बड़े बेआबरू होकर अफ़ग़ान से हम निकले... सदियों तक अमेरिका को सताती रहेगी ये "विदाई"
AFGHANITSAN USA WAR END
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काबुल के हामिद करजई इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर आखिरी अमेरिकी जहाज सी-17 कार्गो रनवे पर तैयार खड़ा था. अफगान में मौजूद अमेरिकी सैनिकों का बेड़ा जहाज में सवार हो चुका था.यहां तक कि अफ़गानिस्तान में मौजूद अमेरिकी अंबेस्डर रौस विल्सन भी प्लेन में बैठ चुके थे. अब बस एक शख्स का इंतजार था. 82 एयरबोर्न डिविजन के कमांडर, अफगानिस्तान की सरज़मीन पर मौजूद अमेरिका के आखिरी सैनिक अफसर, यूएस आर्मी के मेजर जनरल क्रिस DONAHUE का. थोड़े से इंतजार के बाद क्रिस कार्गो प्लेन में सवार हो जाते हैं और प्लेन काबुल एयरपोर्ट छोड़ देता है. और इसके साथ ही 30 अगस्त 2021 को पूरे 20 साल बाद अमेरिका का अफ़ग़ान सफ़र खत्म हो जाता है,तय मोहलत से एक दिन पहले ही.
अमेरिकी सैनिकों की आख़िरी टुकड़ी बेशक रात के अंधेरे में अफ़ग़ान को अलविदा कह रही थी. लेकिन तालिबान उन्हें जाते हुए अपनी आंखों से देख रहे थे. दरअसल, डेडलाइन क़रीब आने से पहले ही तालिबान के दो स्पेशल फ़ोर्स फ़तेह ज़वाक और बदरी के सैनिक एयरपोर्ट की दहलीज़ पर डट चुके थे. इधर, आख़िरी अमेरिकी जहाज़ ने उड़ान भरा उधर तालिबान के दोनों स्पेशल फोर्स के सैनिक अपने काबुल एयरपोर्ट के अंदर थे.
अगले कुछ घंटों में ही पूरे एयरपोर्ट पर अब तालिबान का क़ब्ज़ा हो चुका था.एयरपोर्ट पर कब्ज़ा करते ही तालिबान लड़ाकों ने गोलियां दागकर जश्न मनाया. अमेरिकी सैनिकों की विदाई की खबर अब तक पूरे काबुल में फैल चुकी थी. अब एयरपोर्ट के साथ-साथ काबुल की सड़कों पर भी जश्न और आतिशबाज़ी का दौर शुरू हो चुका था.
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हालांकि अमेरिका अफ़गान से लौट चुका है. उसका हर सैनिक अफ़ग़ान छोड़ चुका है. लेकिन अब भी अफग़ान में बहुत से विदेशी फंसे हुए हैं. इनके अलावा वो अफ़गानी भी फंसे हैं, जिन्हें तालिबान से खतरा है. अफ़गान से निकलने का आख़िरी रास्ता और आख़िरी उम्मीद यानी काबुल एयरपोर्ट भी अब तालिबान के हाथों में जा चुका है.
आनेवाले दिनों में इस एयरपोर्ट पर उड़ानों की शक्ल-ओ-सूरत क्या होगी, कौन कौन से जहाज़ उड़ेंगे या उतरेंगे, कौन-कौन से देश अपने जहाज़ भेजेंगे, ये अभी साफ़ नहीं है. चूंकि अब काबुल एयरपोर्ट का एयर ट्रैफिक कंट्रोल तालिबान के हाथों में है. हालांकि इसी एयरपोर्ट पर जाते-जाते अमेरिका ने अपने 73 जहाज़ छोड़ दिए हैं. लेकिन उन्हें यूं ही नहीं छोड़ा. बल्कि इन सारे जहाज़ों की वो हालत कर गया कि तालिबान क्या दुनिया का कोई भी देश अब इसे दोबारा उड़ा नहीं सकता.
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अमेरिकी सेंट्रल कमांड के हेड जेनरल केनेथ मैकेंजी ने कहा कि 73 एयरक्राफ्ट जो हामिद करजई इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर रखे हैं, उन्हें डिसेबल कर दिया गया है. मैकेंजी ने कहा- 'ये विमान अब कभी नहीं उड़ेंगे... इन्हें कभी कोई ऑपरेट नहीं कर पाएगा. हालांकि इनमें से ज्यादातर विमान मिशन के लिहाज से नहीं बनाए गए थे, लेकिन फिर भी इन्हें कभी कोई उड़ा नहीं सकेगा.'
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वैसे अमेरिका के जाते ही तालिबान ने एक बार फिर अपना असली रुप दिखाने में देरी नहीं की. एक अफग़ानी नागरिक जो अमेरिकियों का ट्रांसलेटर था, उसे एक हेलीकॉप्टर से लटका कर फांसी दे दी। वहीं दूसरी तरफ़ हज़ारा समुदाय के 14 लोगों को एक साथ मारा डाला.
अमेरिका की वापसी के साथ ही अब ये सवाल सर उठाएंगे कि इन बीस सालों में अमेरिका कितना हारा, कितना जीता, या सिर्फ हारा ही हारा? दुनिया का सबसे ताकतवर देश जिसके पास सबसे आधुनिक सेना है, सबसे आधुनिक टेक्नोलॉजी और सबसे आधुनिक वायु सेना है, वो तालिबान से जीत क्यों नहीं पाया? क्योंकि बीस साल पहले जब अमेरिका अफगान में पहुंचा तब भी तालिबान था. और बीस साल बाद अब जब अमेरिका की रुखसती हुई है तब भी तालिबान मौजूद है.
वैसे अमेरिका को बचाने वाले कह सकते हैं कि इन बीस सालों में अमेरिकी सेना ने ओसामा बिन लादेन को ना सिर्फ ढूंढ निकाला बल्कि मार भी डाला. अल-क़ायदा को जड़ से उखाड़ फेंका. उसके तमाम बड़े आकाओं को या तो मार डाला या गिरफ़्तार कर लिया. अफ़ग़ानिस्तान में बुनियादी ढांचों का विकास किया. महिलाओं की शिक्षा के लिए स्कूल खोले. एक पढ़ा-लिखा मध्यम वर्ग उभार कर सामने लाया.
Kabul Blast : सुबह अलर्ट जारी और शाम में 2 धमाके, फिर तालिबान ने क्यों नहीं दी सुरक्षा? CRIME TAK ने सबसे पहले दी थी ख़बरलेकिन इतिहास ये बताता है कि अफ़ग़ानिस्तान के अलावा सीरिया, इराक़ और यमन में भी अमेरिका आतंकवादियों को जड़ से उखाड़ फेंकने में नाकाम रहा है. बीस साल बाद फिर से तालिबान की जंग में जीत और उसका सत्ता में वापस लौटना अमेरिका की नाकामी का सबसे बड़ा सबूत है. इतिहास पर नज़र डालें तो 1945 तक अमेरिका ने लगभग सभी बड़े युद्ध जीते थे. लेकिन 1945 के बाद से अमेरिका ने बहुत कम ही जंग में जीत हासिल की है.
1945 के बाद से अमेरिका ने पांच बड़ी जंग लड़ी है. कोरिया, वियतनाम, खाड़ी युद्ध, इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान. इस दौरान उसने कुछ छोटे युद्ध भी लड़े हैं जिनमें सोमालिया, यमन और लीबिया शामिल हैं. 1991 के खाड़ी युद्ध को छोड़ दें जिसे अमेरिका के लिए कामयाब माना जा सकता है तो अमेरिका ने बाक़ी सभी जंगों में शिकस्त ही खाई है.
शिकस्त तो छोड़िए बेनग़ाज़ी, सोमालिया, सैगॉन और अब अफगान से जिस बेबसी और लाचारगी के आलम में अमेरिकी फ़ौजी लौटे हैं वो अमेरिका के लिए और भी शर्मनाक हो जाता है. पर सवाल ये है कि आखिर अमोरिका युद्ध हार क्यों जाता है? तो विशेषज्ञों की मानें तो इसकी कई वजहें हैं. और इनमें एक सबसे बड़ी वजह है स्थानीय संस्कृति को नहीं समझ पाना.
इराक़, सीरिया, लीबिया और अफ़ग़ानिस्तान जैसी लड़ाइयां एक तरह से गृहयुद्ध थे. इन जंगों में सिर्फ ताकत या भौतिक शक्ति जीत की गारंटी नहीं होती. ख़ास तौर पर जब अमेरिका जैसा देश स्थानीय संस्कृति से अनजान है और एक ऐसे दुश्मन से लड़ता है जो अधिक जानकार और अधिक कट्टर है.
काबुल एयरपोर्ट पर हमले ने दुनिया के सबसे बुरे सपने को सच साबित कर दिया, TALIBAN और ISIS-K की दुश्मनी की INSIDE STORYअफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका का सामना मुश्किल इलाक़ों से हुआ. इतनी सारी घाटियों, पहाड़ों और गुफाओं में ख़ुफ़िया ठिकानों से तालिबान गहराई से वाकिफ था. लेकिन अमेरिकी सैनिक नहीं. जब भी अमेरिकी सैनिकों को कोई ख़तरा नज़र आता तो वो अपनी ताकत का भरपूर इस्तेमाल करके इलाक़े पर बुरी तरह से बमबारी करते और पूरे इलाक़े को तबाह कर देते.
मगर जान की परवाह न करने और अपनी विचारधारा के लिए जान देने वाला तालिबान आख़िरकार अमेरिकियों को भगाने में कामयाब रहा. दरअसल तालिबान ऐसा इसलिए कर पाया क्योंकि तालिबान इसे सिर्फ देश की लड़ाई नहीं बल्कि धर्मयुद्ध बनाने में भी कामयाब रहा. तालिबान के पास एक मकसद था. धार्मिक, जातीय और राष्ट्रवादी अपीलों का हथियायार था. इसके उलट अफ़ग़ान सरकार लोकतंत्र या मानवाधिकारों या एक राष्ट्रवादी अपील के आधार पर कामयाब होने में नाकाम रही.
ESCAPE FROM TALIBAN जब भारत की बेटी ने उतारा तालिबान को मौत के घाटवैसे अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान में शिकस्त ज़रूर मिली है. लेकिन तालिबान की सत्ता में वापसी, रूस और चीन से तालिबान की करीबी और अफ़ग़ानिस्तान में रूस-चीन की बढ़ती दिलचस्पी अमेरिका को अफगान से दूर नहीं रख सकती.
वैसे भी एक ओसामा बिन लादेन को छोड़ दें तो अफगान का विकास, लोकतंत्र, मानवाधिकार और महिलाओं की शिक्षा वगैरह तो बस एक बहाना था. अफगान में अमेरिका का सबसे बड़ा खेल तो चीन और रूस को अफगानिस्तान से दूर रखना था. मगर अब अफगान से विदाई के बावजूद अमेरिका की कोशिश होगी कि किसी भी तरह चीन और रूस को अफ़ग़ानिस्तान से दूर रखा जाए. बहुत मुम्किन है असके लिए अमेरिका को एक बार फिर पाकिस्तान की ज़रूरत पड़े. क्योंकि पाकिस्तान का तालिबान पर बेहद गहरा असर है.
Afghanistan-Taliban Crisis : आतंकी संगठन है तालिबान, FACEBOOK, INSTAGRAM और WHATSAPP पर बैन : फेसबुक प्रवक्तावैसे अमेरिका को फिक्र इस बात की भी है कि कहीं अफ़ग़ानिस्तान एक बार फिर से ऐसे चरमपंथी संगठनों का अड्डा न बन जाए जो अमेरिका के अंदर या बाहर अमेरिकी दूतावासों या इसके फ़ौजी अड्डों को निशाना बनाएं.
दरअसल अफगानिस्तान हर दौर में महाशक्तियों के लिए इसलिए अहम रहा है कयोंकि मध्य एशिया और दक्षिण एशिया में दाखिल होने का दरवाजा अफगान से ही खुलता है. अफगानिस्तान से होकर पश्चिम एशिया जाया सकता है. तो तुर्कमेनिस्तान, तजाकिस्तान, उज्बेकिस्तान जैसे मध्य एशियाई देशों के लिए भी रास्ता यहां से जाता है. अफगान की सीमा चीन से भी लगती है. ईरान भी अफगान का पड़ोसी है। ईरान से होकर फारस में जाकर यूरोप पहुंचा जा सकता है. पूर्व में पाकिस्तान से अफगान की लंबी सीमा मिलती है.
Taliban 2.0 : इन 4 नेताओं के इर्दगिर्द रहेगी तालिबान की सत्ता, जानें पूरी डिटेलभारत के लिए भी मध्य एशिया में जाने का रास्ता अफगानिस्तान से होकर ही जाता है. भारत चाहे पाकिस्तान होकर मध्य एशिया जाए या फिर ईरान होकर, गुजरेगा अफगानिस्तान होकर ही. हालांकि भारत से अफगान की सीमा नहीं मिलती है. लेकिन PoK के जिस गिलगित बाल्टिस्तान पर अभी पाकिस्तान का कब्जा है वो अफगान की सीमा को छूती है. यानी अगर पूरा जम्मू-कश्मीर भारत का हो जाए तो अफगान और भारत की सीमा एक-दूसरे से मिल जाएगी.
AFGHANISTAN: TALIBAN ने कॉमेडियन नज़र मोहम्मद को घर से बाहर खींचकर निकाला और फिर ऐसे बेरहमी से मौत के घाट उतार दियाअब अफगान तालिबान के हवाले है. पर तारीख गवाह रहा है कि अफगान में मुल्क की पहचान से ज्यादा इलाकाई और जनजातीय पहचान हावी है. पख्तून, ताजिक, हजारा, उज्बेक, तुर्कमान जैसी जनजातियों की बहुसांस्कृतिक पहचान के बीच यहां राष्ट्रीय पहचान का पनपना हमेशा मुश्किल रहा है. लिहाजा सैकड़ों सालों से ये देश अंदुरूनी संघर्षों से जूझता रहा है. इसलिए अफगान की सरजमीन पर एक अफगानिस्तान की बात नहीं होती है.
दर्जनों संगठन और लड़ाके इसकी मिट्टी पर पनपते हैं, हजारों मिलिशिया पैसे के लिए लड़ते हैं. जिनके लिए राष्ट्रीय अस्मिता से ज्यादा महत्वपूर्ण जातीय और क्षेत्रीय अस्मिता है. इसलिए इस मुल्क में कभी अमीर की हुकूमत रहती है तो कभी तालिबान पनपता है. तो कभी अहमद शाह मसूद, हिकमतयार और हक्कानी जैसे लड़ाके अपनी हुकूमत चलाने की कोशिश करते हैं. पर फिलहाल की तस्वीर और सच ये है कि बीस साल बाद अफ़ग़ान में फिर से तालिबान है.
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