एक रास्ता जहां भटके हुए लोगों को राह दिखाती हैं लाशें! क्या है इस डेथ ज़ोन का रहस्य?

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एक ऐसी जगह जहां पिछले 100 सालों से लाशें रास्ता बता रही हैं, और अगर उन लाशों के बताए रास्ते पर इंसान ना चले तो एवरेस्ट के बर्फीले पहाड़ों में भटक जाता है इंसान। आखिर ये कौन सा रास्ता है, जहां लाशों को मील का पत्थर बना दिया गया, और उन्हें दो गज़ ज़मीन भी मय्यसर नहीं होती। क्यों उन लाशें इंसानों के लिए माइल स्टोन बना दी जाती हैं? क्यों ये सैकड़ों सालों बाद भी खराब नहीं होती हैं? इन तमाम सवालों के जवाब दुनिया की इस सबसे ऊंची एवरेस्ट की बर्फीली चोटी पर हैं। एक ऐसा बर्फीला पहाड़ जहां इंसान मरते तो हैं, मगर उनकी लाशें वहां से वापस कभी नहीं आती हैं क्योंकि ये पहाड़ उन लाशों को वहां से वापस आने ही नहीं देता।

ज़मीन ऐसी बंजर और दर्रे इतने ऊंचे कि यहां तक पहुंचना ज़िंदगी का मक़सद तो हो सकता है, मगर मजबूरी नहीं। क्योंकि यहां मौत ज़िंदगी पर भारी पड़ जाती है। ये एवरेस्ट है, दुनिया का सबसे ऊंचा, सबसे ठंडा और सबसे खतरनाक पहाड़। हर साल इसे फतह करने का मिशन बनाकर यहां करीब तीन-साढे तीन सौ लोग आते हैं, कुछ कामयाब होते हैं और कुछ नाकामयाब होकर यहीं इसी बर्फ में समा जाते हैं। मगर ये मर कर भी मरते नहीं हैं, ये अपनी गलतियों से दूसरों को सबक देते हैं, कि जिस रास्ते पर उन्हें मौत मिली, उस पर जाना मना है। और कभी कभी उनकी लाशें यहां आने वाले पर्वतारोहियों के लिए गूगल मैप का भी काम करती हैं।

एवरेस्ट के पर्वत पर इस वक्त 308 से ज्यादा माइल स्टोन यानी लाशें गड़ी हुई हैं, जिन्हें देखकर यहां आने वाले पर्वतारोही अपनी मंज़िल तय करते हैं। ये लोग कौन हैं इनका खुलासा करेंगे मगर उससे पहले ये जानना ज़रूरी है कि एवरेस्ट पर इंसान से मील का पत्थर बन चुके ये लोग आखिर मरे कैसे? एक आंकड़े के मुताबिक सबसे ज़्यादा मौत यहां पैर फिसल कर गिरने की वजह से हुईं और उसके बाद ठंड की वजह से दिमाग सुन्न हो जाने पर लोगों की सांसे थम गईं।

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सरकारों ने अब तक इन लाशों को उनके अपनों तक पहुंचाने की कोशिश भी नहीं की, क्योंकि यहां इस बर्फीली चोटी से लाशों को नीचे ज़मीन पर लाना ना सिर्फ नामुमकिन सा है, बल्कि अंदाज़े से ज़्यादा खर्चीला भी है। लिहाज़ा एवरेस्ट की इंतेज़ामिया कमेटी इन लाशों को यहीं छोड़ देती है। एक अनुमान के मुताबिक अगर एवरेस्ट पर पड़ी 308 लाशों में से किसी एक लाश को भी उतारा जाए, तो ना सिर्फ 30 लाख रुपयों का खर्च आएगा बल्कि उसे उतारने के लिए जो लोग इन बर्फीली चोटियों पर चढ़ेंगे उनकी जान जाने का भी खतरा होगा।

माइनस 16 से माइनस 40 डिग्री का ये वो तापमान है जहां हम और आप जाने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते, वहां पर्वतारोही एवरेस्ट की खड़ी पहाड़ियों पर चढ़ने की ज़िद करते हैं। जो तकरीबन खुदकुशी करने के बराबर है, कुछ एक हद तक जाकर लौट आते हैं। तो कुछ आगे जाने की ज़िद में अपनी जान जोखिम में डाल देते हैं, और ये 308 लाशें उन्हीं लोगों की हैं जिन्होंने कुदरत के कहर से लड़ने की ज़िद की। मरने वालों में कई तो ऐसे हैं जिन्होंने एवरेस्ट की चोटी को फतह तो कर लिया, मगर उनकी मौत इस बर्फीली पहाड़ी से उतरते वक्त हुई।

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एवरेस्ट की इस पहाड़ी पर दो तरफ से चढ़ाई की जाती है और इन दोनों तरफ अलग अलग दूरी पर पर्वतारोहियों की लाशें सालों से पड़ी हैं। इन लाशों के कोई नाम नहीं है, बस इनके कपड़ों और जूते रास्ता बताने वाले पहचान चिन्ह बन गए हैं। एक लाश ग्रीन बूट के नाम से जानी जाती है, जो एवरेस्ट के उत्तर-पूर्वी रास्ते पर है। जो भारतीय पर्वतारोही शेवांग पलजोर की है। जो साल 1996 में एवरेस्ट पर चढ़ाई करते हुए बर्फीले तूफान में फंस कर मारे गए थे। आज तक शेवांग की लाश वहीं पड़ी है और ग्रीन बूट के नाम से जानी जाती है। शेवांग की तरह कई और लाशें भी इन्हीं रास्तों पर हैं, जिन्हें नाम से नहीं बल्कि उनके कपड़ों या जूतों से पहचाना जाता है।

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एवरेस्ट की ऊंचाई करीब 29 हज़ार फीट है और जिन 308 लोगों की मौत के आंकड़े सरकार के पास हैं। उनकी लाशें 26 हज़ार फीट और उसके ऊपर से मिलनी शुरू होती हैं, 26 से 29 हज़ार फीट के बीच 3000 फीट के इसी रास्ते को डेथ ज़ोन का नाम दिया गया है। यहां तक पहुंचने के बाद या तो बर्फीला तूफान इन्हें मार देता है या हड्डियां गला देने वाला तापमान। कई लोगों का तो दिमाग ही काम करना बंद कर देता है।

दुनिया की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट की चढ़ाई हमेशा ही खतरनाक साबित हुई है, हालांकि यहां मरने वालों के आंकड़े हर साल जारी नहीं किए जाते हैं मगर हर साल एवरेस्ट पर दर्जनभर से ज़्यादा पर्वतारोहियों की मौत होती है, जिनमें ज़्यादातर बर्फीले तूफान का शिकार होते हैं। यूं तो एवरेस्ट को फतह करने की कोशिश 1921 में हुई थी, उसके बाद से यहां पर्वतारोहियों का आना-जाना शुरू हुआ और 32 सालों यानी 1953 तक सैकडों लोगों ने इसे फतह करने की कोशिश की और मारे भी गए मगर उनकी मौत के आंकड़े नहीं हैं। फिर साल 1953 में एडमंड हिलेरी और तेनजिंग नोर्गे ने पहली बार एवरेस्ट की चोटी को छुआ।

एवरेस्ट पर चढ़ाई दुनिया के सबसे कठिन कामों में से एक है और यहां जाने गंवा चुके पर्वतारोहियों की मौत के आंकड़े इसकी तस्दीक भी करते हैं। करीब 29 हज़ार फीट ऊंचे एवरेस्ट में सबसे ज्यादा मौतें 26 हज़ार फीट और उसके ऊपर से शुरू होती हैं और इसीलिए 26 से 29 हज़ार फीट के इस सफर को डेथ जोन कहा जाता है। इतनी ऊंचाई से लाशें लाना तकरीबन नामुमकिन काम है, इसलिए उन्हें वहीं छोड़ दिया जाता है। जिसे यहां आने वाले पर्वतारोही एवरेस्ट पर चढ़ने के रास्ते का पता लगाने का ज़रिया बना देते हैं, इन्हीं लाशों को देखकर नए पर्वतारोहियों को सही रास्ते का पता चलता है।

एवरेस्ट पर कुछ लाशें तो दशकों से पड़ीं हैं, तो कुछ नई हैं। इन मौतों का सबसे बड़ा कारण है एवरेस्ट का जानलेवा तापमान और बर्फीला तूफान, मगर इसी तापमान की वजह से यहां मरे हुए पर्वतारोहियों की लाशें भी खराब नहीं होती हैं। एक आंकड़े के मुताबिक एवरेस्ट पर,

साल 1970 में 6 मौतें.

1974 में 6 मौतें.

1996 में 12 मौतें.

2014 में 16 मौतें.

और

2015 में 22 मौतें हुईं

अब रहा सवाल कि जिन लोगों ने एवरेस्ट की इन बर्फीली पहाड़ियों पर अपनी जानें गंवाईं हैं वो लोग कौन हैं? और कहां से इस जानलेवा पहाड़ियों पर आए थे? तो सुनिए, एवरेस्ट पर अपनी जान गंवाने वाले पर्वतारोहियों में सबसे ज़्यादा,

119 नेपाल के थे

भारत के 19 लोग

जापान के 19 पर्वतारोही

वहीं इंग्लैंड के 17

अमेरिका के 15

चीन के 12

द. कोरिया के 11 लोगों के अलावा

करीब दो दर्जन देशों के लोगों ने यहां अपनी जानें गवाईं हैं, मगर एक सवाल का जवाब जानना ज़रूरी है। औऱ वो ये कि आखिर एवरेस्ट की चोटी पर कैसे मरे 308 लोग? तो सुनिए एवरेस्ट पर जिस वजह से सबसे ज़्यादा मौतें हुईं वो है,

एवलांच, जिसकी चपेट में आने 68 लोग मारे गए

इसके अलावा गिरने से 67

ठंड लगने से 27 लोग

ऊंचाई के डर से 21 लोग

दिल का दौरा पड़ने से 11 लोग

थकान की वजह से 15

और दूसरी कई वजहों से 83 लोगों ने अपनी जान गंवाई

एवरेस्ट पर चढ़ाई करने के लिए हर साल देशभर से हज़ारों पर्वतारोहियों की गुज़ारिश आती है, जिन्हें नेपाल सरकार परमिट जारी करती है। इस परमिट के लिए करीब 8 लाख रुपये लिए जाते हैं, यहां आने वाले हर पर्वतारोही को एवरेस्ट पर होने वाले खतरों से आगाह कराया जाता है। कुछ तो इन खतरों को सुनकर ही लौट जाते हैं और कुछ हिम्मत करते हैं अपनी ज़िद को पूरा करने की। इसमें से कुछ कामयाब होते हैं और कुछ मील की पत्थर बन जाते हैं।

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