लखीमपुर खीरी.. कहीं 'भैया' की रंगबाज़ी चुनावी रंग फीका ना कर दे, चुनाव प्रचार से ग़ायब है पिता-पुत्र की जोड़ी!

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लखीमपुर खीरी.. कहीं 'भैया' की रंगबाज़ी चुनावी रंग फीका ना कर दे, चुनाव प्रचार से ग़ायब है पिता-पुत्...
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लखीमपुर खीरी से अभिषेक वर्मा के साथ सुप्रतिम बनर्जी की रिपोर्ट

हर रंगबाज़ की रंगबाज़ी के रंग कुछ अलग होते हैं. एक वक़्त था जब गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी के साहबज़ादे आशीष मिश्र की अपने इलाक़े में अलग ही रंगबाज़ी चलती थी. 'भैया' जिधर से भी निकलते थे, गाड़ियों का काफ़िला पीछे चलता था. इलाक़े का कोई भी छोटा-बड़ा काम हो, 'भैया' के इशारे के बग़ैर मुमकिन ही नहीं था. चूंकि 'भैया' के 'पप्पा' अजय मिश्र के पास पोर्टफ़ोलियो ही इतना हाई-प्रोफ़ाइल है कि लोग 'भैया' से कोई ऐसा-वैसा कुछ काम कहने से भी घबराते थे. रही बात केस-मुक़दमों की, तो 'भैया और पप्पा' के ख़िलाफ़ केसेज़ भी दर्ज थे, लेकिन अब से पहले तक दोनों इन्हें 'सियासी साज़िश' कह कर पल्ला झाड़ लिया करते थे.

दंगल के बीच हुआ 'अमंगल'

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लेकिन फिर अक्टूबर का महीना आया. 'भैया जी' इलाक़े में दंगल करवा रहे थे. और फिर इसी दंगल के बीच ऐसा 'अमंगल' हुआ कि सब गुड़-गोबर हो गया. किसानों को कुचलने की जो वारदात हुई, उसने जहां रातों-रात लखीमपुर खीरी को सुर्खियों में ला दिया, वहीं 'भैया' के सितारे भी गर्दिश में आ गए. अब हालत ये हुई है कि 'भैया' 129 दिन की जेल काटने के बाद बाहर आ चुके हैं, लेकिन ये बाहर आना भी 'भैया' के लिए अलग ही मुसीबत का सबब बना हुआ है.

कहीं भारी ना पड़ जाए 'भैया जी' की रिहाई!

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फिर चाहे वो लखीमपुर खीरी हो या फिर यूपी का कोई और इलाक़ा ऐन चुनाव के चौथे चरण से पहले आशीष मिश्र को ज़मानत मिल जाना, बहुत से लोगों को खटकने लगा है. और ये हालत बीजेपी के लिए कितना नाज़ुक है, ये इसी बात से समझी जा सकती है कि खुद 'योगी बाबा' घूम-घूम कर लोगों को ये समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि ज़मानत कोई सरकार ने थोड़ी ना दी है, ज़मानत तो कोर्ट से मिली है. अब बीजेपी के लिए इससे ज़्यादा 'बैकफुट' पर आने की बात और क्या हो सकती है?

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निघासन विधान सभा में दांव पर साख

बहरहाल, इस चुनाव में 'भैया जी' के होने या ना होने का क्या असर लखीमपुर की वोटिंग पर हो सकता है, ये जानने से पहले एक बार लखीमपुर ज़िले की चुनावी व्यवस्था पर एक नज़र डाल लेना ठीक है। लखीमपुर ज़िले में कुल 8 विधान सभा सीटें है. इनमें लखीमपुर सदर, गोला, पलिया, मोहम्मदी, श्रीनगर, कस्ता, निघासन और धौरहरा शामिल हैं. इन आठों सीटों के अपने अलग-अलग मसले पर और मुद्दे हैं. लेकिन इन आठों विधान सभा सीटों में से जिस सीट की चर्चा सबसे ज़्यादा है, वो निघासन ही है. क्योंकि ये निघासन ही है, जहां 'भैया' और उनके 'पप्पा' जी रहते हैं.

'पप्पा और भैया'.. प्रचार से दोनों ग़ायब

अब सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या इतना सबकुछ होने के बावजूद अब भी अपने इलाक़े में अजय मिश्र टेनी और उनके बेटे आशीष मिश्र का उतना ही प्रभाव है, जितना पहले हुआ करता था? क्या पहले की तरह उनके एक इशारे भर से इलाक़े की हज़ारों जनता किसी के हक में या किसी के ख़िलाफ़ वोट कर सकती है? तो इसका जवाब कुछ वाकयों पर ग़ौर करने से आसानी से मिल सकता है. निघासन में क़रीब 3 लाख 40 हज़ार वोटर हैं, जो अपने इलाक़े का विधायक चुनते हैं और देखा जाए तो इस बार के चुनावों से मिश्र परिवार एक तरह से ग़ायब हैं. ना तो अजय मिश्र टेनी कहीं प्रचार में नज़र आ रहे हैं और ना 'आशीष भैया' ही दिख रहे हैं. हालत ये है कि लखीमपुर में पीएम नरेंद्र मोदी का प्रोग्राम था, मगर वो कैंसिल हो गया. 'योगी बाबा' को आना था, मगर वो नहीं आए. रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का प्रोग्राम था, मगर वो नहीं हुआ. ले-दे कर गृह मंत्री अमित शाह आए. लेकिन ना तो उनके साथ 'पप्पा या भैया' दिखे और ना ही प्रचार के दौरान 'बीजेपी के चाणक्य' ने अपने जूनियर मिनिस्टर का ज़िक्र ही किया. 'योगी बाबा' की पांच तूफ़ानी सभाओं से भी पिता-पुत्र की जोड़ी नदारद रही.

कहीं ख़राब ना हो जाए खेल..
अब आइए नतीजों पर कयास लगा लेते हैं. कयासबाज़ी के ना तो टिकट लगते हैं और ना ही पैसे. निघासन से मौजूदा बीजेपी विधायक शशांक वर्मा इस बार फिर से चुनावी मैदान में हैं. ख़ास बात ये है कि शशांक वर्मा किसान-कांड के दौरान ख़ुद को न्यूट्रल रखने में काफ़ी हद तक कामयाब रहे हैं और ये उनके लिए एक प्लस प्वाइंट साबित हो सकता है. उनके मुख़ालिफ़ बीएसपी के पूर्व अध्यक्ष रह चुके आरएस कुशवाहा सपा के टिकट पर चुनावी मैदान में हैं. कहने की ज़रूरत नहीं है कि वो भी एक 'हेवी-वेट' कैंडिडेट हैं. ऐसे में अगर किसान-कांड का ज़रा भी नकारात्मक असर निघासन के चुनाव पर पड़ा, तो 'खाली-पीली' खेल ख़राब हो सकता है.

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