'जर्म मर्डर' (Germ Murder) यानी रोगाणु से हुई हत्या करार दिया था. जबकि उस समय सिंगापुर के स्ट्रेट्स टाइम्स ने इसे 'पंक्चर्ड आर्म मिस्ट्री' (Punctured Arm Mystery) करार दिया था.

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