जब इस हाई-प्रोफाइल नेता के क़त्ल की वजह से जाने वाली थी मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की कुर्सी!

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इस कत्ल में ये सबको पता था कि पर्दे के पीछे बैठकर डोर कोई और हिला रहा था और सड़क पर पिस्टल का ट्रिगर कोई और दबा रहा था।नब्बे के दशक में जब राजनीतिक हत्याकांड आम थे तो क्यों इस कत्ल से हिल गई थी सूबे की सरकार, पढ़िए पूरी कहानी

उत्तर प्रदेश में सर्द की एक रात पूरे प्रदेश का पारा इतना बढ़ा देगी। इसका अंदाजा केवल उनको था जिन्होंने फूंक-फूंक कर पूरी साजिश का तानाबना बुना था। साल 1997 महीना था फरवरी का...देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू था। हर राजनीतिक दल बहुमत से कोसों दूर । ऐसे में सत्ता की ओर बढ़ता बीजेपी-बीएसपी गठबंधन। इस गठबंधन का सबसे मजबूत जोड़ वो आदमी था जिसकी साख न केवल अपनी पार्टी में बेहद अहम थी बल्कि दूसरी पार्टी बीएसपी की सुप्रीमो मायावती उन पर आंख मींच कर भरोसा करती थीं ।

उत्तर प्रदेश की बागडोर बीजेपी की ओर से संभालने के वो प्रबल दावेदारों में से एक थे । उत्तर प्रदेश की राजनीति को शर्मसार कर देने वाले लखनऊ गेस्ट हाउस कांड में मायावती की जान बचाने वाले बीजेपी नेता ब्रह्मदत्त द्विवेदी ।इस कांड के बाद बीएसपी सुप्रीमो मायावती ब्रह्मदत्त द्विवेदी पर बेइंतहा भरोसा करती थीं और ब्रह्मदत्त बीजेपी-बीएसपी गठबंधन वाली सरकार बनाने की कोशिशों में लगे हुए थे ।

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1997 में ब्रह्मदत्त द्विवेदी बीजेपी की तरफ से बीएसपी के साथ गठबंधन में लगे थे। मायावती के वे काफी करीबी माने जाते थे। समझौते की शर्तें करीब-करीब तय हो चुकी थीं किसी भी पल बीजेपी-बीएसपी गठबंधन बहुमत का दावा ठोंक सकता था लेकिन तभी वो हुआ जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी ।

इधर, द्विवेदी बीजेपी-बीएसपी की सरकार बनाने की कवायद में जुटे थे तो दूसरी तरफ कुछ लोगों को उनकी ये कवायद रास नहीं आ रही थी लेकिन द्विवेदी का कद इतना बड़ा था कि खुलकर विरोध करते भी तो कैसे? लिहाजा वो तरीका अपनाया गया कि द्विवेदी की सियासत ही नहीं जिंदगी भी खत्म हो गई।

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शादी की दावत से लौटते समय हुई ताबड़तोड़ फायरिंग

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10 फरवरी 1997 की रात को ब्रह्मदत्त द्विवेदी अपने शहर फर्रुखाबाद में एक शादी की दावत में शामिल होने के बाद वापस घर लौट रहे थे । द्विवेदी अपनी कार में बैठे ही थे कि वहां पर कुछ हथियारबंद बदमाश आ पहुंचे । इससे पहले कोई कुछ समझ पाता और किसी को संभलने का मौका मिलता हमलावरों ने ताबड़तोड़ फायरिंग कर डाली ।

गोलीबारी का शिकार न केवल ब्रह्मदत्त हुए बल्कि उनका गनर भी बना था । कार पर इतनी गोलियां बरसाई गईं थी कि किसी का भी बचना बेहद मुश्किल था । एक बड़े आदमी का क़त्ल लेकिन हत्यारे बेखौफ । कई लोगों ने कातिलों को देखा यानी कातिलों का पकड़ा जाना बेहद आसान था। लेकिन क्या कातिल पकड़े गए?

मुख्यमंत्री के दावेदार शख्स का कत्ल कुछ इस तरह होना किसी साजिश की ओर इशारा कर रहा था। ब्रह्मदत्त द्विवेदी की हत्या की खबर जंगल की आग की तरह फैली। लोग सड़कों पर उतर आए। हजारों की भीड़ के बीच शव यात्रा में पहुंचे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी और तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवानी ने द्विवेदी के राजनैतिक कद का एहसास कराया। चश्मदीदों के बयान के आधार पर द्विवेदी के परिवार के लोगों ने कुल चार लोगों के खिलाफ नामजद रिपोर्ट लिखवाई

एफआईआर में विधायक और दंबग नेता का आया नाम

एफआईआर में फर्रुखाबाद के ही एक स्थानीय विधायक और दबंग नेता विजय सिंह और तीन अज्ञात लोगों का नाम लिखवाया गया । कई टीमें तैयार की गईं और जगह-जगह विजय सिंह को पकड़ने के लिए पुलिस की छापेमारी की गई और आखिरकार विजय सिंह को दिल्ली से गिरफ्तार कर लिया गया।

चर्चाओं का बाजार गर्म रहा कि गिरफ्तारी से पहले विजय सिंह उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले एक बड़े नेता के यहां छिपा रहा। विजय सिंह से पूछताछ के बाद एफआईआर में लिखाए गए तीनों अज्ञात नाम सामने आ गए ।

ये थे कुख्यात शूटर संजीव माहेश्वरी, बलविंदर सिंह और रमेश ठाकुर ...इनमें से रमेश ठाकुर की एनकाउंटर में मौत हो गई तो लोगों की नजरें बलविंदर सिंह और संजीव माहेश्नवरी पर टिक गईं कि शायद वही सच उगल दें और कत्ल के पीछे की असली वजह का खुलासा कर दें। लेकिन कमाल देखिए कि देश की सबसे सक्षम जांच एजेंसी सीबीआई ने बलविंदर सिंह की शिनाख्त कराने की जरुरत तक नहीं समझी।

यही वजह थी कि बलविंदर ब्रह्मदत्त द्विवेदी की हत्या के आरोप से छूट गया। चारों से हुई पूछताछ के बाद दावा किया गया कि साजिश का तानाबाना विजय सिंह ने रचा । क्या सचमुच पर्दे के पीछे कुछ लोग थे या फिर कत्ल का तानाबाना सिर्फ और सिर्फ विजय सिंह ने ही बुना था? जैसे-जैसे सीबीआई की जांच आगे बढ़ी सियासत के कई बड़े नाम सामने आए। सबसे पहला नाम आया उर्मिला राजपूत का।

उर्मिला राजपूत फर्रुखाबाद के कमालगंज से तत्कालीन बीजेपी विधायक थीं। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की खासमखास थीं। उन पर हाथ डालने में सीबीआई को महीनों लग गए। जांच के दौरान सीबीआई को पता लगा कि ब्रह्मदत्त द्विवेदी की हत्या से एक रात पहले उर्मिला राजपूत और विजय सिंह साथ-साथ देखे गए थे।

वो भी फर्रुखाबाद के तत्कालीन सांसद साक्षी महाराज के आश्रम में। उर्मिला के साथ ही उनके बेटे पंचशील राजपूत का नाम भी सामने आया।सीबीआई ने जांच में पाया कि पंचशील न केवल शार्प शूटरों को फर्रुखाबाद तक लाया था बल्कि उसने ही उन्हें हथियार भी मुहैया करवाए थे। अपनी जांच में सीबीआई ने दावा किया कि द्विवेदी को रास्ते से हटाने के लिए विजय सिंह और उर्मिला राजपूत एक साथ मिल गए।

लेकिन पंचशील खुद को बेगुनाह बता रहा था उसकी दलील थी कि विजय सिंह ने उसे और उसकी मां को फंसाया है। सीबीआई लगातार इस केस में हाथ पैर मारती रही । कातिल सामने थे लेकिन कत्ल का मकसद और कत्ल की साजिश रचने वाला दिमाग सीबीआई की पहुंच से कोसों दूर था।

सीबीआई की तफ्तीश के दौरान भाजपा के नेता स्वामी साक्षी महाराज का नाम साजिश रचने वाले दिमाग के तौर पर सामने आया । साक्षी उस वक्त न केवल फर्रुखाबाद के तत्कालीन सांसद थे बल्कि तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के करीबी भी थे ।

उस वक्त सीबीआई की ओर से मुकदमा लड़ रहे वकील का तो यहां तक कहना था कि सीबीआई के हाथ साक्षी महाराज के खिलाफ कुछ ऐसे सुबूत लगे कि उसने साक्षी के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए सरकार से इजाजत मांगी थी, फाइल सीबीआई के दिल्ली हैडक्वार्टर भेजी गई लेकिन वो कागज हैडक्वार्टर पहुंचने के बाद कहां गायब हो गए इसका पता आजतक नहीं है।

यानी बड़े चौंकाने वाले और रहस्यमय तरीके से द्विवदी मर्डर की फाइल गुम हो गई। वो फाइल जो न केवल रहस्य पर से पर्दा हटा सकती थी बल्कि साजिशकर्ता का असली चेहरा भी बेनकाब कर सकती थी। सवाल ये है कि फाइल वाकई गुम हो गई या करा दी गई। कहा तो ये भी जाता है कि साक्षी महाराज को बचाने के लिए सीबीआई पर दबाव डाला गया और उनके खिलाफ जांच को निर्णायक मुकाम पर ले जाकर छोड़ दिया गया।

द्विवेदी की हत्या से आखिर किसे फायदा होना था, इसका जवाब तक सीबीआई ने ढूंढूने की कोशिश नहीं की। साक्षी महाराज को छोड़कर सीबीआई ने विजय सिंह, उर्मिला ठाकुर, पंचशील ठाकुर, रमेश ठाकुर, बलविंदर सिंह और साजिश में शामिल दूसरे लोगों के खिलाफ कोर्ट में चार्जशीट दाखिल की ।

अदालत में सीबीआई ने आरोप लगाया कि विजय सिंह की ब्रह्मदत्त द्विवेदी से राजनैतिक रंजिश थी और वारदात के कुछ दिन पहले ही दोनों में लड़ाई भी हुई थी। सीबीआई ने ये भी कहा कि उर्मिला राजपूत और उनका बेटा साजिश में इस वजह से शामिल हुए क्योंकि उन्हें ब्रह्मदत्त द्विवेदी के कत्ल से राजनैतिक फायदा होने की उम्मीद थी। इसी वजह से भाड़े के हत्यारों से ब्रह्मदत्त द्विवेदी की हत्या कराई गई।

कई साल मुकदमें के बाद आखिरकार 17 जुलाई 2003 को अदालत का फैसला आया ।कोर्ट ने अपने फैसले में विजय सिंह और संजीव माहेश्वरी को दोषी मानते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई । उर्मिला राजपूत समेत बाकी किसी भी अभियुक्त को सजा दिलाने में सीबीआई नाकामयाब रही। सीबीआई के तत्कालीन वकील खुद मानते हैं कि सीबीआई ने मामले की तफ्तीश ठीक तरीके से नहीं की। यानी इस मामले में कई लोग बच गए लेकिन आखिर वो कौन लोग थे इसका खुलासा शायद कभी नहीं हो पाया ।

यही वजह है कि आज भी लोग इस बात पर यकीन नहीं करते कि विजय सिंह ने ही द्विवेदी की हत्या की थी। दरअसल द्विवेदी का नाम उस वक्त के उत्तर प्रदेश के बीजेपी नेताओं की पहली पंक्ति में शुमार किया जाता था। उनकी हत्या कोई मामूली हत्या नहीं थी ये एक राजनैतिक हत्या थी। उनकी हत्या से जाहिर तौर पर किसी को राजनैतिक फायदा होना था लेकिन आखिर किसे ?

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