तालिबान के ख़िलाफ़ अब भी अफ़ग़ानिस्तान में ढाल बनकर खड़ी है एक मर्दानी

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तालिबान के ख़िलाफ़ अब भी अफ़ग़ानिस्तान में ढाल बनकर खड़ी है एक मर्दानी
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अफगानिस्तान में किसी ने तालिबान आतंकियों की आंखों में आंखें डाल कर ये बताने की हिम्मत जुटाई कि महज़ बम और गोली के सहारे उनके मादरे-वतन पर कब्ज़ा कर लेना इतना भी आसान नहीं है, जितना कि वो आतंकी सोच रहे हैं।

सलीमा मज़ारी जी हां, यही नाम है उसका, जिसका ज़िक्र चलते ही तालिबान की रूह फना हो जाती है... डर के मारे सांसें अटक जाती हैं।

लेकिन मैदान-ए-जंग में जब चारों तरफ़ से गोलियों की बौछार हो रही हो, हाथों में रॉकेट लिए आतंकी बेगुनाह शहरियों को टार्गेट कर रहे हों, कदम-कदम पर बम धमाके हो रहे हों, ऐसे में जल्लाद आतंकियों से लोहा लेना सबके बस की बात नहीं है।

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लेकिन अफ़ग़ानिस्तान के बल्ख सूबे के चारकिंट ज़िले की लेडी गर्वनर सलीमा उन लोगों में से नहीं, जो हालात के आगे झुक जातीं।

लिहाज़ा, सलीमा ने ना सिर्फ़ इन आतंकियों से टकराने के फ़ैसला किया, बल्कि रातों-रात अमन पसंद लोगों, किसानों, मजदूरों, जवानों और चरवाहों को लेकर अपनी एक ऐसी फ़ौज बनाई कि तालिबान अब जिसके पास फटकने से भी डरने लगा है।

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जी हां, नाउम्मीदी की इस हालत के बीच अफ़ग़ानिस्तान के सलीमा की ये कहानी उम्मीद जगाती है कि शायद अब भी यहां सबकुछ ख़त्म नहीं हुआ।

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अफगानिस्तान में किसी ने तालिबान आतंकियों की आंखों में आंखें डाल कर ये बताने की हिम्मत जुटाई कि महज़ बम और गोली के सहारे उनके मादरे-वतन पर कब्ज़ा कर लेना इतना भी आसान नहीं है, जितना कि वो आतंकी सोच रहे हैं। सलीमा मज़ारी जी हां, यही नाम है उसका, जिसका ज़िक्र चलते ही तालिबान की रूह फना हो जाती है... डर के मारे सांसें अटक जाती हैं।

लेकिन मैदान-ए-जंग में जब चारों तरफ़ से गोलियों की बौछार हो रही हो, हाथों में रॉकेट लिए आतंकी बेगुनाह शहरियों को टार्गेट कर रहे हों, कदम-कदम पर बम धमाके हो रहे हों, ऐसे में जल्लाद आतंकियों से लोहा लेना सबके बस की बात नहीं है... लेकिन अफ़ग़ानिस्तान के बल्ख सूबे के चारकिंट ज़िले की लेडी गर्वनर सलीमा उन लोगों में से नहीं, जो हालात के आगे झुक जातीं।

लिहाज़ा, सलीमा ने ना सिर्फ़ इन आतंकियों से टकराने के फ़ैसला किया, बल्कि रातों-रात अमन पसंद लोगों, किसानों, मजदूरों, जवानों और चरवाहों को लेकर अपनी एक ऐसी फ़ौज बनाई कि तालिबान अब जिसके पास फटकने से भी डरने लगा है... जी हां, नाउम्मीदी की इस हालत के बीच अफ़ग़ानिस्तान के सलीमा की ये कहानी उम्मीद जगाती है कि शायद अब भी यहां सबकुछ ख़त्म नहीं हुआ।

फिलहाल, सलीमा की फ़ौज में 600 से ज़्यादा जांबाज़ शामिल हैं, जो हर पल अपने इलाक़े की निगरानी के लिए ज़िले की सरहद पर तैनात रहते हैं... और धीरे-धीरे ये आंकड़ा लगातार बढ़ता ही जा रहा है।

इन लोगों में ज़्यादातर वो हैं, जो पेशेवर फ़ौजी नहीं बल्कि आम कामगार हैं... लेकिन हालात ने उन्हें सलीमा की तरह फ़ौजी बनने पर मजबूर कर दिया है... चूंकि ये सभी के सभी लोग लोकल हैं, आतंकवादियों के खिलाफ़ सलीमा की इस फ़ौज को जबरद्स्त लोकल सपोर्ट भी हासिल है...

आख़िर क्या है सलीमा मज़ारी का इतिहास?

अफ़ग़ानिस्तान में करिश्मा करनेवाली ये औरत आख़िर कौन है? हाथों में बंदूक थामे आतंकियों से टकराने की हिम्मत उसमें कहां से आई? अपने मुल्क को तालिबान से महफ़ूज़ रखने को लेकर उसका प्लान ऑफ़ एक्शन आख़िर क्या है? अगर आपको ये सब जानना है तो आपको सबसे पहले सलीमा का इतिहास जानना होगा...

दरअसल, अफ़गान मूल की सलीमा का जन्म 1980 में एक रिफ्यूजी के तौर पर ईरान में हुआ... वो ईरान में ही पली बढ़ीं और तेहरान की यूनिवर्सिटी से उन्होंने अपनी पढ़ाई भी पूरी की... अपने पति और बच्चों के साथ सलीमा ईरान में ही सेट्ल हो सकती थीं, लेकिन सलीमा ने ग़ैर मुल्क में अपनी आगे की ज़िंदगी गुज़ारने की जगह अफ़गानिस्तान में आकर काम करने का फ़ैसला किया... वो यहां बल्ख सूबे के चारकिंट की गवर्नर भी चुनी गईं...

लेकिन सलीमा की ज़िंदगी की असली चुनौती तो अभी बाकी थी... अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने जैसे ही अफ़गानिस्तान से अपनी फ़ौज को हटाने का फ़ैसला किया, तालिबानी आतंकी अपनी पर उतर आए।

बंदूक के दम पर एक-एक कर देश के अलग-अलग हिस्सों पर कब्ज़ा करने लगे... इसी के साथ शरिया क़ानून की आड़ में महिलाओं के साथ ज़्यादती भी होने लगी... और यही वो वक़्त था, जब सलीमा ने ये तय किया आतंकियों के आगे घुटने टेकने से बेहतर, उनसे मुकाबला करना है...

हज़ारा समुदाय से है तालिबान की दुश्मनी!

तालिबान अपने रास्ते में आनेवाले किसी भी शख्स के साथ कैसे निपटता है, ये पूरी दुनिया जानती है... कहने की ज़रूरत नहीं है कि अपनी बिरादरी के मुसलमानों के सिवाय वो किसी को भी बर्दाश्त नहीं करना जानता।

हजारा समुदाय के साथ तो उसकी पुरानी दुश्मनी है। असल में हजारा समुदाय के ज़्यादातर लोग शिया बिरादरी से आते हैं, और शियाओं के बहुत से रीति रिवाज तालिबान आतंकियों से मेल नहीं खाते... ऐसे में तालिबान शियाओं को भी विधर्मियों के तौर पर देखता है, उन्हें टार्गेट करता है।

ऐसे में हजारा समुदाय से ही आने वाली सलीमा और उनके लोगों के साथ तालिबान की रंजिश पुरानी है... ऊपर से तालिबान जिस तरह से महिलाओं पर ज़ुल्म करता है, उससे इतना तो तय है कि अगर कर लोग चारकिंट में भी तालिबान का राज कायम हो गया, तो वो किसी भी क़ीमत पर एक महिला को ज़िले के गवर्नर के तौर पर क़बूल नहीं करेगा।

ऐसे में सलीमा और हजारा समुदाय की ये लड़ाई असल में उनके वजूद की लड़ाई है, जिसे हर हाल में जीतना उनके लिए बेहद ज़रूरी है। और शायद ये सलीमा और उनकी फ़ौज का ही असर है कि आस-पास के कई इलाक़ों पर अपना कब्जा कर लेने के बावजूद तालिबान चारकिंट की तरफ़ बढ़ने से भी डर रहा है।

ज़मीन बेच कर खरीदे गोला-बारूद

चारकिंट का ज़्यादातर हिस्सा पथरीली ज़मीन वाला इलाक़ा है... यहां के लोगों की ज़िंदगी आम तौर पर खेती बाड़ी और मवेशी पालन के इर्द-गिर्द ही चलती है... लेकिन जबसे अफगानिस्तान में तालिबान का दबदबा बढ़ रहा है, चारकिंट के सामने वजूद का ख़तरा पैदा हो गया है।

ऐसे में सलीमा की अगुवाई में ना सिर्फ़ इलाक़े के आम लोग उसकी फ़ौज में शामिल हो रहे हैं, बल्कि अपनी ज़मीन बेच कर या गिरवी रख कर अपने लिए और अपनी फ़ौज के लिए गोला-बारुद और अस्लहे तक खरीद रहे हैं...

सलीमा पर है 2 लाख लोगों की हिफ़ाज़त का ज़िम्मा

सलीमा और उनकी फ़ौज चारकिंट में ठीक जिस जगह पर डटी है, वहां की आबादी क़रीब 30 हज़ार लोगों की है... इस लिहाज़ से देखा जाए तो सलीमा पर सबसे पहले 30 हजार लोगों की सेफ्टी और सिक्योरिटी की जवाबदेही है... लेकिन अगर पूरे ज़िले की बात करें, तो चारकिंट की आबादी क़रीब 2 लाख लोगों की है और सलीमा पर इस पूरी की पूरी आबादी को तालिबान से बचाने की जिम्मेदारी है।

एक गवर्नर के तौर पर सलीमा इन दिनों जहां चारकिंट के रोज़मर्रा से जुड़े मसले और विकास का काम देख रही हैं, वहीं लगातार अपनी फ़ौजी ताकत भी बढ़ाने में लगी हैं... अभी पिछले साल ही सलीमा ने करीब सौ तालिबानी आतंकियों को सरेंडर करने पर मजबूर कर दिया था, लेकिन वो तब की बात थी... अब हालात बदल चुके हैं... और फिलहाल तालिबानी सरेंडर करने के नहीं बल्कि टकराने की नीयत से आगे बढ़ रहे हैं।

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