सुल्तानपुर के सोनू-मोनू की 'रंगबाज़ी' दांव पर, बिना पॉलिटिकल पावर के फीकी पड़ी है चमक!

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सुल्तानपुर के सोनू-मोनू की 'रंगबाज़ी' दांव पर, बिना पॉलिटिकल पावर के फीकी पड़ी है चमक!
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सुल्तानपुर से आलोक श्रीवास्तव, मनीषा झा और विनोद शिकारपुरी के साथ सुप्रतिम बनर्जी की रिपोर्ट

यूपी की राजधानी लखनऊ से क़रीब 140 किलोमीटर दूर सुल्तानपुर की अपनी अलग सियासी ज़मीन है. वो इसलिए कि सुल्तानपुर नेहरु-गांधी परिवार का गढ़ रहा है और यहां से संजय गांधी से लेकर राहुल गांधी तक चुनाव लड़ चुके हैं. गांधी परिवार से ही जुड़े मगर सियासी तौर पर अलग सोच रखनेवाली मेनका गांधी और वरुण गांधी, दोनों को इसी सुल्तानपुर ने संसद में भेजा है.

पॉलिटिकल पावर.. हाथ तो आया मगर मुंह को ना लगा!

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मगर क्राइम तक में फिलहाल बात करेंगे सुल्तानपुर के दो रंगबाज़ भाइयों की. इस बार के विधान सभा चुनाव में यहां सुल्तानपुर के दो रंगबाज़ भाइयों की साख दांव पर लगी है. जी हां, चंद्रभद्र सिंह उर्फ़ सोनू और यशभद्र सिंह उर्फ़ मोनू. असल में सुल्तानपुर की इसौली सीट से चंद्रभद्र सिंह सोनू अपनी जीत की हैट्रिक लगाने के बाद पिछले दो बार से लगातार आउट हो रहे हैं. चुनाव के नतीजे कुछ ऐसे होते हैं मानों हाथ तो आया पर मुंह को ना लगा. लेकिन इस बार चंद्रभद्र सिंह सोनू ने अपने छोटे भाई यशभद्र सिंह मोनू को बीएसपी के टिकट पर चुनाव मैदान में उतार दिया है. अब ये चुनाव बेशक मोनू लड़ रहे हों, लेकिन इस चुनाव की हार और जीत से सोनू की प्रतिष्ठा भी जुड़ी है.

शुरू से रहा है 'रंगबाज़ी' का चस्का

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इस इलाक़े के रंगबाज़ों में इन दोनों भाइयों का नाम सबसे ऊपर है. ऐसा नहीं है कि यहां इनके दुश्मन नहीं हैं, लेकिन दोनों मिल कर अब तक अपने दुश्मनों पर भारी पड़ते रहे हैं. फिर चाहे वो सियासत की बात हो, कारोबार की या फिर जुर्म की स्याह दुनिया की. इनकी रंगबाजी की गवाही इन दोनों भाइयों के ख़िलाफ़ दर्ज मुक़दमे ख़ुद देते हैं. सोनू के ख़िलाफ़ जहां सुल्तानपुर और आस-पास के इलाक़ों में जहां क़रीब तीन दर्जन मुक़दमे दर्ज हैं, वहीं मोनू के ख़िलाफ़ 28. अक्सर संगीनों के साये में घिरे रहनेवाले दोनों भाइयों की गाड़ियों का शौक़ ग़ज़ब का है. बताते हैं कि दोनों के पास यूपी 44 सीरीज़ की 0001 नंबर की कुल नौ गाड़ियां हैं.

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सोनू-मोनू को पिता के क़त्ल ने खींचा जुर्म की दुनिया में

दोनों भाइयों को रंगबाज़ी विरासत में मिली. असल में इनके पिता इंद्रभद्र सिंह भी इलाक़े के एक कद्दावर सियासी शख़्सियत थे. जिनकी 1999 में संत ज्ञानेश्वर ने कथित तौर पर हत्या करवा दी थी. और बस इसी क़त्ल ने इन दोनों भाइयों को भी जुर्म के रास्ते पर ला दिया. कहते हैं कि इसके बाद अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए सोनू और मोनू ने संत ज्ञानेश्वर को भी ठिकाने लगवा दिया. फिर तो धीरे-धीरे दोनों के गुनाहों की फ़ेहरिस्त लगातार बढ़ती रही.

साख और सल्तनत की लड़ाई है ये चुनाव

सुल्तानपुर के लोग बताते हैं कि दोनों भाइयों का 'दरबारी संस्कृति' पर बड़ा यकीन है. दोनों क्षत्रपों-राजाओं-ज़मींदारों की तरह दरबार लगाते रहे हैं. लोगों की समस्याओं की सुनवाई भी करते हैं और मदद भी करते हैं. लेकिन ये सब कर करने के जिस पॉलिटिकल पावर की ज़रूरत होती है, वो फिलहाल इनके हाथ से फिसल चुकी है और इस बार का चुनाव एक तरह से सोनू-मोनू के लिए अपनी साख से लेकर सल्तनत बचाने की लड़ाई है. दोनों भाइयों के 'पॉलिटिकल हंगर' का सबूत और क्या होगा कि दोनों सपा-बसपा से लेकर बीजेपी और पीस पार्टी जैसी सियासी पार्टियों में भी 'टहल' चुके हैं.

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