अफ़गानिस्तान से कैसे ख़ाली हाथ लौट रहा अमेरिका!

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अफ़गानिस्तान से कैसे ख़ाली हाथ लौट रहा अमेरिका!
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Special Report : लंबी खामोशी के बाद एक बार फिर अफगानिस्तान के अंदर से चीखें सुनाई दे रही हैं। क़रीब 20 साल से सोया तालिबान फिर से जाग उठा है। करीब 20 साल की जंग के बाद बिना कुछ हासिल किए अमेरिका ने अपने पैर वापस खींच लिए। अफगानिस्तान के शहर-शहर और ज़िले-ज़िले तालिबानी लड़ाके नामालूम कहां से अचानक नमूदार हो गए हैं। हालात गृहयुद्ध जैसे हैं। लड़ाई इंच-इंच ज़मीन की है।

और हक़ीक़त ये कि अफ़गान की मौजूदा सरकार धीरे-धीरे तालिबान के हाथों अपनी सत्ता खोती जा रही है। पर सवाल ये कि आखिर अचानक अफगान में ये कोहराम क्यों? ऐसा क्या हुआ कि एक बार फिर मुर्दा तालिबान ज़िंदा हो गया और ऐसा ज़िंदा हुआ कि सीधे क़ाबुल पर उसकी निगाह है। तो आइए... अफ़गान की इस मौजूदा हालात और मुर्दा तालिबान के ज़िंदा होने की पूरी कहानी समझते हैं।

अफगान, इराक, सोमालिया समेत विदेशी धरती पर बरसों से अमेरिकी सैनिक जंग लड़ रहे हैं। ज़ाहिर है जंग का खर्चा बड़ा होता है। एक शोध करनेवाली संस्थान आरएएनडी कॉर्पोरेशन के मुताबिक प्रत्येक अमेरिकी टैक्स पेयर हर साल क़रीब दस हज़ार से चालीस हज़ार डॉलर के बीच टैक्स इसी मकसद से देता है। यानी टैक्स के ये पैसे विदेशी धरती पर जंग लड़ रहे अमेरिकी सैनिक, उनके बेस पर आने-जाने, रहने खाने पीने, अस्पताल और अगर परिवार साथ हो, तो बच्चों के स्कूल का खर्च भी यही अमेरिकी टैक्स पेयर को देना होता है।

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जबकि जिस देश में अमेरिकी सैनिक जंग लड़ रहे होते हैं, उस देश का हिस्सा इसमें बहुत छोटा होता है। इसी वजह से आम अमेरिकी टैक्स पेयर इसको लेकर वक़्त वक़्त पर अपनी नाराज़गी जताते रहे हैं। उन्हीं अमेरिकियों की नाराज़गी को देखते हुए डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति चुनाव के अपने पहले चुनावी घोषणाओं में ये वादा किया था कि वो जब सत्ता में आएंगे, तो अफगानिस्तान समेत ऐसे कई युद्ध प्रभावित देशों से अपने सैनिकों को वापस बुला लेंगे। तभी ट्रंप ने ये भी ऐलान किया था कि मई 2021 तक अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिक वापस लौट आएंगे।

2020 में दोहा में डोनाल्ड ट्रंप और तालिबान में एक संधि हुई थी। इस संधि में ये तय हुआ था कि तालिबान अफगानिस्तान में मौजूद अमेरिकी सैनिकों या अमेरिकियों पर कोई हमला नहीं करेगा, तालिबान अलकायदा या दूसरे गुट के आतंकियों को अपने गिरोह में शामिल नहीं करेगा। साथ ही वो अफगान में हिंसा नहीं फैलाएगा। इसके बदले ट्रंप ने अफगानिस्तान से तमाम अमेरिकी सैनिकों को मई 2021 तक वापस बुला लेने का वादा किया था।

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संधि के बाद अमेरिका में सरकार बदल गई। जो बाइडेन नए राष्ट्रपति बने। लेकिन उन्होंने भी ट्रंप की इस संधि को मंज़ूरी दी। बस, अमेरिकी सैनिकों की लौटने की तारीख़ मई 2021 की बजाय 11 सितंबर 2021 कर दी। दरअसल, 11 सितंबर 2021 अमेरिका पर हुए सबसे बड़े आतंकी हमले की बीसवीं बरसी भी है। इसी 9/11 हमले के बाद 20 साल पहले अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला बोला था। तब अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार थी। अमेरिका ने इस हमले के बाद तालिबान को सरकार से उखाड़ फेंका था।

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पर सवाल पूछनेवाले सवाल पूछ रहे हैं कि आखिर अमेरिका अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को क्यों वापस बुला रहा है? जबकि अफगान में अब भी तालिबान ज़िंदा है और अमेरिका पिछले बीस सालों में अपना सबकुछ झोंकने के बाद भी तालिबान से जंग नहीं जीत सका। उल्टे इस दौरान अफगानिस्तान में अमेरिका को इस जंग की भारी क़ीमत चुकानी पड़ी। पैसों से भी और ज़िंदगियों से भी। आंकड़ों के मुताबिक पिछले बीस सालों में अमेरिकी सेना के 2400 से ज़्यादा पुरुष और महिला सैनिकों को जान गंवानी पड़ी।

बीस हज़ार से ज़्यादा अमेरिकी सैनिक घायल हुए। इसके अलावा अमेरिका के साथ जंग में शामिल ब्रिटेन के 450 सैनिकों समेत नाटो से जुड़े कई दूसरे देशों के भी सैनिकों की जानें गई या घायल हुए। पर जिस अफगानिस्तान के लिए अमेरिका ने ये जंग शुरू की, सबसे ज़्यादा उन्हीं अफगानियों को हुआ। साठ हज़ार से ज़्यादा अफगानी सैनिक और सुरक्षाकर्मी पिछले बीस सालों में तालिबान के हाथों मारे गए जबकि करीब डेढ़ लाख आम अफगानी नागरिकों को भी इस दौरान जानें गईं।

अमेरिका पर 9/11 की शक्ल में सबसे बड़ा आतंकी हमला अल कायदा चीफ़ ओसामा बिन लादेन ने किया था। इसी ओसामा को पकड़ने के लिए हमले के महीने भर बाद ही अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला बोला था। दलील ये दी गई थी कि तालिबान ओसामा को पनाह दिए हुए है। तब अफगानिस्तान में तालिबान की ही सरकार थी। और तालिबानी नेता मुल्ला उमर सरकार का सुप्रीम लीडर। जंग के शुरुआती दौर में अफगानिस्तान में करीब 5 हज़ार अमेरिकी सैनिक भेजे गए थे। धीरे-धीरे आनेवाले सालों में सैनिकों की तादाद बढ़ती गई।

इस दौरान अमेरिका ने तालिबान और मुल्ला उमर को सत्ता से बेदखल कर दिया। मुल्ला उमर काबुल छोड़ कर भाग गया। अब अफगानिस्तान में अमेरिका की सरपरस्ती वाली सरकार थी। अमेरिका ने अफगान सैनिकों को ट्रेनिंग देना शुरू किया, ताकि आनेवाले वक्त में वो खुद तालिबान और दूसरे आतंकी संगठनों का मुकाबला कर सकें। 2011 आते आते अफगानिस्तान में अमेरिका के करीब 1 लाख 10 हज़ार सैनिक इकट्ठा हो चुके थे। सैनिकों के अलावा अफगानिस्तान में बहुत सारे निजी सुरक्षा कांट्रैक्टर भी काम कर रहे थे। जिनकी तादाद लगभग 8 हजार के आस-पास थी।

एक ओसामा के लिए अमेरिका ने साल 2001 से 2019 तक अफगानिस्तान में करीब 822 अरब ड़ॉलर खर्च किए। यानी 61326 अरब रुपये। बीस लंबे साल और ऐबटाबाद में ओसामा की मौत के अलावा कुल मिलाकर इस जंग में अमेरिका के हाथ और कुछ नहीं लगा। ना तालिबान का वो सफाया कर पाया, ना तालिबान से पूरी तरह से जंग जीत पाया और ना ही अफगानिस्तान में शांति बहाल कर सका।

यानी कुल मिलाकर एक आधी-अधूरी जंग लड़कर करीब बीस साल बाद अमेरिका अफगानिस्तान से खाली हाथ लौट रहा है। 2020 में तालिबान के साथ हुए संधि के बाद से किश्तों में लगभग 95 फीसदी से ज्यादा अमेरिकी सैनिक अमेरिका लौट चुके हैं। ले दे कर करीब साढ़े तीन हज़ार अमेरिकी सैनिक इस वक़्त अफगानिस्तान में मौजूद हैं। जिनकी अमेरिका वापसी की आखिरी तारीख है, 11 सितंबर 2021.

पर तालिबान ने 11 सितंबर 2021 का भी इंतज़ार नहीं किया। इधऱ, किश्तों में अमेरिकी सैनिक अमेरिका जहाज पकड़ रहे थे। उधर बेहद खामोशी से तालिबान अफगानिस्तान की ज़मीन पर कब्जा करते जा रहे थे। और अगर खबर सही है तो अफगानिस्तान में अब भी साढ़े तीन हज़ार अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी के बावजूद अफगानिस्तान के आधे से ज़्यादा इलाक़ों पर तालिबान कब्जा भी कर चुका है। अब सवाल ये है कि तालिबान के इस पलटवार के बाद अमेरिका अब भी अपने दोहा संधि पर कायम रहेगा या फिर तालिबान से अफगान को बचाने के लिए अमेरिकी सैनिक रिटर्न टिकट लेकर फिर से अफगान पहुंचेंगे।

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