हमारा झंडा तिरंगा क्यों? तिरंगे की यात्रा और झंडा बनने का दिलचस्प किस्सा, इतनी बार बदली है राष्ट्रीय ध्वज ने शक्ल
History Of tricolour: हम 15 अगस्त और 26 जनवरी को जो झंडा फहराते हैं और शान से उसे सलामी देते हैं मगर क्या हम उस झंडे के तिरंगे होने की कहानी जानते हैं..तो चलिए हम आपको सुनाते हैं..।
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History Of tricolour: आज जब सुबह हम सब अपने मोहल्ले में 15 अगस्त की तैयारी कर रहे थे। झंडा लगाने वाली जगह को ठीक कर रहे थे, और तिरंगे को फहराने के लिए उसे रॉड के सहारे डोरी से लपेटकर लटका रहे थे, तभी एक छोटे से बच्चे ने एक सवाल किया। उसका सवाल बेशक मासूम था, मगर उसका जवाब किसी भी सूरत में मासूम नहीं हो सकता। बल्कि उसके लिए बहुत पढ़ने की जरूरत पड़ सकती है। बहुत सी किताबें खंगालने पड़ सकती हैं। और फिर भी मुमकिन है कि सवाल का पूरा जवाब न मिल सके।
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बच्चे का सवाल था कि हमारा झंडा तिरंगा ही क्यों है। इसमें और कलर्स क्यों नहीं हैं। केसरिया, सफेद और हरा ही क्यों है? ये सवाल हरेक बाल मन में कुलांचे भर सकता है। हर किसी को ये सवाल खटक सकता है, किसी के भी पेशानी पर बल पैदा कर सकता है। आखिर वो कहानी क्या है कि इस तिरंगे में ये तीन ही रंग क्यों हैं?
हमारा मौजूदा झंडा यानी तिरंगा इस शक्ल और इस आकार का कैसे है इसकी कहानी से पहले ये जान लीजिए कि इस तिरंगे को 22 जुलाई 1947 को इस शक्ल में हम सभी ने स्वीकार लिया था क्योंकि भारतीय संविधान सभा की बैठक के दौरान इस झंडे को इसी स्वरूप और इसी शक्ल मे अपनाया गया था। तिंरगे को ये शक्ल दी थी आंध्र प्रदेश के पिंगली वैंकैया ने। केसरिया, सफेद और हरे रंग से मिलकर बने इस तिरंगे ने इस शक्ल और इस सूरत को पाने से पहले न जाने कितने चेहरे और कितने आकार बदले।
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आप जानकर हैरान हो जाएंगे कि इस राष्ट्रीय ध्वज को बनने से पहले कई और राष्ट्रीय ध्वज रह चुके हैं। इन्हीं पिंगली वैंकैया ने साल 1921 में केसरिया और हरा झंडा सामने रखा था। लेकिन उसे पूरी तरह से नहीं अपनाया गया। बल्कि जालंधर के लाला हंसराज ने महात्मा गांधी जी के सुझाव के बाद झंडे में केसरिया और हरे रंग के बीच एक सफेद पट्टी जोड़ी और फिर उसमें चर्खा बना दिया।
लेकिन इस झंडे को ज्यादा समय तक अपनाया नहीं जा सका। क्योंकि 1907 में पेरिस में मैडम भीकाजी कामा और उनके साथ देश निकाला दिए गए कुछ क्रांतिकारियों ने मिलकर जर्मनी में एक झंडा फहराया था। वो झंडा पहले वाले झंडे से ही मिलता जुलता था लेकिन उसमें सबसे ऊपर लाल रंग की पट्टी पर सात तारे थे जो सप्तऋषि का प्रतीक थे साथ ही हरी पट्टी पर सूरज और चांद बने हुए थे। उसमें भी देवनागरी में वंदे मातरम लिखा हुआ था।
इस झंडे को तभी से हिन्दुस्तान का प्रतिनिधित्व करने वाली तमाम गोष्ठियों और समारोह में फहराया जाने लगा। इस झंडे को कांग्रेस के अधिवेशनों में भी देखा गया। लेकिन साल 1917 आते आते इस झंडे ने एक बार फिर अपनी सूरत और सीरत बदली।
डॉक्टर एनी बीसेंट और लोकमान्य तिलक ने घरेलू शासन आंदोलन के दौरान नए झंडे को फहराया जो दूसरे वाले झंडे से जुदा था। इस नए झंडे में 5 लाल और 4 हरी पट्टियां थीं जो एक दूसरे के साथ हॉरिजॉन्टल थीं। लेकिन इसमें एक ओर सप्तऋषि के स्वरुप में सात तारों को भी दिखाया गया था। जबकि बाईं ओर किनारे ऊपर की तरफ एक यूनियन जैक भी लगाया गया था और दाईं तरफ ऊपर की ओर किनारे सफेद अर्ध चंद्र के साथ एक सितारा रखा गया था।
अगले कई सालों तक वही झंडा हिन्दुस्तानियों को शान बना रहा, लेकिन साल 1921 तक आते आते पूरे संसार का राजनैतिक माहौल और समीकरण के साथ दशा और दिशा सब कुछ करवट लेने लगी थी। पूरी दुनिया में रूस का दबदबा बढ़ने लगा था। भारत में आजादी की लड़ाई लड़ रहे कांग्रेसी कमेटी ने तय किया कि झंडे में बदलाव जरूरी है। और 1921 में बेजवाड़ा में नया झंडा फहराया गया जिसमें तीन रंग थे। एक लाल और दूसरा हरा। और तीसरा सरफेद। लाल रंग हिंदुओं का प्रतीक था जबकि हरे रंग से मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कर रहा था। जबकि बाकी बचे हुए समुदायों को सफेद रंग में समाहित कर लिया गया था जबकि उसी सफेद पट्टी पर चलता हुआ चरखे का प्रतीक चिन्ह दिखाया गया था।
1921 से लेकर 1931 तक यही झंडा हिन्दुस्तान का झंडा रहा लेकिन साल 1931 में हमारे झंडे ने एक और सूरत बदली और उसने वही शक्ल ली जिसे हम आज देखते हैं। बस अंतर ये है कि भारतीय सेना के संग्राम के इस प्रतीक में सफेद पट्टी पर अशोक चक्र बना है जिसमें 24 तीलियां हैं। और इसी झंडे को इंडियन नेशनल कांग्रेस ने अपनी आजादी से कुछ अरसा पहले ही अपनाया था।
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