इंसाफ दिला पाने में आखिर क्यों "स्लो" साबित हो रहे हैं फास्ट ट्रैक कोर्ट ?

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Fast Track Court Justice: मध्य प्रदेश के खंडवा में 11 साल तक जेल काटने और 6 साल तक फांसी का इंतजार करने के बाद एक सजायाफ्ता मुजरिम को दोषमुक्त कर दिया गया। इस फैसले को किसी फास्ट ट्रैक कोर्ट के सबसे अनोखे फैसले के तौर पर देखा जा रहा है। खासतौर पर इसलिये कि इसी ट्रायल कोर्ट ने दो बार और हाई कोर्ट ने फैसले के खिलाफ अपील करने पर एक बार आरोपी को एक बच्ची के साथ दुष्कर्म के मामले में फांसी की सजा सुनाई थी। मगर एक डीएनए रिपोर्ट ने आरोपी को बेगुनाह साबित कर दिया और आखिरकार अदालत को आरोपी को रिहा करना पड़ा। ये बात और है कि फांसी की सजा सुनाए जाने के बाद आरोपी सालों साल जेल के भीतर तिल तिल कर मरता रहा।

इंसाफ के लिये लंबा इंतजार- 

भारत में फास्ट ट्रैक कोर्ट की शुरुआत लगभग बीस साल पहले महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों के खिलाफ होने वाले अपराध के मामलों में त्वरित न्याय दिलाने के लिये की गई। मगर एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो) की रिपोर्ट के मुताबिक आज दो दशक बाद ये व्यवस्था फेल होती दिख रहा है। मिसाल के तौर पर दिल्ली की फास्ट ट्रैक अदालतें एक मुकदमा निपटाने में जहां 122 दिन का समय लेती हैं वहीं आम अदालतें ऐसे ही किसी एक केस को 133 दिन में निपटाती हैं। यानी फास्ट ट्रैक अदालतों पर ज्यादा खर्च करने के बावजूद मुकदमों का फैसला लगभग उतने ही वक्त में हो पाता है।

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तेज नहीं धीमी साबित हुईं फास्ट ट्रैक कोर्ट-

एनसीआरबी से मिले आंकड़ों को देखें तो 2019 तक जिन 26,965 मामलों में फास्ट ट्रैक कोर्ट का फैसला आया है उनमें से 81% का ट्रायल पूरा होने में एक साल से दस साल तक का वक्त लगा है। इनमें पोक्सो से जुड़े संगीन मामले भी शामिल हैं जिनमें से 69% का ट्रायल एक साल से दस साल तक खिंचा। जबकि पोक्सो एक्ट के मुताबिक फास्ट ट्रैक कोर्ट को दिये गये संवेदनशील मुकदमों का निस्तारण एक साल के भीतर होना चाहिये। जाहिर है फास्ट ट्रैक अदालतों से इंसाफ मिलने में हुई इस देरी से संगीन अपराध की शिकार महिलाओं और बच्चों, चाइल्ड ट्रैफिकिंग के शिकार बच्चों, बुजुर्गों और शारीरिक रूप से अक्षम पीड़ितों की जिंदगी नर्क बन जाती है।

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फास्ट ट्रैक अदालतों का महंगा इंसाफ-

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इन आंकड़ों के साथ साथ अगर फास्ट ट्रैक अदालतों पर हो रहे खर्च और कनविक्शन रेट की बात करें तो हालात और खराब दिखाई देते हैं। मिसाल के तौर पर आईसीपीएफ (इंडिया चाइल्ड प्रोटेक्शन फंड) की ओर से जारी किये गये 2022 के आंकड़े बताते हैं कि पोक्सो के मामलों में इस साल सिर्फ 3% मुकदमों में फैसला आया। यानी औसतन एक पोक्सो कोर्ट साल भर में बस 28 मामलों पर फैसला दे पाता है। जबकि इनमें से हर एक केस पर फैसला देने में औसतन 2.73 लाख का खर्च आता है। 

बच निकलते हैं ज्यादातर आरोपी-

ट्रायल पूरा कर सजा दे पाने के मामले में भी फास्ट ट्रैक कोर्ट आम अदालतों के मुकाबले ज्यादा कारगर साबित नहीं हो पाए। आईसीपीएफ की रिपोर्ट बताती है कि फास्ट ट्रैक अदालतों में भेजे गए कुल 2,68,038 मुकदमों में सिर्फ 8909 मामलों में आरोपियों को सजा हुई। बाकी सभी मामलों में पुलिस की कमजोर जांच या फिर कानूनी पेचीदगियों का फायदा उठा कर लगभग 97% आरोपी कानून की गिरफ्त से बच निकले। 

इतने मुकदमे कि निपटाने में लग जाएंगे 9 साल

केंद्रिय कानून मंत्री किरण रिजिजू की ओर से 31 जनवरी 2023 को संसद में एक सवाल के जवाब में बताया कि देश भर की फास्ट ट्रैक अदालतों में उस समय 15 लाख 8 हजार से ज्यादा मामले लंबित थे। जाहिर है बीते साल इन अदालतों में गये नये मामलों में और इजाफा हुआ होगा। इसीलिये एक आंकलन के मुताबिक अगर फास्ट ट्रैक अदालतों को नये मामले न भी दिये जाएं तो मौजूदा मुकदमों में फैसला सुनाने में कम से कम नौ साल का वक्त लग जाएगा। ऐसे में वक्त रहते इंसाफ दिला पाने में फास्ट ट्रैक अदालतों की नाकामी साफ झलकती है।

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