विदेशी साम्राज्यों के लिए 'कब्रिस्तान' है अफ़ग़ानिस्तान, जानिए चौंकाने वाला सच

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विदेशी साम्राज्यों के लिए 'कब्रिस्तान' है अफ़ग़ानिस्तान, जानिए चौंकाने वाला सच
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कैसे पड़ा अफ़गान नाम?

अफ़गान.. सिर्फ एक नाम नहीं बल्कि इतिहासों का ज़खीरा है ये। तीसरी सदी की ससानिद हुकूमत में इसे अबगान कहा गया, चौथी सदी आते आते ये अफगन्स और अफगाना हो गया। जानकार मानते हैं कि इसकी शुरुआत संस्कृत के अस्वाकन से हुई, जो अश्व यानी घोड़े से लिया गया है।

ऐसा माना जाता है कि उस दौर में हिंद कुश की इन पहाड़ियों में रहने वालों को असाकोनई या अस्वाकन कहा जाता था। यानी घोड़े की सवारी करने वाले कबीलाई लोग। आज डेढ़ दर्जन सदी गुज़र जाने के बाद भी यहां की तस्वीर ज़्यादा नहीं बदली है। पहाड़ियां वही हैं, कबीले वही हैं, हां बस सवारी बदल गई है।

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विदेशी साम्राज्य के लिए कब्रगाह

अफगान एक ऐसा मुल्क है, जिसे चाहते तो सब हैं लेकिन ये मिला किसी को नहीं। यहां इन कबीलाई लोगों से पार पाना ना तो किसी के बस की बात है, और ना अब तक कोई कर पाया है। एक से एक बड़े बड़े साम्राज्यों की कब्रगाह यहीं हैं। ताज़ा कब्रगाह अमेरिकी सेना के जवानों की है, हज़ारों की तादाद में अमेरिकी सैनिकों की लाशें यहीं दफ्न हैं।

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अमेरिका से लेकर ब्रिटेन तक, सोवियत संघ से मुगल शासकों समेत दुनिया की तमाम बड़ी शक्तियां इसे जीतने की कोशिश में नाकाम रहीं। किसी भी दौर में कोई भी साम्राज्य ज़्यादा दिनों तक इन पर हुकूमत नहीं कर पाया। कहते हैं कि मुगल शासक भी इन कबीलाई लोगों के इतिहास से घबराते थे। और इन्हें छेड़ने की ज़्यादा कोशिश उन्होंने भी नहीं की।

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अफ़ग़ानिस्तान को पूरी दुनिया में हुकूमतों की कब्रगाह के तौर पर जाना जाता है, ये एक ऐसा सच है जिसका ताल्लुक अफ़ग़ानिस्तान के इतिहास और भूगोल से है। 19वीं सदी में दुनिया में सबसे ताक़तवार रही ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी पूरी ताकत के साथ इसे जीतने की कोशिश की थी, लेकिन 1919 में आख़िरकार ब्रिटेन को अफ़ग़ानिस्तान छोड़कर जाना पड़ा और उन्हें आज़ादी देनी पड़ी।

रूस ने जब किया अफ़गान पर हमला

इसके बाद सोवियत संघ ने 1979 में अफ़ग़ानिस्तान पर हमला किया, मंशा ये थी कि 1978 में तख़्तापलट करके स्थापित की गयी कम्युनिस्ट सरकार को गिरने से बचाया जाए, लेकिन उन्हें ये समझने में दस साल लगे कि वो ये जंग जीत नहीं पाएंगे। ब्रिटिश हुकूमत और सोवियत संघ के बीच एक बात ऐसी है जो दोनों पर लागू होती है, दोनों हुकूमतों ने जब अफ़ग़ानिस्तान पर हमला किया तो वो अपनी ताक़त के चरम पर थे। लेकिन इस हमले के साथ ही धीरे- धीरे दोनों हुकूमतें बिखरने लगीं।

अमेरिका को भी रास नहीं आया अफ़गान

साल 2001 में अमेरिकी नेतृत्व में हमले और उसके बाद कई सालों तक चले युद्ध में लाखों लोगों की जान गयी है, इस हमले के बीस साल बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना को वापस बुलाने का फैसला किया है। ये एक विवादास्पद फैसला था जिसकी दुनिया भर में कड़ी आलोचना की गयी, इस एक फैसले की वजह से अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल पर इतनी तेजी से तालिबान का कब्ज़ा हो गया है। बाइडन ने अपने इस फ़ैसले का बचाव करते हुए कहा है कि अमेरिकी नागरिकों को एक ऐसी जंग में नहीं मरना चाहिए जिसे खुद अफ़ग़ानी लोग न लड़ना चाह रहे हों।

आज अमेरिका जितना मज़बूत है, तारीख में कई और दूसरी हुकूमतें रहीं जो उससे भी ज़्यादा मज़बूत थीं, लेकिन हालिया सदियों में अफ़ग़ानिस्तान को काबू करने की कोशिश करने वाली दुनिया की सबसे ताक़तवर सेनाओं के लिए अफ़ग़ानिस्तान एक कब्रगाह जैसा ही साबित हुआ है। शुरुआत में इन तमाम हुकूमतों की सेनाओं को कामयाबी भले मिली हो लेकिन आख़िरकार उन्हें अफ़ग़ानिस्तान छोड़कर भागना ही पड़ा। ऐसा कतई नहीं है कि अफ़ग़ान शक्तिशाली है, बल्कि अफ़ग़ानिस्तान में जो कुछ हुआ है, वो आक्रमणकारी ताक़तों की ग़लतियों की वजह से हुआ है। और अमेरिका ने भी उन्हीं गलतियों को दोहराया है।

यहां आकर कैसे पस्त हो जाती हैं हुकूमतें?

तो अब सवाल ये पैदा होता है कि आखिर वो गलतियां क्या थीं और क्यों अफगानिस्तान में आकर पस्त हुईं बड़ी-बड़ी हुकूमतें? यूं तो ज़ाहिरी तौर पर अफ़ग़ानिस्तान एक कठिन जगह है, ये एक जटिल देश है जहां आधारभूत ढांचा काफ़ी ख़राब है, विकास काफ़ी सीमित है और चारों तरफ से घिरा हुआ है। अफगानिस्तान को लैंड-लॉक भी कहा जाता है, यानी इसकी सीमा किसी भी तरफ से समुद्र से नहीं मिलती है।

अब सवाल ये है कि अफगानिस्तान पर काबू करने आई हुकूमतों ने गलतियां क्या की?तो इसका जवाब ये है कि सोवियत संघ, ब्रिटेन या अमेरिका किसी भी हुकूमत ने अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा करने की कोशिश तो की लेकिन उसको लेकर लचीलापन नहीं दिखाया। वो लोगों के जज़्बातों को दरकिनार कर मुल्क को अपने ढंग से चलना चाहते थे और उन्होंने चलाया भी लेकिन वो कभी अफ़ग़ानिस्तान की जटिलता को समझ ही नहीं पाए। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि अफ़ग़ानिस्तान को जीतना नामुमकिन है, ईरानियों, मंगोलों और सिकंदर ने अफ़ग़ानिस्तान को जीता भी है। हालांकि उनकी हुकूमतों का कार्यकाल ज़्यादा नहीं रहा।

जिन हुकूमतों ने अफगानिस्तान को जीता उन्होंने भी और जो इसे जीतने में नाकामयाब रहे उन्होंने भी इसकी कीमत चुकाई है। अफ़ग़ानिस्तान की पहाड़ी और पथरीली ज़मीन की तपिश ने एक बार फिर पूरी दुनिया को झुलसा दिया है। मगर सवाल ये है कि आखिर तालिबान का इतिहास है क्या? यूं तो अफगानिस्तान की तारीख सदियों पुरानी है लेकिन मौजूदा अफगानिस्तान को समझने के लिए कम से कम 100 साल पीछे तो जाना ही पड़ेगा।

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