...तो ऐसे होती थी डकैतों की ट्रेनिंग! एक डकैत की ज़ुबानी, डकैतों की ट्रेनिंग की कहानी

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...तो ऐसे होती थी डकैतों की ट्रेनिंग! एक डकैत की ज़ुबानी, डकैतों की ट्रेनिंग की कहानी
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पुलिस हो या सेना, हर जगह भर्ती से पहले रंगरूटों को ट्रेनिंग दी जाती है, तो ऐसे कैसे हो सकता है कि डाकुओं की उस टोली में शामिल होने से पहले नए लोगों को ट्रेनिंग ही ना दी जाए जो सालों पुलिस को छकाते रहते हैं। हां ये सच है कि चंबल में हुए डाकुओं में ज़्यादातर डाकू यमुना किनारे रहने वाले मल्लाह और गुर्जर समाज के लोग होते हैं जो यहां ऊंचे नीचे पहाड़ों, खार और खाईयों को बखूबी जानते हैं। बावजूद इसके यहां दौड़ना भागना या घुड़सवारी करना सबके बूते की बात नहीं हो सकती। हमने खुद इन पहाड़ियों और खाईयों को अपनी आंखों से देखा, हमें तो देख कर ही डर लगा। आप भी देखिए औऱ सोचिए ऐसे इलाकों में पुलिस अमले को चकमा देना कोई मामूली बात हो सकती है क्या? इसके लिए बाकायदा ट्रेनिंग वो भी कड़ी ट्रेनिंग की ज़रूरत होती है। और किसी भी गुट या गैंग में शामिल होने से पहले नए डाकुओं को कड़ी ट्रेनिंग दी जाती थी।

ये ट्रेनिंग कैसी होती थी ये हमने एक डाकू से जाना और उनसे भी जाना जो इन डाकुओं का इन्हीं बीहड़ों में एनकाउंटर कर चुके हैं। ये हैं दस्यु सुंदरी सीमा परिहार और रिटायर्ड डीएसपी राम नाथ यादव। सबसे पहले बात करते हैं दस्यु सुंदरी सीमा परिहार की, बकौल सीमा कोई भी ऐरा गैरा डाकू नहीं बन सकता। इसके लिए बकायदा उन्हें ट्रेनिंग दी जाती और ये ट्रेनिंग पुलिस या सेना की ट्रेनिंग से अलग नहीं होती थी। इसमें नए लोगों को दौड़, पहाड़ों पर चढ़ाई, बंदूक चलाने की तरीका, घुड़सवारी जैसी तमाम चीज़ें सिखाई जाती थी। और इन सबसे ऊपर जो चीज़ थी वो इस इलाके की समझ। क्योंकि सालों तक डाकुओं ने इन इलाकों में पुलिस को इसलिए ही चकमा दिया क्योंकि उन्हें इसकी समझ पुलिस से ज़्यादा थी।

बीहड़ के अलग अलग थानों में तैनात रहे रिटायर्ड डीएसपी राम नाथ यादव का कहना है कि सालों तक पुलिस इन डाकुओं से इसलिए पिछड़ी क्योंकि उनकी ट्रेनिंग प्लेन एरिया पर बल्कि इन ऊबड़ खाबड़ इलाकों में हुई। यहां डाकुओं से वही पार पा सकता था जो इन इलाकों को समझता था। खुद राम नाथ यादव इन्हीं इलाकों से आते हैं लिहाज़ा अपने ड्यूटी के दौरान वो काफी कामयाब रहे।

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चंबल में जिसका जितना बड़ा गैंग, उस गैंग की उतनी कठिन ट्रेनिंग होती थी। गैंग के छोटे बड़े होने का पैमाना उनके सदस्यों की तादाद और हथियारों के पैनेपन से हुआ करता था। कई तो गैंग ऐसे हुआ करते थे जिनके पास एके-47 जैसे हथियार थे और छोटे गैंग के पास पुराने हथियार होते थे। गैंग के सदस्यों की ट्रेनिंग इस बात पर निर्भर करती थी कि उनकी ट्रेनिंग किन हथियारों पर हुई थी। बहरहाल अब इन बीहड़ों में डाकू नहीं है, रह गया है तो बस उनकी इतिहास, वो इतिहास जो सदियों तक याद रहेगा।

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