इस 'मौत' से मौत को भी पसीना आ जाता है!

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इस 'मौत' से मौत को भी पसीना आ जाता है!
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जहां मौत खुद पनाह मांगने लगती है, जब रूह उस मौत को देखकर थरथराने लगे, जब सांसें उस मौत का नाम सुनकर कांप उठती है। तब इंसान मौत से पहले मर जाता है। दुनिया में मौत देने के लिए ऐसे ऐसे तरीके ईजाद किए गए हैं जिनसे खुद मौत को पसीना आ जाता है। मौत के उन तरीकों को देखकर इंसान मौत से पहले मर जाता है।ये मौत देने के ऐसे तरीके हैं जिनके सामने गुनाह बौने नज़र आते हैं, जिनके सामने गुनाहगार अपने बाल नोचने लगता है, देखने वालों की सांसे थम जाती है।

लीथल इंजेक्शन

अमेरिका के अल्बामा में डैरिक मैसन नाम के एक हत्यारे को जब मौत की सज़ा सुनाई गई और लीथल इंजेक्शन देने का आदेश दिया गया, तब अमेरिकियों की रूह कांप उठी, क्योंकि लीथल इंजेक्शन का मतलब क्या है ये वो ही जानते हैं जिन्होंने किसी अपने को लीथल इंजेक्शन से मरते हुए देखा है। क्योंकि जब जब ये इंजेक्शन वाली मशीने एक्टीवेट होती हैं, तब तब मौत की चीखें गूंजती हैं। इंसान तड़पते तड़पते दम तोड़ने लगता है, देखने वालों का कलेजा कांप उठता हैं। लेकिन एक बार ये मौत का केमिकल शरीर में घुसना शुरू हो जाता है तो इंसान की रूह को बाहर निकाल कर ही रूकता है। ये दुनिया में मौत देना का सबसे दर्दनाक तरीका है।

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अमेरिका में जब जब किसी को मौत की सज़ा सुनाई जाती है, तब तब सज़ा-याफता इंसान के जिस्म में बारी बारी घुसते हैं मौत के तीन इंजेक्शन, मौत के इन तीन इंजेक्शनों में भरे होते हैं ऐसे केमिकल, जिसके लगने से पहले ही इंसान का दम डर के मारे निकल जाता है।

इसमें पहली सीरिंज में होता है सोडियम थियोपेंटल, जो इंसान के शरीर में जाते ही उसे बेसुध कर देता है। दूसरी सीरिंज में पैनकूरोनियम ब्रोमाइड होता है, जो इंसान के शरीर को पैरालाइज़्ड कर उसकी सांसों को रोक देता है। और तीसरी सीरिंज में होता है पोटेशियम क्लोराइड, जो दिल को काम करने से रोक देता है। अमेरिका में कैपिटल पनिशमेंट के लिए मौत की सज़ा, इन्हीं जानलेवा इंजेक्शनों से दी जाती है।

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अमेरिका में कैपिटल पनिशमेंट के लिए 1888 में लीथल इंजेक्शन का सुझाव दिया गया था, इसे सबसे सस्ती और दर्दनाक मौत माना जाता है। अमेरिका के अलावा चीन, ग्वाटेमाल, फिलीपींस, थाईलैंड, ताइवान औऱ वियतनाम जैसे देशों में मौत की सज़ा के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

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मौत की सज़ा पा चुके लोगों को लीथल इंजेक्शन दिए जाने पर कई बार बहस भी हो चुकी है, जिन लोगों ने लीथल इंजेक्शन से आरोपरियों को मरते हुए देखा है उनका कहना है कि क्या किसी को इतनी दर्दनाक मौत देना ठीक है।

मौत की कुर्सी

दुनिया ने सज़ा-ए-मौत के लिए बहुत सारे तरीकों को देखा, लेकिन मौत की कुर्सी जैसी दर्दनाक मौत नहीं देखी होगी। जो इंसान को तड़पने का मौका भी नहीं देती, इंसान आधा तो तभी मर जाता है जब मौत की कुर्सी को देखता है। अमेरिका में कैप्टिल पनिशमेंट के लिए इलेक्ट्रिक करंट वाली कुर्सी पर बैठाकर मौत दी जाती है।

आप अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते कि जो इंसान मौत कुर्सी पर बैठता है उसके मन की क्या स्थिति होती है? उसे चैंबर में बैठा हर इंसान उसे जल्लाद नज़र आता है, मौत की कुर्सी लकड़ी की होती है जिसपर पहले गुनाहगार को बैठाया जाता है, और फिर उसके हाथ पैरों को बेल्ट से बांध दिया जाता है। ताकि जब उसके शरीर में 2 हज़ार वोल्ट का करंट दौड़ाया जाए तो वो हिल भी न सके।

दिमाग की नसे न फंटें इसलिए इंसान के सिर पर एक चमड़े का पट्टा बांधा जाता है और फिर उसके चेहरे को भी बांध दिया जाता है, वक्त होने पर चैंबर में मौजूद अधिकारी के एक इशारे पर दबा दिया जाता है दो हज़ार वोल्ट के करंट वाली इलेक्ट्रिक चेयर का बटन। इंसान तड़पता है लेकिन वो हाथ-पैर नही हिला सकता, 2 हज़ार वोल्ट का करंट जिस इंसान के जिस्म में दौड़ रहा होता है उसकी नसे जिस्म से बाहर निकलने लगती है, आंखों से खून बहने लगता है औऱ महज़ एक मिनट के अंदर इंसान दम तोड़ देता है। लीथल इंजेक्शन से पहले अमेरिका में मृत्यु दंड मौत की कुर्सी पर दिया जाता था, अमेरिका में कई दशकों तक इलेक्ट्रिक चेयर ने मौत बांटी है।

इस कुर्सी पर बैठने के बाद इंसान को तीन चरणों में मारा जाता है, महज़ 15 सेकेंड में 2 हज़ार वोल्ट का करंट झेलने के बाद इंसान का दिमाग काम करना बंद कर देता है, और वो बेसुध हो जाता है। फिर बारी बारी से शरीर के महत्वपूर्ण अंग बेकार होने लगते हैं, और फिर एक वक़्त वो भी आता है जब इतने हाई वोल्टेज कंरट की वजब से इंसान का हार्ट फेल हो जाता है।

  • अमेरिका में 1924 में पहली बार इलेक्ट्रिक चेयर पर दिया गया मृत्यु दंड..

  • लीथल इंजेक्शन के मुकाबले इलेक्ट्रिक चेयर को अमानवीय मान गया..

  • दोषियों ने इलेक्ट्रिक चेयर पर मौत की सज़ा दिए जाने पर अरूचि दिखाई

दरअसल इलेक्ट्रिक चेयर पर जो मौत दोषियों को दी जाती है, उसमें उनके जिस्म के हिस्से बेकार हो जाते हैं, और शरीर बुरी तरह से जल जाता है। जिसपर आरोपियों के परिवारवाले को कड़ा एतराज़ था, लोगों के इस विरोध को देखते हुए अमेरिका में दोषियों को इलेक्ट्रिक चेयर के बजाए लीथल इंजेक्शन के ज़रिए दिया जाने लगा मृत्युदंड।

फायरिंग स्कॉड

दुनिया में सबसे खौफनाक मौत कोई देता है, तो वो हैं फायरिंग स्कॉड। एक साथ गोलियों की बौंछारे करके फायरिंग स्कॉड एक पल में किसी इंसान को ज़मीन पर ढेर कर देते हैं। वैसे सजा-ए-मौत देने का ये सबसे पापुलर तरीका, एक दो नहीं बल्कि कई देशों में दोषियों को ऐसे ही दिया जाता है मृत्युदंड। मौत देने का ये सबसे दर्दनाक तरीका सबसे ज़्यादा फिनलैंड में इस्तेमाल किया जाता है।

  • द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान फिनलैंड में 500 दोषियों को फायरिंग स्कॉड ने मौत के घाट उतारा

  • इनमें से ज़्यादातर वो जासूस थे जो देश के खिलाफ जासूसी कर रहे थे..

  • इसके अलावा इंडोनेसिया, आयरलैंड, इज़राइल, इटली, मैक्सिको, नीदरलैंड, नार्वे, फिलीपींस और ब्रिटेन जैसे देशों में भी मृत्युदंड देने के लिए फायरिंग स्कॉड को बुलाया जाता है

मौत का ये सबसे ज़ालिम तरीका दुनिया में इसलिए सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया गया क्योंकि इसमें इंसान को तड़पने का भी मौका नहीं मिलता। एक इशारे पर इंसान के जिस्म में इतनी गोलियां पैवस्त कर दी जाती हैं, कि इंसान हिल भी नहीं पाता है। गोली मारने से पहले फायरिंग स्कॉड दोषी के हाथ, पैर और आंखों को बांध देते हैं, ताकि इंसान अपने जिस्म को हिला न सके। और इनका निशाना न चूके, लेकिन कुछ दोषी ऐसे भी होते हैं। जो अपनी आंखों को खुला रखते हैं।

फायरिंग स्कॉड के हर सिपाही को सामने खड़े दोषी के जिस्म के उस अलग अलग हिस्से पर निशाना लगाने की हिदायत होती है, जिससे इंसान एक बार में ही अपना दम तोड़ दे।

गैस चेंबर

जब जब किसी मुजरिम को सजा-ए-मौत दी जाती है, तब तब वो बस एक ही दुआ करता है, कि उसे जो मौत मिले वो गैस चेंबर में बंद होकर न मिले। क्योंकि एक बार गैस चेंबर में किसी इंसान को बंद कर दिया गया, तो मरने से पहले कई बार मरता है।

अमेरिका

जर्मनी

फ्रांस

कोरिया

ये वो देश हैं जहां मौत की सज़ा का मतलब है, वो ज़हरीली गैस जो महज़ कुछ लम्हों में सांसों को थाम लेती है। एक बार जब मौत के चैंबर में गैस निकलना शुरू होती है, तो उसके बाद सिर्फ कुछ सेकेंड लगते हैं। एक जीते जागते इंसान को लाश बनने में।

जैसे ही चैंबर में लगा टिगर दबाया जाता है, चैंबर में निकलती हैं एक साथ तीन तीन ज़हरीली गैस-

हाईड्रोजन सायनाइड

कार्बन डाईआक्साइड

और कार्बन मोनोआक्साइड

इन जहरीली गैसों का असर ऐसा होता है, कि चंद लम्हों में ही ज़िंदा इंसान लाश बनकर निकलता है। जर्मनी में नाज़ी से सेना ने इन्हीं ज़हरीली गैसों से कैदियों का नरसंहार किया था, सन 1920 के शुरूवाती दिनों में अमेरिका में मौत की सज़ा पा चुके मुजरिमों ने गैस चेंबर में दी जाने वाली मौत अस्वीकार कर दी। मुजरिमों का कहना था कि किसी भी तरीके से उन्हें मौत दी जाए, उन्हें कबूल है, लेकिन वो गैस चेंबर में नहीं मरना चाहते है।

  • अमेरिका में खासकर हत्या के दोषियों को दिया जाता है गैस चेंबर में मृत्युदंड

  • अमेरिका के नेवादा की स्टेट जेल में पहली बार इस्तेमाल किया गया गैस चेंबर

  • 1999 आखिरी बार किसी दोषी को गैस चैंबर में दी गई मौत

दुनिया में गैस चैंबर को सबसे लकलीफदेह मौत माना गया है।

फांसी

हिंदुस्तान में सज़ा-ए-मौत का मतलब होता है फांसी, दुनिया में मृत्युदंड का यही वो तरीका है जो सबसे ज़्यादा अपनाया गया है। मौत की यही वो एक सज़ा है, जो किसी मुजरिम को सूली पर चढ़ने से पहले सबसे ज़्यादा शर्मसार करती है।

मुजरिम के चेहरे को जब काले कपड़े से ढ़का जाता है, और रस्सी उसकी गर्दन पर कसी जाती है तो वो बस एक ही चीज़ कहता है, मुझे माफ कर दो। लेकिन जल्लाद को किसी की फरयाद सुनाई नहीं देती है, उसे दिखाई देता है तो बस वो इशारा जो वहां खड़ा अधिकारी उसे देता है। न्यायिक प्रक्रिया में जो फांसी दी जाती है वो तीन तरह की होती है,

पहली शॉर्ट ड्रॉप

यानी कम दूरी से सूली पर चढ़ाना, 19वीं सदी में फांसी देने के लिए शॉर्ट ड्रॉप का इस्तेमाल किया जाता था।

दूसरा स्टैंडर्ड ड्रॉप

4 से 6 फीट की उंचाई से सूली पर चढाए जाने को स्टैंडर्ड ड्रॉप कहा जाता है। 20 सदी में कैदियों को स्टैंडर्ड ड्रॉप के तहत ही फांसी दी जाती थी।

तीसरा लांग ड्रॉप

सूली चढ़ाने के इस तरीके में कैदी की लंबाई और वज़न के हिसाब फांसी के प्लेटफार्म की ऊंचाई तय की जाती है, वर्तमान में फासी के इसी तरीके का इस्तेमाल किया जाता है।

मौजूदा समय में दुनिया के कई देशों में जघन्य अपराध के लिए मुजरिमों को सूली पर चढ़ाया जाता है, अरब देशों में तो सरेआम फांसी दिया जाना बहुत आम है। भारत में तो सज़ा-ए-मौत का मतलब ही फांसी होता है। देश के कई जेलों में मृत्युदंड के लिए फांसीघर बने हुए हैं।

गिलटीन

जिस तरह एक बड़ी सी आरी लकड़ी को काटती है, दुनिया के कुछ देशों में उससे भी कहीं ज़्यादा खतरनाक तरीके से मुजरिमों की गर्दन काटी जाती है। इस मृत्युदंड को कहा जाता है गिलटीन।

कहते हैं गुनाह करना, लेकिन इतना बड़ा गुनाह कभी मत करना कि उसकी सज़ा गिलटीन हो। दुनिया में शायद इससे दर्दनाक, खौफनाक और बेरहम सज़ा कोई और नहीं सकती। जहां इंसान की गर्दन को उसके धड़ से इस तरह अलग कर दिया जाता है जैसे कोई सब्ज़ी काटी जा रही हो। एक तेज़ धार वाली ब्लेड करीब 5 फीट की उंचाई से छोड़ी जाती है, जो एक झटके में इंसान की गर्दन को धड़ से अलग कर देती है।

फ्रांस के लोग अभी फ्रेंच रेवेल्यूशन का वो दौर नहीं भूले हैं, जब एक एक दिन में दर्जनों इंसानों का सिर धड़ से अलग कर दिया जाता था, धारदार ब्लेड ने इतने सर धड़ से अलग किए हैं जितने आप अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते,

  • फ्रेंच रेवेल्यूशन के दौरान 1793 से लेकर 1794 तक यानी सिर्फ एक साल में करीब 40 हज़ार लोग मारे गए

  • फ्रेंच रेवेल्यूशन के दौरान डॉ. जोसेफ इग्नेस गिलटीन नाम के एक फ्रेंच डॉक्टर ने धारदार ब्लेड से मुजरिमों को मृत्युदंड देने का सुझाव दिया

  • डॉ. जोसेफ इग्नेस गिलटीन के नाम पर ही मृत्युदंड के इस तरीका का नाम गिलटीन रखा गया

  • हालांकि 1977 में फ्रांस में आखिरी बार गिलटीन से मृत्युदंड दिया गया

फ्रांस में 18वीं शताब्दी में गिलटीन का खौफ ऐसा था, कि इस दरमियान फ्रांस में अपराध का ग्राफ हैरंतअंगेज़ ढ़ंग से काफी नीचे आ गया था। हालांकि 20 सदी के आते आते मृत्युदंड के इस तरीके पर काफी बहस हुई, लेकिन साल 1977 तक फ्रांस में सजा-ए-मौत के लिए यही तरीका अपनाया गया।

स्टोनिंग

तिल तिल कर मरना किसे कहते हैं, ये आपने अभी तक सिर्फ सुना होगा। लेकिन आज इसके बारे में जान भी लीजिए। अरब देशों में मृत्युदंड दिए जाने का एक बहुत प्रचलित तरीका है, जिसे इंग्लिश में स्टोनिंग कहा जाता है। यानी पत्थर फेंक फेंककर किसी इंसान को इंतना मारना कि उसकी मौत हो जाए, मौजूदा दौर में,

अफगानिस्तान

इराक

ईरान

सऊदी अरब

सोमालिया

नाइजीरिया

इंडोनेशिया

में पत्थरों से मारकर दिया जाता है मृत्युदंड, इन देशों में वैश्यावृत्ति औऱ नाजायज़ संबधों को बहुत बड़ा जुर्म माना जाता है। जिसके दोषी को 100 बार पत्थर मारा जाता है, अमूमन इनमें से आधे पत्थरों में ही इंसान की मौत हो जाती है।

हालांकि अब कई देशों में स्टोनिंग के खिलाफ लोग आवाज़ उठाने लगे हैं, लेकिन अभी इस कानून के हिमायतियों की तादाद कम नहीं हुई। पाकिस्तान, मिस्त्र, जार्डन और इंडोनेशिया जैसे देशों में लोग आज भी स्टोनिंग का सपोर्ट करते हैं।

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