भोपाल गैस त्रासदी विशेष : इस वजह से भोपाल बना था हिरोशिमा-नागासाकी? जानें पूरी कहानी

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भोपाल गैस त्रासदी विशेष : इस वजह से भोपाल बना था हिरोशिमा-नागासाकी? जानें पूरी कहानी
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2 दिसंबर 1984 के दिन का सूरज डूब चुका था, अंधेरे ने दस्तक दे दी थी। काली गहराती रात भोपाल को अपने आगोश में ले रही थी, लोग चैन की नींद सो रहे थे। इस बात से बेखबर कि उनके खूबसूरत शहर पर एक दस्तक और पड़ चुकी है, और वो दस्तक थी - काल की।

भोपाल की यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री में पिछले 36 दिनों से प्रोडक्शन बंद था, लेकिन रोज़मर्रा का काम जारी था। रोज की तरह फैक्ट्री के पाइपों को साफ करने के लिए उनमें पानी छोड़ दिया गया था, ये वो पाइप थे जो सीधे जुड़े हुए थे टैंक नंबर 610 से, ये काम बेहद सावधानी से किया जाता था क्योंकि इस टैंक में 42 टन एमआईसी भरी हुई थी। एमआईसी यानि मिथेल आइसोसाइनाइट, पानी अगर इस एमआईसी से मिल जाता तो हादसे को कोई नहीं टाल सकता था, लेकिन कोई नहीं जानता था कि अगले दो घंटे में यही होने वाला है। मेनटेनेंस ना होने की वजह से पाइप में लगे सेफ्टी वाल्व खराब हो चुके थे, पानी धीरे धीरे टैंक नंबर 610 में जा रहा था।

रात 11.30 बजे, टैंक नंबर 610 में हलचल मचना शुरु हो चुकी थी, टैंक का तापमान बढ़ता जा रहा था लेकिन ये बताने वाले मीटर खराब पड़े थे। यहां तक कि खर्चा बचाने के नाम पर टैंक नंबर 610 का कूलिंग सिस्टम भी बंद कर दिया गया था। 11 बजकर 35 पर कंट्रोल रूम में पहली बार तीखी बदबू का अहसास हुआ, ये मौत की पहली गंध थी।

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रात 12 बजकर 05 मिनट, टैंक नंबर 610 में भरी पड़ी 42 टन एमआईसी बेकाबू हो गई, करीब 10 मीटर ऊंची गैस की परत टैंक नंबर 610 से निकल कर भोपाल को खाने के लिए दौड़ पड़ी। भोपाल को अब कोई बचा सकता था तो सिर्फ उपरवाला, लेकिन लगता है कि वो भी उस दिन भोपाल से रूठ गया था।

रात 12.30 बजे, गैस ने भोपाल को नींद से जगा दिया, लोगों की आंखे जल रही थीं। खांसी और उल्टी से दम निकल रहा था, जब फेंफड़े ही साथ ना दे रहे हों तो इंसान सांस भी ले तो कैसे? ज़िंदा इंसान जानवरों की तरह तड़प रहे थे।

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भागो, भागो,. भागो, सड़कों पर सिर्फ यही शोर था, लेकिन उस रात भोपाल को पता चल गया कि मौत से दूर भागना इतना आसान नहीं होता।

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उस रात भोपाल कोई शहर नहीं बल्कि श्मशान और कब्रिस्तान दिख रहा था, अस्पतालों में हज़ारों लोग तड़प-तड़प कर दम तोड़ रहे थे। उन्हे बचाने वाला कोई नहीं था, क्योंकि खुद डॉक्टर भी नहीं जानते थे कि वो इस ज़हरीली गैस का इलाज करें भी तो क्या करें? बस ऐसा लग रहा था जैसे उस रात खुद मौत ने भोपाल के लिए जाल बुना था।

दस-बीस नहीं, सौ-दो सौ भी नहीं, हज़ार-दो हज़ार भी नहीं, एक ही रात में करीब पचास हज़ार से ज्यादा लोग भोपाल के हमीदिया अस्पताल पहुंच गए थे, डॉक्टर कुछ भी नहीं समझ पा रहे थे कि आखिर हो क्या रहा है? आखिर वो कैसे और कितने लोगों का इलाज़ करें? यहां तक कि यूनियन कार्बाइड के डॉक्टरों को भी मिथेल आइसासाइनेट से बचाव का तरीका नहीं मालूम था। ज़हरीली गैस ने किसी को नहीं छोड़ा था, क्या जवान, क्या बूढ़े और क्या बच्चे, सभी मरीज एक के बाद एक दम तोड़ रहे थे। एक ही रात में हज़ारों लोगों ने कीड़े-मकोड़ों की तरह दम तोड़ दिया, लाशों का ना तो नाम था, ना पता, हर लाश को कुछ मिला था बस एक नंबर, मौत का नंबर।

जैसे तैसे वो रात गुज़र गई, लेकिन सुबह का सूरज बेहद भयानक था। श्मशान में जैसे काल खुद आकर बैठ गया था, अर्थियों का कारवां जैसे थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। आसमान से जहरीली गैस के बादल मिट गए थे और अब उसकी जगह ले ली थी चिताओं से उठने वाले धुएं ने। भोपाल मौत का मातम मना रहा था लेकिन हुक्मरान अब भी साज़िश रच रहे थे, मौत के आंकड़ों को कम से कम बताया जा रहा था।

सरकार ने बहुत बाद में जाकर माना कि उस रात गैस हादसे में 3787 लोग मारे गए थे, लेकिन इस दावे पर भी कभी किसी ने यकीन नहीं किया। लोगों का मानना है कि उस रात 15 हज़ार से ज्यादा लोग मारे गए थे,

अब मातम का वक्त गुज़र चुका था, भोपाल गुस्से की आग में जल रहा था। तभी हादसे के तीन दिन बाद नोबल पुरस्कार विजेता मदर टेरेसा भोपाल पहुंची। शांति की मसीहा मदर टेरेसा ने भोपाल के लोगों से कहा - उन्हे (वारेन एंडरसन) माफ कर दो। लेकिन भोपाल कैसे अपने कातिल को माफ कर देता? वो कातिल जिसका इंतज़ार अब भोपाल को था, कितनी शर्म की बात है कि वो कातिल भोपाल तो आया लेकिन सरकार की मेहरबानी से बच कर निकल गया। और फिर कभी नहीं लौटा। मगर कौन था इसके लिए ज़िम्मेदार और क्या थी वो साज़िश ।

सारी दुनिया उस शख्स का ठिकाना भी जानती है, लेकिन फिर भी वो आज़ाद था, वारेन एंडरसन को सज़ा ना मिलना जख्म पर वो नमक था जिसकी जलन को भोपाल आज भी महसूस करता है। लेकिन भोपाल गैस के आरोपी वारेन एंडरसन भारत से भागने में कैसे कामयाब हुआ?

वारेन एंडरसन, यूनियन कार्बाइड का पूर्व सीईओ था, ऐसा नहीं है कि एंडरसन कभी पकड़ में नहीं आया, वो तो खुद चलकर भोपाल आया था, उसे गिरफ्तार भी किया गया था, वो तारीख थी 7 दिसंबर 1984, लेकिन 6 घंटे बाद ही एंडरसन को छोड़ दिया गया। इतना ही नहीं एंडरसन को मध्यप्रदेश सरकार के विशेष विमान से दिल्ली भेजा गया। एंडरसन पर ये मेहरबानी किसने की थी? ये फैसला किसका था? इस सवाल का जवाब आज तक सिर्फ बयानो में उलझा हुआ है।

भारत से भागते हुए एंडरसन के चेहरे पर कोई पछतावा नहीं था, वो कार में बैठा, हाथ हिलाया और चला गया। इसके बाद एंडरसन कभी हिंदुस्तान नहीं लौटा। हज़ारों लोगों का कातिल 2014 में मरने से पहले तक न्यूयॉर्क के हैम्पटंस बीच रिसोर्ट में ऐश की ज़िंदगी गुज़ार रहा था, और भोपाल में इसके सताए लोग घिसट-घिसट कर जीने को मजबूर हैं।

देखा जाए तो एंडरसन को गिरफ्तार करके वापस हिंदुस्तान लाने की कभी सही तरीके से कोशिश ही नहीं की गई, यहां तक कि गैस कांड के जो ज़िम्मेदार हिंदुस्तान में रहते हैं उन्हे भी बहुत सस्ते में छोड़ दिया गया। सोचिए 15 हज़ार मौतों के बदले दी गई सिर्फ दो साल की सज़ा। एंडरसन फरार है तो बाकी आरोपी ज़मानत पर बाहर, आखिर इसे इंसाफ कैसे कह सकते हैं?

हादसे से पहले एक पत्रकार ने अखबार में छपी अपनी एक रिपोर्ट के ज़रिए बहुत पहले ही ये चेतावनी दे दी थी कि यूनियन कार्बाइड की वजह से भोपाल एक ज्वालामुखी पर बैठा है। उन्होने इस मसले पर अर्जुन सिंह की तत्कालीन सरकार को भी जगाने की कोशिश की, लेकिन सब बेकार था। पहले चेतावनी की अनदेखी, फिर लापरवाही, फिर हादसा, फिर हज़ारों मौते, फिर थोड़ा सा मुआवज़ा। 28 साल लंबी न्याय प्रक्रिया और उसके बाद कातिलों को बख्श देना, 2 दिसंबर 1984 की उस काली रात के बाद से आज तक भोपाल सिर्फ इंसाफ के लिए तरस रहा है।

धोखा जैसे भोपाल की किस्मत का हिस्सा बन गया है, पहले धोखे से गैस ने हज़ारों जाने ले लीं, फिर धोखे से आरोपियो को बख्श दिया गया, और फिर धोखे से मुआवाज़े के नाम पर भीख बांट दी गई, तभी तो गैस कांड के शिकार आज मौत से भी बदतर जिंदगी गुजारने को मजबूर हैं। भोपाल गैस कांड ने अगली पीढ़ी के जिस्म में भी ज़हर घोल दिया है, गैस पीड़ितों की संताने विकलांग पैदा हो रही हैं।

इतने वक्त में गहरे से गहरा ज़ख्म भर जाता है, लेकिन भोपाल का ज़ख्म आज भी हरा है, उस काली रात को ना तो भोपाल कभी भूला ना कभी भूल पाएगा।

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