इससे पंगा लिया तो ये घर में घुसकर मारेगी!
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हा मोसाद ले मोदी-इन उले तफकिदिम मेयूचदिम। दुनिया की सबसे खतरनाक और दर्दनाक खुफिया एजेंसी मोसाद का यही पूरा नाम है। दुनिया भर में खुफिया तौर पर सूचनाओं को इकठ्ठा करना और देश के बाहर दुश्मन की हर छोटी बड़ी गतिविधियों पर नज़र रखना ही मोसाद का काम है।
इस इजरायल खुफिया एजेंसी का इतिहास इतना खूंखार है कि कोई भी इससे दुश्मनी मोल लेने से पहले हज़ारों बार सोचता है, क्योंकि एक बार मोसाद की हिट लिस्ट में आने के बाद दुश्मनों का खुदा ही खैर करता है।
मोसाद, एक ऐसा नाम जिसे सुनते ही थर्रा जाते हैं बड़े-बड़े आतंकी सूरमा। दुनिया के नक्शे पर एक छोटे से देश की खुफिया एजेंसी जिसके नाम से आतंकी संगठन ही नहीं, उनके आका और हुक्मरान भी खौफ खाते हैं। क्योंकि यह एजेंसी अपने मुल्क के दुश्मनों के खिलाफ एक किलिंग मशीन की तरह काम करती है।
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दुनियाभर में नरसंहार करने वाली नाज़ी सेना को भी अगर किसी नाम से सबसे ज़्यादा डर लगता था, तो वो था मोसाद। क्योंकि मोसाद दुनियाभर की तमाम खुफिया एजेंसियों की तरह खुफिया खबरों को समेटने तक ही महदूद नहीं थी, बल्कि ये अपने दुश्मनों को दुनिया के किसी भी कोने से ढ़ूंढकर मारने के लिए मशहूर है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नाज़ियों ने यहूदियों का नरसंहार तो कर दिया था लेकिन वो इस बात से अंजान थे कि उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ेगी, जैसे ही मोसाद ने नाज़ियों को सबक सिखाने की ठानी, वैसे ही आए दिन आला नाज़ी अधिकारियों की हत्याओं की खबर सुर्खियां बनने लगीं। दुनिया में कहीं भी यहूदियों पर आंच आई तो मोसाद ने उसका गिन गिनकर बदला लिया।
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ब्रिटिश राज से आज़ादी मिलने के बाद इज़राइल पर अरब के हमले तब तक जारी रहे जब तक प्रधानमंत्री डेविड बेन-गुरियोन ने मोसाद का गठन नहीं कर लिया। 13 दिसम्बर 1949 को मोसाद का गठन किया गया, औऱ बेहद कम वक्त में अपने ख़ु़फिया कारनामों की वजह से ही मोसाद दुनिया की सबसे बेहतरीन और शातिर ख़ु़फिया एजेंसियों में शुमार होने लगा।
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13 दिसंबर, 1949 को इज़राइल के तत्कालीन प्रधानमंत्री डेविड बेन गूरियन की पहल पर सेना के खुफिया विभाग, आंतरिक सुरक्षा सेवा और विदेश विभाग के साथ तालमेल और आपसी सहयोग को बढ़ाने के लिए मोसाद की स्थापना की गई थी। इज़राइल सरकार ने मोसाद का गठन आतंकवाद से लड़ने के लिए किया था। बाद में 1951 में मोसाद को इज़राइल के प्रधानमंत्री कार्यालय के अधीन कर दिया गया। इसकी रिपोर्टिंग भी प्रधानमंत्री को ही होती है।
रियूवेन शिलोआ को मोसाद का पहला डायरेक्टर बनाया गया था। शिलोआ 1952 में रिटायर हुए थे। इसके बाद उसकी कमान इससर हरल के पास आ गई थी। हरल ने अपने 11 साल की कार्यावधि में इसे खूंखार और आतंकियों की किलिंग मशीन के रूप में तब्दील कर दिया।
आज के दौर में मोसाद के पास टॉप क्लास सीक्रेट एजेंट, हाईटेक इंटेलीजेंस टीम, शार्प शूटर और कातिल हसीनाओं समेत कई तरह के जासूस और गुप्त योद्धाओं की फौज है। मोसाद के एजेंट्स इतनी सफाई से काम को अंजाम देते हैं कि कोई सबूत भी नहीं बचता।
अपनी स्थापना के बाद से, मोसाद सरकार की जरूरतों के आधार पर खुफिया जानकारी जुटाने में शामिल रही है। ये काम विभिन्न माध्यमों से किया जाता है, जैसे ह्यूमन इंटेलीजेंस और सिग्नल इंटेलीजेंस आदि तरीकों से, जिसे दूसरा कोई समझ न सके। आज भी मोसाद ऐसे ही काम करती है। मोसाद ने दूसरे देशों की खुफिया सेवाओं के साथ खुफिया संबंध भी विकसित और बनाए रखा है।
मोसाद उन देशों के साथ गुप्त संबंध स्थापित करने में भी शामिल है जो खुले तौर पर साथ इज़राइल का साथ देने से बचते हैं। शुरुआती दौर में मोसाद ने यहूदियों को अशांत देशों से छुड़ाने और उन्हें इज़राइल लाने का काम किया। जैसे इथियोपिया के यहूदियों को इज़राइल लाने के लिए मिवत्जा मोशे यानी ऑपरेशन मूसा था।
आमतौर पर मोसाद विदेशों में यहूदी और इज़राइली लोगों पर होने वाली आतंकी घटनाओं के खिलाफ युद्ध में महारत हासिल है। सालों से मोसाद ने उन देशों को रोकने में अहम भूमिका निभा रहा है, जो गैर-पारंपरिक हथियार प्राप्त कर इस्राइल के लिए खतरा पैदा कर सकते हैं।
इज़राइल के तीन बड़े खुफिया संगठन अमन, शिन बेट और मोसाद हैं। इनमें से एक मोसाद के भी दो काउंटर टेररिज्म यूनिट हैं। पहली यूनिट है मेटसाडा जो दुश्मन पर हमला करती है। जबकि दूसरी किडोन है। इसका काम गुप्त ही रखा गया है। लेकिन मोटे तौर पर ये आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई करती है। मेटसाडा की भी अपनी अलग यूनिट्स हैं।
अपनी स्थापना के बाद से ही मोसाद ने धीरे-धीरे हर मुल्क़ में अपने पांव पसारने शुरू कर दिए, आज ऐसा शायद ही कोई देश है जहां मोसाद की पहुंच नहीं, और अगर मोसाद को शातिर और खतरनाक कहा जाता है तो उसके पीछे वजह भी है।
इराक के परमाणु हथियार के मंसूबों पर पानी फेरने वाला कोई और नहीं मोसाद ही था। मिस्र और ईरान में घुसकर इज़राइल के दुश्मनों को मारने वाला मोसाद है, और ब्लैक सेप्टेंबर के सरगना अली हसन सालमेह की लेबनान में हत्या करवाने के पीछे भी मोसाद है।
मोसाद अपने मंसूबों को अंजाम देने के लिए कहीं भी और कुछ भी कर सकता है, सीरिया में मोसाद की पहुंच तो यहां तक थी कि सीरिया के राष्ट्रपति के क़रीबी को ही उसने अपना जासूस बना लिया था। जो बाद में रक्षा मंत्री पद का दावेदार भी बना, जबकि फिलीस्तीन के ख़िला़फ इसकी मुहिम तो सबसे ख़तरनाक दौर में है।
ऐसा नहीं है कि मोसाद के अड्डे इन्हीं देशों तक सिमटे हों, भारत-पाकिस्तान में भी मोसाद ने अपनी जड़ें इतनी मज़बूत कर रखी हैं कि दोनों देशों की ख़ु़फिया एजेंसियों को जो बात पता नहीं होती। वो खबर मोसाद के पास होती है, मोसाद के बारे में कहा जाता है कि वो दुनिया के चप्पे-चप्पे में मौजूद है और कोई भी ख़ु़फिया जानकारी उसकी पहुंच से दूर नहीं।
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