भारत का वो हिस्सा जहां देश के PM भी नहीं रख सकते कदम 200 साल बाद भी हम वही जानते हैं जो 200 साल पहले जानते थे
Secret of india's north sentinel island
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साल 1871 में एक भारतीय जहाज निनेवे उत्तरी सेंटिनल टापू से निकलने के दौरान डूब गया। जहाज पर मौजूद 86 मुसाफिर और 20 क्रू मेंबर ने समुद्र में छलांग लगा दी और जल्द ही सभी उत्तरी सेंटिनल टापू पर पहुंच गए ।
ये शायद उत्तरी सेंटिनल के इतिहास में पहली बार था कि बाहर के किसी आदमी ने उस टापू पर कदम रखा हो। जब इतने सारे लोग एक साथ टापू पर पहुंचे तो वहां रहने वाले सेंटिनल आदिवासी पहले तो काफी डर गए और टापू पर ही कहीं पर जाकर छिप गए ।
तीन दिन तक जहाज के मुसाफिर और क्रू वहां से किसी और जहाज के गुजरने का इंतजार करते रहे । तीन दिन तक सबकुछ ठीक था लेकिन तीन दिन बाद टापू पर रहने वाले आदिवासियों ने उन पर धनुष और तीरों से हमला बोल दिया। जवाब में वहां मौजूद लोगों ने जैसे-तैसे पत्थर और डंडों से अपनी जान बचाई ।
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खुशकिस्मती इस बात की रही कि हमले के कुछ ही देर बाद वहां पर मदद पहुंच गई और सभी लोगों को वहां से निकल लिया गया।उत्तरी सेंटिनल टापू के आदीवासियों का पहला जिक्र इतिहास में कुछ ऐसे मिलता है । हालांकि बताया ये भी गया है कि अक्सर उस जल मार्ग से गुजरने वाले जहाजों को रात के वक्त टापू पर आग जली हुई दिखती थी और वहां से गाने की आवाजें आया करती थी।
बात आई गई हो गई और इसी बीच 1880 में अंग्रेजो ने उत्तरी सेंटिनल टापू को भी अपने राज्य का हिस्सा घोषित कर दिया। तब इसे अंडमान एंड निकोबार कॉलोनी के नाम से जाना जाता था। उस वक्त टापूओं के इस समूह की जिम्मेदारी को संभालने का मौका अंग्रेजी नौसेना के एक युवा अफसर मॉरिस विडाल पोर्टमैन को दिया गया।
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पोर्टमैन को मानव विज्ञान में खासी दिलचस्पी थी और जब उसे मालूम चला कि अंडमान एंड निकोबार दीप समूह में एक ऐसा टापू भी है जिस पर रहने वाले आदिवासी आजतक बाहर की दुनिया से अछूते हैं तो पोर्टमैन वहां जाना तय किया।
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पोर्टमैन अपने साथ नौसेना के कई सैनिक, अंडमान की जेल में सजा काट रहे कैदियों और ट्रेकर को लेकर उत्तरी सेंटिनल टापू पर पहुंचा। जब वो टापू पर उतरे और उसके अंदर गए तो उन्हें वहां कई झोपड़िया दिखी जो खाली थीं ।
देखने से लग रहा था कि लोग जल्दबाजी में अपने घरों को छोड़कर भागे हैं । आदिवासियों की उसी बस्ती में पोर्टमैन को दो बूढ़े पति-पत्नी और चार छोटे बच्चे मिले । पोर्टमैन उनको अपने साथ पोर्ट ब्लेयर ले आया जो उस वक्त दक्षिण अंडमान की राजधानी हुआ करती थी। पोर्टमैन ने उन्हें वहां रखा लेकिन पोर्ट ब्लेयर आने के कुछ दिन बाद ही बूढ़े दंपत्ति की मौत हो गई जबकि चारों बच्चे बुरी तरह से बीमार हो गए।
उनका इलाज कराने के बावजूद उन्हें कोई फायदा नहीं हुआ । बच्चों की हालत बिगड़ते देख पोर्टमैन ने फैसला किया कि वो वापस बच्चों को उत्तरी सेंटिनल टापू पर छोड़कर आएगा। चारों बच्चों को वापस टापू पर कुछ तोहफों के साथ छोड़ दिया । इसके बाद उन बच्चों का क्या हुआ किसी को नहीं पता और इसी के बाद ब्रिटिश सरकार की तरफ से एक अघोषित प्रतिबंध उत्तरी सेंटिनल टापू पर जाने के लिए लगा दिया।
इसके बाद कई साल तक उत्तरी सेंटिनल टापू पर कोई नहीं गया । साल 1896 में अंडमान की जेल से एक कैदी भाग निकला और वो एक नाव की मदद से उत्तरी सेंटिनल टापू पर जा पहुंचा । जब उसकी खोजबीन की गई तो कई दिन बाद उसकी लाश सेंटिनल टापू के किनारे पर मिली । उसके जिस्म पर तीरों के कई घाव थे और उसका गला रेता हुआ था।
1967 में भारत सरकार की तरफ से उत्तरी सेंटिनल टापू पर रहने वाले आदिवासियों से संपर्क करने की योजना बनाई । काम सौंपा गया मानव विज्ञानी त्रिलोकनाथ पंडित को ..... त्रिलोकनाथ पंडित कई सुरक्षाकर्मियों और अपनी टीम को लेकर जब सेंटिनल टापू पर पहुंचे तो वहां पर वही हालात देखने को मिले जैसे पोर्टमैन के जाने पर हुआ था।
आदिवासी अपने घरों को छोड़कर जा चुके थे और इस बार टीम को वहां पर कोई भी नहीं मिला। त्रिलोकनाथ पंडित ने तोहफों के तौर पर कई चीजें वहां पर रखी जिसमें जिंदा जानवरों के अलावा, बर्तन, खिलौने, नारियल और कुछ और सामान भी छोड़ा गया था।
इसके बाद पंडित लगातार नॉर्थ सेंटिनल टापू जाते रहे और टापू के किनारे पर सामान छोड़कर जाने लगे । धीरे-धीरे उन्होंने आदिवासियों का विश्वास जीतना शुरु किया। अब आदिवासी टापू के किनारे तक आते जिंदा जानवर को मारकर रेत में दबा देते थे ।
ऐसा ही कुछ वो खिलौनों के साथ भी करते थे लेकिन उन्हें बर्तन और नारियल काफी पसंद थे। खासतौर पर नारियल क्योंकि उत्तरी सेंटिनल टापू पर नारियल के पेड़ नहीं हैं। हालांकि आदिवासियों ने तो कभी पंडित और उनकी टीम को करीब आने दिया और न ही बिना हथियार वो टापू के किनारे पर आए क्योंकि उन्हें बाहर की दुनिया पर विश्वास नहीं था जबकि पंडित को उनके साथ काम करते-करते करीब बीस साल का वक्त बीत चुका था। अपने रिटायरमेंट के एक साल पहले साल 1991 में पंडित को तब कामयाबी मिली जब आदिवासियों का एक समूह बिना हथियार के पंडित के करीब आया ।
पंडित को तब लगा कि शायद अब उनका उनसे संपर्क हो जाएगा लेकिन इसके कुछ हफ्ते बाद ही जब पंडित टापू किनारे सामान बांटने के लिए पहुंचे उनको चाकू दिखाकर वहां से जाने के लिए इशारा किया गया।
साल 1996 में भारत सरकार ने ये अभियान बंद कर दिया और इसके बाद से अधिकारिक तौर पर उत्तरी सेंटिनल के आदिवासियों से संपर्क का कार्यक्रम बंद कर दिया गया। पंडित के मुताबिक जितना उन्हें समझ में आया और जितना उन्होंने देखा उसके मुताबिक उत्तरी सेंटिनल टापू पर रहने वाले आदिवासीयों की संख्या 80 से 150 के बीच हो सकती है ।
उनकी भाषा आजतक किसी को समझ नहीं आई है, यहां तक की अंडमान-निकोबार के दूसरे दीपों पर रहने वाले जरावा और ओंगे आदिवासी भी नहीं समझते । आखिरी बार ये रहस्यमय टापू तब सुर्खियों में आया जब साल 2018 में एक अमेरिकी नागरिक जॉन चाउ ने टापू पर जाने की कोशिश की और इस कोशश में वो आदिवासी के भाले से मारा गया।
लगभग 200 साल से ज्यादा का वक्त बीत चुका है जब उत्तरी सेंटिनल के आदिवासियों के बारे में बाहर की दुनिया को पता लगा था। लेकिन 200 साल बाद भी हमें उनके बारे में उतनी ही जानकारी है जितनी पहले थी। शायद सरकार को भी यही ठीक लगता है कि इन आदिवासियों को उनकी दुनिया में ही खुश रहने दिया जाए।
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