तालिबान ने हमें बेवतन कर दिया उन पर ऊपरवाले का कहर बरपे!
Taliban is still brutal, can't go back says Afghani refugees in india
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मुंबई से संवाददाता मुस्तफा शेख की रिपोर्ट
तालिबान के काबुल पर क़ब्जा करने की खबर को लेकर भारत में रह रहे अफगानी नागरिक बेहद परेशान हैं। उनके कई घरवाले और रिश्तेदार अभी तक अफगानिस्तान में ही फंसे हुए हैं। क्राइम तक ने ऐसे ही कुछ अफगानी नागिरकों से बात की जिनके परिवार अफगानिस्तान में फंसे हैं जबकि वो खुद भारत में हैं।
27 साल के हिमायूं बतूर एक महीने पहले ही काबुल से पुणे लौटे हैं। बतूर ने पुणे युनिवर्सिटी से ही मास्टर्स की पढ़ाई की है। काबुल में बिगड़ते हालातों की वजह से उन्हें पुणे आना पड़ा। “मेरा स्टूडेंट वीज़ा वेलिड था इस वजह से मेरे परिवार ने मुझे भारत जाकर खुद को सुरक्षित करने के लिए कहा, मैं जैसे-तैसे हिंदुस्तान पहुंच तो गया हूं लेकिन जिंदगी की जद्दोजहद अभी बाकी है”
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बतूर के मुताबिक काबुल में फोन का नेटवर्क खराब है लेकिन जैसे-तैसे वो उनसे बात करने में कामयाब हुए। 1996 में तालिबान ने अफगानी नागिरकों पर जो जुल्म किए उसकी वजह से अफगानिस्तान के लोग डरे हुए हैं।
बतूर के मुताबिक तालिबान बदलने का दावा कर रहे हैं लेकिन जिन जिलों पर तालिबान ने कब्जा किया है वहां पर लोगों के साथ वहशियाना रवैया अपनाने की खबरें काबुल तक पहुंच रही हैं।
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बतूर ने UNHCR में शरणार्थी स्टेटस के लिए एप्लाई किया है । तब तक बतूर अपने साथ लाए पैसों से किसी तरह से अपना गुजारा चला रहे हैं । वो पुणे में नौकरी भी तलाश कर रहे हैं हालांकि उन्हें लगता है कि इतनी आसानी से उन्हें नौकरी नहीं मिल पाएगी।
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बतूर को इस बात की भी चिंता है कि उनके अंकल तालिबान से लड़ते हुए साल 2016-17 में मारे गए थे। तालिबान अक्सर अफगानी सरकार और आर्मी के लिए काम करने वाले परिवारों को अपनी दहशत का निशाना बनाते हैं।
बतूर जैसी ही कहानी मोहम्मद अहमदी की भी है। 30 साल के अहमदी 10 साल पहले साल 2011 में अफगानिस्तान से पुणे आ गए थे। अफगानिस्तान में अहमदी अमेरिकी फौज के साथ ट्रांस्लेटर का काम करते थे लेकिन उन्हें लगा कि उनकी ये नौकरी उन्हें मुसीबत में डाल सकती है।दरअसल तालिबान ना केवल अमेरीकी फौज को निशाना बनाते थे बलकि अमेरिकी फौज की मदद करने वालों को भी नहीं छोड़ते थे।
लिहाजा दस साल पहले अहमदी पुणे आए और यहां से उन्होंने एमबीए करने के बाद नौकरी करना भी शुरु कर दिया लेकिन लॉकडाउन की वजह से उनकी नौकरी चली गई। कुछ दिन तक दोस्तों ने मदद की लेकिन जब उनके पास भी पैसे नहीं रहे तो ये मदद भी बंद हो गई। हालात से मजबूर अहमदी ने पुणे के ही एक मंदिर में शरण ले ली जहां पर उन्हें रहने की जगह और खाना मिलता है। अहमदी अब नौकरी ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं ताकि अपने भविष्य को सुरक्षित कर सकें।
दिल्ली में रहने वाले कई अफगानी नागरिकों की कहानी भी हिमांयू बतूर और मोहम्मद अहमदी जैसी है। दिल्ली के लाजपत नगर में रहने वाले अकरम बेहतर भविष्य की तलाश में पिछले तीन साल पहले अफगानिस्तान से दिल्ली आ गए थे। तालिबान के कब्जे की खबर से वो भी चिंता में हैं क्योंकि उनकी मंगेतर अभी भी अफगानिस्तान में ही फंसी हैं।
दिल्ली में रहने वाले ज्यादातर अफगानी परिवार रेस्तरां और बेकरी चलाते हैं। हालांकि उनके ज्यादातर रिश्तेदार अभी तक अफगानिस्तान में ही हैं। उन्हें लगता था कि किसी न किसी दिन वहां के हालात सुधरेंगे लेकिन तालिबान के आने के बाद अब उनकी सारी उम्मीद खत्म हो गई है। वहां पर अमेरिकी फौज या कंपनी में काम करने वालों को वहां से भागने पर इस वजह से मजबूर होना पड़ा क्योंकि तालिबान उन्हें निशाना बनाने की धमकी दिया करते थे।
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