चंबल और सियासत: नेताओं से अच्छे तो डाकू थे! कम से कम उनमें ईमानदारी तो थी
dacoit influence in election
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चंबल और सियासत का बहुत पुराना और गहरा नाता है। यूपी से लेकर एमपी तक इलाके में पड़ने वाली सभी विधानसभा और लोकसभा सीटों में डाकुओं के दौर में फरमान जारी हुआ करता था। जिसके नाम ये फरमान निकलता था, उसकी जीत तय मानी जाती थी, और डाकुओं का दबदबा ऐसा था कि घाटी में लोग उनके फरमान को नज़रअंदाज़ नहीं करते थे। या यूं कहें कि इतनी हिम्मत ही नहीं जुटा पाते थे। आज़ादी के बाद और उससे पहले से, नई सदी के शुरुआती सालों तक ये दबदबा कायम था। लेकिन अब कोई फरमान जारी नहीं होता है, अब जंगल से कोई आवाज़ नहीं गूंजती है। अब वो आज़ाद हैं, मनमर्ज़ी से वोट डालने के लिए। वो जहां चाहें वोट करें। लेकिन इस आज़ादी के बाद भी लोग खुश नहीं हैं, चंबल के यूपी में पड़ने वाले इलाकों में जब हमने लोगों से इस बारे में बात की तो लोगों को कहना था कि
नेताओं से अच्छे तो डाकू थे, कम से कम उनमें ईमानदारी तो थी। वो हमसे जबरन वोट कराते थे तो नेताओं के सीने पर बंदूक रखकर हमारा काम भी कराते थे। लेकिन आज नेता हमसे बहला फुसला कर वोट को ले जाते हैं लेकिन फिर 5 साल तक मुंह भी नहीं दिखाते। साथ देना तो बहुत दूर की बात है।
सियासत का सबसे कुख्यात नारा
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बीहड़ में आतंक का दूसरा नाम रहे दुर्दांत डकैतों का एक नारा सियासत में बहुत मशहूर हुआ, वो था 'मोहर लगेगी हाथी पर, नहीं लाश मिलेगी घाटी पर’। ये नारा भी था, फरमान भी जो अब इतिहास बन चुका है। अब सियासत में डाकुओं का दबदबा खत्म हो चुका है, अब कोई फरमान नहीं आता। अब चंबल डाकुओं के आतंक से आज़ाद है, लंबे अरसे बाद 2022 का विधानसभा चुनाव डकैतों के दखल के बिना पूरा होगा। वरना पहले तो ग्राम प्रधान से लेकर सांसद और विधायक तक डकैतों के फरमान से बनते रहे हैं।
चंबल में होगा 'आज़ाद' चुनाव
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यूपी-एमपी की सरहद से लगे इलाको की सियासत में डकैतों का सीधा दखल रहा है, डकैतों की मदद से कई सियासी पार्टियों ने जमकर अपनी राजनीति चमकाई है। राजनीति का इतिहास आतंक के पर्याय रहे डकैतों के खात्मे के बाद अब 2022 में होने जा रहा विधानसभा चुनाव बिना डकैतों के दखल के होगा। इस बार के चुनाव में किसी भी सियासी दल या उम्मीदवार के समर्थन में डकैतों का फरमान जारी नही होगा।
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आज भी होती है डाकुओं के फरमान की चर्चा
डाकुओं के खात्मों ने इन फरमानों पर विराम लगा दिया है, इसके बावजूद इन फरमानों की चुनावों के दौरान चर्चा किए बिना लोग रह नहीं पाते हैं। आज भले ही डाकुओं के फरमान नही हैं फिर भी जब चुनाव आता है फरमानों को याद करके घाटी के लोगों की रूह आज भी कांप जाती है। डेढ़ दशक से चंबल में न तो कोई डाकू है न ही उनका कोई गैंग। चंबल, यमुना पट्टी के बीहड़ी गांवों में बीतते वक्त के साथ चाहे पंचायत चुनाव हो या फिर लोकसभा और विधानसभा चुनाव में आबोहवा बदलती जा रही है।
किन डाकुओं का चलता था फरमान
डाकुओं के सफाए के बाद बदले हालात के चलते पिछले तीन विधानसभा चुनाव की तरह चौथे चुनाव में बुलेट पर बैलेट भारी पड़ने का रास्ता पूरी तरह साफ दिख रहा है। इतिहास पर नजर डाले तो बीहड़ के 200 गांव डाकुओं से प्रभावित रहे हैं, बीहड़ की धरती गवाह है कि जिसने भी दस्यु सरगनाओं की हुक्मउदूली की उसे अंजाम भुगतना पड़ा। बीते दो दशक के दौरान दर्जनों से ज़्यादा कुख्यात डकैत या तो ढेर कर दिए गए या आत्मसर्पण कर जेल पहुंच गए। दस्यु सम्राट श्रीराम, लालाराम, निर्भय गुर्जर, रामआसरे उर्फ फक्कड़, कुसमा नाइन, फूलन देवी, सलीम उर्फ पहलवान, रज्जन गूर्जर, गंभीर सिंह, चंदन, जगजीवन परिहार ऐसे नाम हैं जो बीहड़ के लोगों के लिए सालों आतंक का पर्याय बने रहे।
बैलेट पर बुलेट हावी था
आजादी के बाद हुए पहले चुनाव के बाद से बीते कुछ साल पहले तक बीहड़ी मतदान केंद्रों पर बैलेट पर हमेशा बुलेट हावी होता रहा है। बताया जाता है कि वोटिंग के दौरान कई बार ऐसे नतीजे आए जब कई गांवों में नब्बे फीसदी से ज़्यादा वोट एक ही उम्मीदवार के पक्ष में निकले। बीते डेड दशक में बीहड़ में चले डाकुओं के सफाया अभियान के बाद बीहड़ी गांवों के बाशिदे राहत की सांस ले रहे हैं।
कब से हुई चुनावी फरमानों की शुरुआत
डाकुओं के फरमान की शुरूआत चंबल घाटी में जातीय आधार पर पंचायत चुनाव में 1990 से शुरू हुई। उसके बाद इसका प्रभाव बढ करके विधानसभा से होते हुए लोकसभा चुनाव तक आ पहुंचा। सियासी लोग भी इन डकैतों की मदद लेने लगे और अपने पक्ष में फरमान जारी करवाने की जुगत भिड़ाने लगे। इन डकैतों ने अपने फरमानों से जिन लोगों को चुनाव जितवाया, उन्होंने भी उनका हित साधने में साथ दिया। डकैतों ने अपने फरमान से चहेतों को जितवाया, और अपने काम निकलवाए। हालांकि अब ये तमाम चीज़ें इतिहास के पन्नों में दर्ज में हैं।
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