LTTE Tigers Conflict: कारगिल में हुए शहीदों से तीन गुना ज़्यादा भारतीय सैनिक मारे गए थे श्रीलंका में भारतीय सैनिक
Sri Lankan Civil War: श्रीलंका में हुए लिब्रेशन ऑफ टाइगर्स तमिल ईलम के साथ हुए संघर्ष में भारत ने 1100 से ज़्यादा भारतीय सैनिक मारे गए थे। ये संघर्ष तमिल लोगों और सिंहली लोगों के बीच छिड़ा था जिसमें LTTE की कमान प्रभाकरन ने संभाली थी। इस संघर्ष
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Sri Lankan Civil War: भारत की पार्लियामेंट के रिकॉर्ड में दर्ज है कि श्रीलंका में भारतीय सेना के 1165 जवान शहीद हुए थे जबकि 3009 जवान घायल हुए थे। ये आंकड़ा भारत और पाकिस्तान के बीच हुए कारगिल युद्ध में शहीद हुए भारतीय सैनिकों की संख्या का करीब करीब तीन गुना है। और ये आंकड़ा 15 दिसंबर 1999 को भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस ने राज्यसभा में बताया था। और इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि श्रीलंका में लिट्टे की लड़ाई के दौरान भारतीय सेना को उस प्रभाकरन ने कितनी गहरी चोट पहुँचाई थी जिस प्रभाकरन के जिंदा होने की खबर फिर से सुर्खियों में चमक रही है।
दरअसल श्रीलंका में जातीय संघर्ष असल में सिंहली और श्रीलंकाई तमिल लोगों के बीच छिड़ा था। और सबसे हैरत की बात ये है कि इस संघर्ष की शुरुआत अंग्रेजों के जमाने में ही हो गई थी। कहते हैं कि श्रीलंका में सिंहली भाषा बोलने वाले लोग ही वहां के मूल निवासी है जो बौध धर्म के अनुयायी हैं। जबकि तमिल भाषा बोलने वाले लोग हिन्दू हैं। इनमें से ज़्यादातर वो लोग हैं जो 19वीं और 20 वीं सदी में चाय कॉपी और रबर के बागानों में कामगार बनने की गरज से दक्षिण भारत से श्रीलंका चले गए थे।
सिंहली लोगों का इल्जाम यही था कि तमिल लोग उनके संसाधनों पर कब्जा करके बैठ गए हैं और इसी बात पर दोनों के बीच संघर्ष शुरू हो गया था। 1948 में अंग्रेजों के कब्जे से आजाद होने के बाद 1956 में श्रीलंका की सरकार ने सिंहली ओनली एक्ट को लागू किया था।
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और उसी एक्ट का विरोध करने के लिए श्रीलंका में कई तमिल संगठनों ने सिर उठा लिया था। उन्हीं संगठनों में से एक संगठन बना था LTTE जिसे तमिल लिब्रेशन टाइगर्स ऑफ तमिल इलम कहा जाता था। और इस संगठन से ताल्लुक रखने वाले लड़ाकों को टाइगर्स कहा जाता था। इस संगठन का सरगना वेल्लुपिल्लई प्रभाकरन था। प्रभाकरन ने LTTE के जरिए श्रीलंका में तमिलों के लिए अलग देश की मांग की थी और इसी बात को लेकर उसने श्रीलंका में खूनी संघर्ष शुरू कर दिया था।
23 जुलाई 1983 को LTTE के लड़ाकों ने एक हमले में 13 श्रीलंकाई सैनिकों को मार दिया था और उसी के बाद श्रीलंका में बड़े पैमाने पर तमिलों के खिलाफ हिंसा भड़क उठी थी जिसमें तीन हजार से ज़्यादा तमिल लड़ाके मारे गए थे। इसी हमले का फायदा उठाकर बड़ी तादाद में तमिलों ने LTTE में शामिल होने की मुहिम छेड़ दी थी।
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अगले दो साल तक LTTE के टाइगर्स ने श्रीलंका में जमकर खूनी संघर्ष किया। गुरिल्ला युद्ध में माहिर हो चुके LTTE के लड़ाकों ने सिंहली लोगों के धर्मस्थल बोधि वृक्ष मंदिर पर हमला किया और महज एक घंटे के भीतर 150 लोगों को मौत के घाट उतार दिया। देखते ही देखते ये संघर्ष पूरे श्रीलंका में फैल गया और श्रीलंका सरकार के सैनिक और LTTE के लड़ाके जगह जगह भिड़ना शुरू हो गए थे। इसके बाद 1987 आते आते श्रीलंका के राष्ट्रपति जे आर जयवर्धने ने तमिलों के गढ़ कहे जाने ववाले जाफना में मिलिट्री शासन लागू कर दिया और इस संघर्ष के लिए 10 हजार से ज़्यादा सैनिकों को मोर्चे पर उतार दिया।
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ये वो दौर था जब श्रीलंका के राष्ट्रपति जयवर्धने की चीन और पाकिस्तान के साथ काफी नजदीकी हुआ करती थी। तब इस संघर्ष में भारत को कूदना पड़ा। ऐसे में भारत ने तमिलों की हिफाजत के लिए 2 जून 1987 में जाफना में समुद्र के रास्त से मदद भेजनी चाही जिसे श्रीलंका की नेवी ने बीच समंदर में ही रोक लिया। तब भारतीय एयरफोर्स ने 4 जून 1987 को ऑपरेशन पूमलाई लांच किया। इस ऑपरेशन में भारतीय वायुसेना ने पांच एंटोनोव AN-32 विमानों से 25 टन की राहत सामग्री के साथ उड़ान भरी थी। बताया जाता है कि उन विमानों को कवर करने के लिए भारतीय वायू सेना ने अपने मिराज लड़ाकू विमानों को लगाया था साथ ही इस बात का भी ऐलान भारत की तरफ से कर दिया गया था कि अगर उनके विमानों को कोई नुकसान पहुँचा तो इसे भारत के खिलाफ युद्ध माना जाएगा।
भारत के इस एक्शन ने श्रीलंका के राष्ट्रपति जयवर्धने को बैकफुट पर ला दिया और LTTE के साथ श्रीलंका की सरकार समझौता करने को राजी हो गई थी। ऐसे में भारत ने मध्यस्था की भूमिका अदा की। असल में भारत का मकसद साफ था। श्रीलंका में तमिलों को भारत सुरक्षा प्रदान करना चाहता था और उन्हें स्वायत्ता दिलाना चाहता था।
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