अंधेरी सुरंग में 400 घंटे का रेस्क्यू ऑपरेशन, जब सब हार गए, तब 'इंसानी चूहों' ने ऐसे किया कमाल!
Uttarkashi Rescue: 652 लोगों की टीम ने दिनों रात मेहनत की, सुरंग से जंग जीतने का सबसे अहम पहलू चूहों वाली माइनिंग रहा।
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दिल्ली से शम्स ताहिर ख़ान की रिपोर्ट
Uttarkashi Rescue: 17 दिन... ठीक 400 घंटे... एक अंधेरी सुरंग... घुप्प अंधेरा... न हवा... न रौशनी... न खाना... न पानी... पत्थर जैसी पहाड़ की पथरीली फर्श पर बिस्तर, मगर आंखों से नींद कोसों दूर... बस यूं समझ लीजिए कि एक जिंदा कब्र में 41 जिंदा इंसान मुर्दा बन कर क़ैद थे। बाहर निकलने के लिए ना कोई रास्ता, ना दरवाजा, ना पहाड़ों के दामन से झांकती कोई खिड़की। 145 करोड़ हिंदुस्तानियों में से 41 हिंदुस्तानी अचानक जैसे कट गए हों मानों उनकी पूरी दुनिया ही साठ मीटर के एक अंधेरे सुरंग में घुट कर रह गई हो।
17 दिन... ठीक 400 घंटे
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इन 17 दिनों और कुल 400 घंटों के दौरान पहाड़ों और इंसानों के बीच एक ख़ामोश लड़ाई जारी थी। लड़ाई इसलिए खामोश थी कि जिन पहाड़ों के सीने और दामन पर बड़ी-बड़ी नुकीली मशीनें बार-बार वार किए जा रही थी, उससे गुस्सा कर या नाराज होकर कहीं पहाड़ फिर से नीचे जमीन पर आना ना शुरू कर दें। वैसे भी सदियों से पहाड़ों ने जब-जब अपने तेवर बदले हैं तबाही के ऐसे निशान छोड़े हैं जो एक पल में इंसान और इंसानी बस्तियों को मिटा गए। इस बार भी ये पहाड़ कुछ इसी तरह ठीक दिवाली की सुबह चार बजे 12 नवंबर को खुद के सीने को बड़ी बड़ी मशीनों से चाक किए जाने पर ऐसे ही नाराज हुए थे। ये पहाड़ों की नाराजगी ही थी जिसने 41 इंसानों को अपनी गोद में कैद कर लिया था।
एक अंधेरी सुरंग... घुप्प अंधेरा
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बात दिसंबर 2016 की है... जब पहली बार देवभूमि यानी उत्तराखंड की चार धामों गंगोत्री, यमुनोत्री, केदरनाथ और बद्रीनाथ को एक चौड़ी सड़क से जोड़ने का ऐलान हुआ था। इसके तहत लगभग 9 सौ किमी लंबी दो लाईन वाली सड़क को बनाने का काम शुरू हुआ। 12 हजार करोड़ रुपये का बजट था। अगले साल शायद काम पूरा भी हो जाए। इसी सड़क के रास्ते में उत्तरकाशी के क़रीब सिलक्यारा की पहाड़ियों को काट कर साढ़े चार किमी लंबी एक सुरंग बनाई जा रही थी। इस सुरंग के बन जाने से दो घंटे की दूरी पांच मिनट में तय हो जाती। सिलक्यारा की तरफ सुरंग की मुंह से 60 मीटर अंदर तक खुदाई हो चुकी थी लेकिन 12 नवंबर की सुबह 4 बजे अचानक पहाड़ का एक हिस्सा भरभरा कर नीचे गिर पड़ा। ये हिस्सा ऐसी जगह गिरा था, जहां से सुरंग का मुंह खुलता था। अब सिलक्यारा का मुंह बंद हो चुका था और दूसरी तरफ कोई रास्ता ही नहीं था। 12 नवंबर की सुबह सुरंग के 60 मीटर अंदर 41 मजदूर काम कर रहे थे और वो सब के सब अब अंदर फंस चुके थे।
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न हवा... न रौशनी... न खाना... न पानी
धीरे-धीरे फंसे मजदूरों की खबर उत्तरकाशी से देहरादून और फिर दिल्ली होते हुए पूरे देश में फैल गई और इसके साथ ही उन्हें बाहर निकालने की कवायद भी शुरू हो गई। वो तो शुक्र था कि मजदूर कुछ खाना-पानी अपने साथ ले गए थे, अगले कुछ दिन उसी से उनका गुज़ारा हुआ लेकिन फिर खाना-पानी भी खत्म। इसके बाद कई दिनों तक उन्हें भूखा रहना पड़ा। पहली बार 20 नवंबर को मजदूरों तक सही मायनों में खाना-पानी और दवाएं पहुंची। ये वही दिन था,जब देश ने कैमरे के ज़रिए सुरंग के अंदर फंसे मजदूरों का चेहरा देखा, उनकी आवाज़ सुनी। शुरू के कुछ दिनों तक लोकल लेवल और कंपनी के कारिदों के जरिए ही मजदूरों को बाहर निकालने की कोशिश की गई लेकिन कामयाबी नहीं मिली। इधर दिन तेजी से बीतते जा रहे थे। मौसम खराब होने का डर अलग सता रहा था। मजदूरों की जान लगातार खतरे की तरफ बढ़ रही थी। इन नाज़ुक हालात में सरकार भी हरकत में आई। ऐसे हालात से निपटने में माहिर और ऐसी सुरंग से बाहर निकालने के फन में उस्ताद दुनिया के कई देशों के एक्सपर्ट्स से संपर्क साधा गया।
पत्थर जैसी पहाड़ की पथरीली फर्श पर बिस्तर
इनमें नॉर्वे, थाईलैंड, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के एक्सपर्ट शामिल थे। इनमें सबसे काबिल एक्सपर्ट ऑस्ट्रेलिया के अर्नाल्ड डिक्स को तो आनन-फानन में ऑस्ट्रेलिया से उत्तराखंड ही बुला लिया गया। एक्सपर्ट के साथ-साथ पहाड़ों का सीना चाक करनेवाली ऑगर मशीनों के पुर्जे भी उत्तरकाशी तक पहुंच चुके थे। अब डिक्स की सरपरस्ती में सुरंग में इतनी जगह बनाने की कोशिशें शुरू हो गईं, जिनसे एक-एक कर मजदूरों को बाहर लाया जा सके। इसमें भी कई रुकावटें आईं। कभी मशीन खराब हो गई, तो कभी मशीन की ब्लेड ही टूट गई। बाद में मशीन का पुर्जा ही पहाड़ों के सख्त चट्टानों से टकरा कर पूरी तरह से टूट गया। बस शुक्र इतना था कि ऑगर मशीन ने दम तोड़ने से पहले 60 मीटर के फासले में से 48 मीटर का फासला पूरा कर लिया था यानी अब मजदूर अंधेरी सुरंग के अंधेरे और उजाले से फकत 12 मीटर की दूरी पर थे।
एक जिंदा कब्र में 41 जिंदा इंसान
आखिरी के इन 12 मीटर की दूरी को तय करने का अब एक ही रास्ता था या तो ऑगर मशीनों के ठीक होने का इंतजार करें या फिर नई मशीनें सुरंग तक पहुंचे लेकिन इसके बावजूद गारंटी नहीं थी। वजह ये कि जहां मशीन के पुर्जे टकरा कर टूट या फंस चुके थे, पहाड़ के उन हिस्सों में चट्टानें बेहद मजबूत थी। अगली मशीन का हश्र भी यही हो सकता था। ऑर्नल्ड डिक्स को भी इस बात का अंदाजा था इसीलिए उन्हें ये तक कहना पड़ा कि मजदूरों को बाहर निकाल तो लेंगे, लेकिन इसके लिए शायद क्रिसमस तक का इंतजार करना पड़ेगा। डिक्स के इस बयान के बाद उम्मीदें मायूसी में बदलने लगी थी। सब्र अपना दामन छोड़ने लगा था लेकिन तभी एक करिश्मा होता है और उस करिश्मे का नाम था -- चूहा।
साठ मीटर के एक अंधेरे सुरंग में घुटती जिंदगी
बात 1920 की है तब हम अंग्रेजों के गुलाम हुआ करते थे। अंग्रेजों ने देखा कि धनबाद में बेशुमार कोयले के खान हैं। तब कोयले की सख्त जरूरत भी थी। रेल गाड़ी आ चुकी थी। स्टीम इंजन का जमाना था और ये इंजन कोयले से ही चलता था लेकिन अंग्रेजों के सामने दिक्कत ये थी कि खान में कोयला तो भरा पड़ा था, पर उस कोयले तक पहुंचना और उसे बाहर निकालना आसान नहीं था। क्योंकि तब ऑगर जैसी मशीने तो छोड़िए, ऐसी मामूली मशीनें भी नहीं थी, जिनसे पहाड़ों को काट कर या जमीन में सुरंग कर कोयला बाहर निकाला जाता। तब अंग्रेजों को अचानक चूहों की याद आई। वही चूहे, जो घरों में घुस जाएं तो कपड़े कुतर डालें, वही चूहे अपने हाथों और मुंह से छोटे-छोटे सुरंग बना डालें। अंग्रेजों के चूहों की ये अदा बड़ी पसंद आई। इसी के बाद उन्होंने चूहों की इन हरकतों को इंसानों पर आजमाने का फैसला किया। अब धनबाद में कोयला के खानों में इंसान अपने दोनों हाथों से हथौड़ी और छेनी लिए बड़े बड़े पहाड़ों के सीने काट रहे थे। जमीन के अंदर बड़े बड़े गड्ढे खोद रहे थे और फिर उन्हीं हाथों से वो कोयला बाहर निकालने लगे। तब पहली बार ऐसे इंसानों को एक नाम मिला था, वो नाम था -- रैट माइनर।
एक नाम मिला था, वो नाम था -- रैट माइनर
इधर, उत्तरकाशी में सारे आइडियाज फेल हो रहे थे। मशीनें दगा दे चुकी थी। एक्सपर्ट्स क्रिसमस तक की मोहलत मांग रहे थे। तभी ऐसे में कुछ लोगों को अचानक रैट माइनर्स की याद आई। असल में अब फासला फकत 12 मीटर का था। 12 मीटर के इस फासले को रैट माइनर्स अपने हाथों से छेनी हथौड़े के जरिए आराम से पाट सकते थे पर तभी एक दिक्कत भी याद आई। दिक्कत ये कि पर्यावरण के रक्षक एनजीटी यानी नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने रैट माइनिंग पर 2014 से ही पाबंदी लगा दी थी। वजह ये थी कि मेघालय में कोयले के ऐसे कई खानों में हादसों का शिकार हो कर कई रैट माइनर्स दम तोड़ चुके थे लेकिन उत्तरकाशी में अब दूसरा कोई रास्ता सूझ भी नहीं रहा था। आला अफसरों में बात हुई और फिर तय हुआ कि अगर रैट माइनर्स की वजह से 41 मजदूरों की जान बचाई जा सकती है, तो उन्हें बुलाना चाहिए। फैसले को सरकारी हरी झंडी मिल गई।
अब फासला फकत 12 मीटर का
हरी झंडी मिलते ही उत्तराखंड से सबसे नजदीक झांसी में रैट माइनर्स की एक बेस्ट टीम के बारे में पता चला। फौरन उनसे संपर्क किया गया। जाहिर है ये सभी रैट माइनर्स खुद भी मजदूर थे। अपने जैसे मजदूर भाइयों की जान बचाने के लिए वो फौरन तैयार हो गए। इसी के बाद उन्हें उत्तरकाशी में मौजूद सिलक्यारा के उस सुंरग के मुहाने तक ले जाया गया, जिसके 60 मीटर अंदर 41 जिंदगियां जिंदगी और मौत के बीच झूल रही थी। मजदूरों को सुरंग में फंसे हुए 15 दिन हो चुके थे और ठीक 15वें दिन ही पहली बार अब रैट माइनर्स छेनी हथौड़े के साथ आखिरी 12 मीटर के चट्टानों को काटने के काम पर लग गए। रैट माइनर्स की तीन-तीन लोगों की दो टीमें बनाई गई। जिस ऑगर मशीन ने 48 मीटर तक का रास्ता साफ कर दिया था, वहां पाइप के जरिए एक बार में 3 मजदूर अंदर दाखिल होते हैं। सबसे आगे वाला छेनी और हथौड़े से पत्थरों की कटाई करता, फिर मलबे को हाथों से पीछे की तरफ फेंकता पीछे दूसरा रैट माइनर उन मलबों को एक तसले में भरता जाता।
ऑगर मशीन ने 48 मीटर तक का रास्ता साफ किया
एक बार में जैसे ही एक तसले में 6 से 7 किलो मलबा इकट्ठा हो जाता, तब वो उसे पीछे सरका देता। अब तीसरा रैट माइनर उस मलबे को तसले को खींच कर बाहर निकाल देता। पहली टीम जब थक जाती, तब दूसरी टीम इसी तरह अपने काम पर लग जाती। छह लोगों की इन दो टीमों ने अपने हाथों से ही पहाड़ों के दामन में 12 मीटर लंबा इतना बड़ा सुराख बना डाला जिससे एक इंसान आसानी से बाहर आ सकता था। 12 मीटर के इस फासले को छह रैट माइनर्स ने सिर्फ 27 घंटे में ही पूरा कर लिया। 27 घंटे बाद 28 नवंबर की रात ठीक 8 बजे उन्हीं 6 रैट माइनर्स की वजह से देश ने 17 दिनों से सुरंग में फंसे इस पहले मजदूर के बाहर निकलने की ये सुकून देने वाली तस्वीर देकी फिर इसके पीछे-पीछे एक-एक कर अगले 38 मिनटों में 41 के 41 मजदूर उस घुप्प अंधेरे कब्र से निकल कर कुछ इस तरह अपनी दुनिया में पहुंचे।
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